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मात्मवल्लभ ग्रंथसिरीज़ नं. २
चारित्रपूजा
योजकश्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी
सन १९२५.
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कवाली।
करो टुक महर अय स्वामी, अजब तेरा दीदारा है। नही सानी तेरा कोई, लिया जग ढूंढ सारा है। अंचली तूंही जो है वही मै हूं, नहीं है भेद तुझ मुझमें। अगर है भेद तो दिलका, नहीं कुछ और धारा है । क०१॥ खुदीसे नाथ तूं न्यारा, खुदीने जग सताया है। खुदीके दूर करने को, मुझे तेरा सहारा ॥ करो०२॥ मिला मैं नाथ गैरोंसे, गमाया नूर मैं अपना । रिहाई पाने को इनसे, किया मैंने किनारा है ॥ करो० ३॥ हरि हर राम और अल्ला, बुद्ध अरिहंत या ब्रह्मा । अनलहक सच्चिदानंदी, विला तास्सुब निहारा है । क०४॥ मेरे प्रभु शांतिके दाता, जगतमें नाम है रोशन । करी जगमें प्रभु शांति, तेरा शांति नजारा है । क० ५॥ आतम लक्ष्मी गगन भेदी, अलख जलवा प्रभु तेरा। परमज्योति श्रुति वल्लभ, मिला नहीं हर्ष पारा है ।। क०६॥ उन्नीसौ एक कम अस्सी, एकादशी सूर्यके दिनमें । समाना माघ उजियारा, प्रभु गादी पधारा है ॥ करो० ७ ॥
॥ इति ।।
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श्रीआत्मवल्लभ-ग्रंथसिरीज़ नं०२
न्यायाम्भोनिधि श्रीमद्विजयानन्दरिलो
श्रीचारित्रपूजा
अथवा
श्रीब्रह्मचर्यव्रतपूजा।
प्रेरक, प्रकाशकझवेरी-भोगीलाल ताराचंद ।
योजकजैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर-पट्टधर आचार्य
श्रीमद्विजयवल्लभसरिजी महाराज ।
द्वितीयावृत्ति २०००.
१ श्रीवीरसंवत् २४५.१
मूल्य-
विक्रमसंवत् १९८१ इसवी सन् १९२५
श्रीमात्मसंवत् २९
सदुपयोग. २ विक्रमसंवत् १९८१
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ग़ज़ल. उठो धर्मवीरो सहर होगई है, कि अब रात सारी बसर होगई है। तुम्हें कुंभकरणी छमासी है छाई, तबाह कौम अपनी मगर होगई है ॥१॥ पड़ी कौमकी कौम बेहोश उफ़ क्या? किसी बदनज़रकी नज़र होगई है ॥२॥ निकालो दिलोंसे अगर बुज़दिलीको। तो समझो मुँहिम एक सर होगई है ॥ ३ ॥ छुपाया हज़ार अपनी कमजोरियोंको। मगर अब तो घर घर खबर होगई है ॥ ४ ॥ सँभलकर चलो राह हुब्बेवतनकी। ये लाइन भी अब पुरख़तर होगई है ॥५॥ जगानेसे मेरे अगर जैनी जागें। . . तो समझो गज़ल पुरअसर होगई है ॥ ६॥
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M...
१ प्रभात. २ बीतगई है. ३ कायरता. ४ कठिनाई. ५ देशप्रेम. ६ भयपूर्ण. ७ प्रभावोत्पादक.
4.
Printed by Ramchandra Yesu Shedge at the : "Nirnaya-sagar" Press, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay.
