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________________ / अङ्क ११ ] Report, Volume I, Paras 215, 216. pages 87 88 के आधारपर लिखी गई है। इसका खण्डन जैनियोंका कर्तव्य है । • भूभ्रमणसिद्धान्त और जैनधर्म । धारा ५६४ और ७७ में वही लिखा है जो धारा २६६, २६७ में है । शेष जो कुछ बढ़ाकर लिखा है वह उन्हीं फ़ैसलोंके आधारपर है जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। धारा ७५६. में मिस्टर गौरने लिख दिया है कि जैनधर्मावलम्बी भद्रवाहुसंहिता को, जिसका निर्माणकाल ईलवी लन् से ३०० वर्ष पहले बतलाया जाता है, मानते हैं, और साथ ही मिस्टर जुग मन्दिरलाल जैनीकी बनाई हुई "जैनलॉ" पुस्तककी धारा ३६ से ४६ तकका उल्लेख किया है । यदि जैनियों में कोई और पुस्तक कानून सम्बन्धी अङ्गरेजीमें छुपी होती, अदालत हाईकोर्ट में पेश हुई होती और तजवीज़ में उसका उल्लेख होता, तो हमें आशा है कि मिस्टर गौर उसकी भी चर्चा अपनी पुस्तक में ज़रूर करते । आवश्यकता इस बातकी है कि एक बृहत् सभा करके भारतवर्षीय जैन-दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी एक कमेटी पfesोंकी नियत करें, जो जैनियोंके सम्बन्धर्मे जितनी कानूनी व्यवस्थाएँ हैं उन सबको एकत्र कर दें । और फिर वकीलोंकी एक कमेटी ऐसे संग्रहके श्राधारपर "जैननीति” तय्यार करके सरकार में पास होने को भेज दे । हिन्दू कानूनकी तरह जैन कानून कोई नहीं माना गया है। जहाँ हिन्दूधर्म लागू नहीं है, वहाँ जैनियोंको रीति सिद्ध करनी पड़ती है । इसे सिद्ध करनेमें बड़ा व्यय और परिश्रम उठाना पड़ता है। और फिर भी उसकी सिद्धिमें सन्देह ही रहता है । Jain Education International ३२६ इस कारण हिन्दू धर्मशास्त्र कोड रूपमें हो या न हो, परन्तु "जैनियोंका कानून स्थिर हो जाना तो अति श्रावश्यक और लाभदायक है । इसके बिना जैन जातिकी जो अत्यन्त हानि हो रही है वह बराबर होती रहेगी । I भूभ्रमणसिद्धान्त और जैनधर्म | [ लेखक - बाबू निहालकरणजी सेठी एम. एस सी. । ] श्रीयुत पण्डित रघुनाथदासजी सरनौके लिखे हुए " भूगोल भ्रमण मीमांसा" नामक लेख में जिन कल्पित सिद्धान्तोंको आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्त बतलाकर उनके खण्डन करने की बहादुरी दिखलाई गई है, उनका उल्लेख पिछले लेख में किया जा चुका है। और पृथ्वी के आकार और उसके भ्रमणके विपक्षमें जिन युक्तियोंका प्रयोग उक्त मीमांसा में किया गया था, उनकी निर्बलताका दिग्दर्शन भी वहाँ कराया जा चुका है । परन्तु इन्हीं प्रश्नोंसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ अन्य बातोंका भी ज़िक्र मीमांसा-लेखकने किया है । अतः यह आवश्यक है कि उन बातों के विषयमें भी जो भ्रम फैल जानेका डर है, उसको दूर कर देनेका प्रयत्न किया जाय । पृथ्वी की आकर्षण शक्ति । यद्यपि भूभ्रमण सिद्धान्त की पुष्टिके लिए पृथ्वी की आकर्षण शक्तिकी इतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, तब भी न जाने क्यों साधारणतः हमारे पण्डितगब इसके खण्डनको भूभ्रमण सिद्धान्तके खण्डनका एक मुख्य अङ्ग समझते हैं । पर खेद इस बातका है कि इस विषय के ज्ञानका जनता में उतना भी प्रचार नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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