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________________ ३५२ जैनहितैषी। [भाग १५ पृथ्वीको छायामें प्रवेश करनेके कारण साधारणकी समझमें आसानीसे आ चन्द्रमाका ग्रहण होता है, तब तो चन्द्रमा सकती हैं, ऊपर लिखी गई हैं। विशेष पृथ्वीके बहुत ही निकट होना चाहिए, जाननेके लिए मूल-ग्रन्थों का अध्ययन क्योंकि करना आवश्यक है। ऊपर दिये हुए प्रव. दीर्घतया शशिकक्षामतीत्य तरणोपर टीका टिप्पणी करनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं है। विक्ष पाठक स्वयं __दूरं बहिर्याता। भानोर्बिम्बपृथुत्वादपृथुपृथिव्याः आधुनिक भूगोलसे इन सिद्धान्तोंका मिलान कर लें। और यदि उन्हें विश्वास प्रभा हि सूच्या ॥५।। सि० शि०. हो जाय कि इनमें वैज्ञानिक दृष्टिसे अन्तर ग्रहणवासना नहीं है, तो मेरी विनीत प्रार्थना यह है कि सूर्यका बिम्ब बहुत बड़ा है और पृथ्वी भविष्यमें वेइन भूगोल संबन्धी सिद्धान्तोंअपेक्षाकृत बहुत छोटी । इस कारण को पाश्चात्य कहकर मातृभूमिका और पृथ्वीकी छाया सुईकी नोकके समान अपने इन प्राचीन ज्योतिषियोंका अनादर सूक्ष्मान होती है। (तिसपर भी) वह इतनी न किया करें। लम्बी है कि चन्द्रकक्षाको उल्लंघन कर बहुत सम्पादकीय नोट । दूरतक चली जाती है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है जो लोग उन बातोको, जिनका इस कि सूर्यको पृथ्वीको अपेक्षा बहुत बड़ा लेखमें भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंसे समर्थन माना है और चन्द्रमाको पृथ्वीसे बहुत किया गया है, 'पश्चिमी विचार', 'पा. ही छोटा बतलाया है। क्योंकि श्वात्य सिद्धान्त अथवा प्राधुनिक विज्ञानछादकः पृथुतरस्ततोविधो की अनोखी बाते' ही समझ रहे थे और रर्धखंडित तनोर्विषाणयोः। ऐसा समझकर ही प्रायः हँसी उड़ाया कुण्ठता च महती स्थितिय॑तो करते थे, उनके लिए यह लेख बहुत कुछ लक्ष्यते हरिण लक्षण आहे ।। ॥सि०शि० शिक्षाप्रद तथा कामकी चीज़ जान पड़ता है और इससे उनका तद्विषयक (समझ . ग्रहणवासना . सम्बन्धी) बहुत कुछ समाधान होना चन्द्रग्रहणमें चन्द्र के दोनो शृङ्ग मन्द संभव है। उन्हें इस लेखको खूब गौरसे और ग्रहण-काल दीर्घ होता है । इसका पढ़ना तथा जाँचना चाहिए और ऐसा कारण यह है कि चन्द्रमाका छादक उससे करनेपर लेखक महाशयकी यदि कोई बड़ा होता है। जब पृथ्वीकी सूच्यग्र छाया ही भूल मालूम हो तो उसे प्रेमके साथ प्रकट चन्द्रमासे बड़ी है, तब पृथ्वी स्वयं तो करना चाहिए। बहुत बड़ी अवश्य होगी। सूर्यसिद्धान्तमें चन्द्रमाका व्यास ४८० योजन बताया गया है "इन्दोः सहाशीत्या चतुःशतम्" । और अधिक विस्तार करनेकी आवश्यकता नहीं। खास खास बातें जो सर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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