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________________ ३४६ जैनहितैषी। [ भाग १५ माना जाता है । भारतवर्ष के अधिकांश · पृथ्वीकी आकृति । पंचांग इसी ग्रंथले बनते हैं और इसीके . इस विषय में सूर्य सिद्धान्तमें "भूगोल" अनुसार हिन्दुओंके प्रायः सारे व्यवहार शब्दका प्रयोग हुअा है; यथाहुमा करते हैं । 'सिद्धान्तशिरोमणि' ___मध्ये समन्तादण्डस्य भास्कराचार्य का लिखा हुमा ग्रंथ है। भूगोलो व्योंम्नि तिष्ठति । यही बात इस ग्रंथकी महत्ता प्रगट भास्कराचार्यने तो अपने ग्रन्थके दो करने के लिये पर्याप्त है; क्योंकि भास्क भाग किये हैं और उनमेंसे एकका नाम राचार्यका नाम संसारके प्रख्यात ज्योतिषियों में सर्वमान्य है। उनके लीला ही "गोलाध्याय" रक्खा है। भूमिका स्वरूप कहते समय वे "पिण्ड" शब्दका वती आदि ग्रन्थोंको कौन नहीं जानता । प्रयोग करते हैं। भारतवर्ष के जिन स्थानों और पाठशालाओंमें ज्योतिःशास्त्रके पठन पाठनका भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञ कविरवि प्रचार है, वहाँ सिद्धान्तशिरोमणिको कुजज्यार्कि नक्षत्रकक्षा । इत्यादि ॥२॥ मुख्य ग्रन्थ मानकर प्रायः सभी पढ़ते . भुवनकोशः पढ़ाते हैं। इसके समयका निर्णय ग्रन्थके और स्वकृत वासन भाष्य में वे 'पिण्ड' प्रश्नाध्यायके अंतमें भास्कराचार्यने स्वयं शब्दकी व्याख्या "पिण्डो वर्तुलाकारः" कर दिया है: इस वाक्य द्वारा करते हैं। __प्रश्न होता है कि यदि पिण्डाकार है रसगुण पूर्ण मही (१०३६) है तो फिर चपटी दिखलाई क्यों देती है ? : समशक समयेऽभवन्ममोत्पत्तिः। इसका उत्तर यों दिया गया हैरसगुण (३६) वर्षेणमया सिद्धान्त- अल्पकायतया लोकाः शिरोमणी रचितः ।। . ___ स्वास्थानात्सर्वतो मुखम् । पश्यन्ति वृत्तामप्यता अर्थात् मेरा जन्म १०३६ शक ( या १११५ ई.) में हुआ और छत्तीस वर्षकी चक्राकार वसुन्धराम् ॥५४॥ अवस्थामें मैंने सिद्धान्तशिरोमणिको सू० सि० अ० १२ बनाया है। छोटे शरीरवाले होनेके कारण ही गोलाकार पृथ्वीको चपटी चक्राकार यह न समझना चाहिए कि यही दो देखते हैं। प्रन्थ हैं जिनमें ऐसे माधुनिक सिद्धान्तोंसे मिलते जुलते सिद्धान्त लिखे हैं। प्रायः समो यतः स्यात्परिधेः शतांशः समस्त ज्योतिष ग्रंथों में यही सिद्धान्त हैं । पृथ्वी च पृथ्वी नितरांतनीयान् । मैंने इन दोको इस वास्ते पसन्द किया नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना है कि ये दोनों ग्रन्थ विशेष मान्य हैं। समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥१३॥ साधारण लोगोंमें इन सिद्धान्तोके सि०शि० भुवनकोशः विपरीत जो विश्वास फैला हुआ है वह जैसे परिधिका शतांश अर्थात् सूक्ष्म किसी ज्योतिष ग्रन्थके आधार पर नहीं भाग सम या सीधा मालूम होता है टेढ़ा है किन्तु पुराणादि ग्रन्थोंसे उस मिथ्या नहीं, वैसे ही इस बड़ी भारी भूमिकी विश्वासकी उत्पत्ति है। . तुलनासे मनुष्य अत्यन्त क्षुद्र होनेके कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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