Published by Bhogilal Tarachand Javeri,
Doshiwada Pole, Ahmedabad . ......... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वन्दे वीरमानन्दम्।
वक्तव्य
शीलं प्राणभृतां कुलोदयकरं शीलं वपुर्भूषणं, शीलं शौचकर विपद्भयहरं दौर्गत्यदुःखापहम् । शीलं दुर्भगतादिकन्ददहनं चिन्तामणिः प्रार्थिते, व्याघ्रव्यालजलानलादिशमनं स्वर्गापवर्गप्रदम् ॥१॥ __ " तवेसु वा उत्तमबंभचेरं"
___ सूत्रकृतांग. "स इसी स मुणी स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं"
[प्र. व्या०] पूर्वोक्त आर्षवचनोंसे सिद्ध है ब्रह्मचर्य एक सर्वोत्तम गुण है । कुलका उदय करनेवाला, शरीरको भूषित करनेवाला, पवित्रता-शौच करनेवाला, विपदा और भयको हरनेवाला, दुर्गति-दुरवस्था और दुःखोंका नाश करनेवाला, दौर्भाग्य आदि अशुभ कर्म प्रकृतिकी जड़को दाह-भस्म करनेवाला, प्रार्थना करनेवालोंको चिन्तामणिके समान चिन्तित-मनोवांछित देनेवाला, व्याघ्र-सर्प-जल-अग्नि आदिके उपद्रवोंको शान्त करनेवाला, यावत् स्वर्ग और मोक्षको देनेवाला शील-ब्रह्मचर्य है।
"सर्व प्रकारके तपमें उत्तम तप ब्रह्मचर्य है," "वही खरा ऋषि, वही सच्चा मुनि, वही पक्का संयमी और वही यथार्थमें भिक्षु है, जो शुद्ध ब्रह्मचर्यको सेवन करता है"
श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र-दशमे अंगमें ब्रह्मचर्यकी महिमा इस प्रकार वर्णन की गई है।
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१ जैसे ग्रह नक्षत्र तारोंमें चंद्रमा प्रधान है, वैसेही व्रतोंमें प्रधान व्रत ब्रह्मचर्य है। । २ मणि, मोती, विद्रुम (मुंगा-परवाला) और रत्नोंके उत्पत्ति स्थानों में जैसे समुद्र प्रधान है, वैसेही व्रतोंमें प्रधान ब्रह्मचर्य व्रत है। ___३ जैसे मणियोंमें वैडूर्य मणि-रत्न प्रधान होता है, वैसे ही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान होता है।
४ जैसे भूषणोंमें मुकुट प्रधान है, वैसे व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान है। ५ जैसे वस्त्रोंमें क्षौमयुगल-कपासका वस्त्र प्रधान माना जाता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान माना जाता है। ___६ पुष्पोंमें (फूलोंमें ) जैसे पद्म-कमल प्रधान होता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान होता है।
७ सर्व जातिके चंदनोंमें जैसे गोशीर्ष-बावना चंदन प्रधान माना है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान माना है।
८ जैसे अनेक प्रकारकी औषधि-वनस्पतियोंका उत्पत्तिस्थान हिमवान् पर्वत है, वैसेही आगम प्रसिद्ध आमर्श औषधि आदि अनेक औषधियोंका उत्पत्ति स्थान ब्रह्मचर्य है। ___९ जैसे नदियों में शीतोदा नदी प्रधान मानी जाती है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान माना जाता है।
१० समुद्रोंमें जैसे सबसे बड़ा स्वयंभूरमण समुद्र मानागया है, वैसेही सर्व व्रतोंमें बड़ा प्रधान व्रत ब्रह्मचर्य मानागया है।
११ जैसे मांडलिक-गोलाकार-मानुषोत्तर, कुंडल और रुचकवर इन तीनोंही पर्वतोंमें (तेरहवें रुचकवरद्वीपांतर्गत) रुचकवर पर्वत प्रधान माना है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान माना है।
१२ जैसे कुंजर-हाथियोंमें ऐरावण इंद्रका हाथि प्रधान गिना जाता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान गिना जाता है ।
१३ जंगलमें रहनेवाले मृग-हरिण आदि पशुओंमें जैसे सिंह प्रधानबड़ा माना जाताहै, वैसेही व्रतोंमें बड़ा-प्रधान ब्रह्मचर्य माना जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१४ सुपर्णकुमार नामा देवताओंमें जैसे वेणुदेव नामा देवता मुख्यप्रधान कहा जाता है, वैसेही व्रतोंमें मुख्य-प्रधान ब्रह्मचर्य कहा जाता है।
१५ जैसे नागकुमार जातिके देवताओंमें धरणेंद्र प्रवर-प्रधान माना जाता है, वैसेही व्रतोंमें प्रवर-प्रधान ब्रह्मचर्य माना जाता है।
१६ देवलोकोंमें जैसे पांचमा ब्रह्म देवलोक गुणाधिक प्रधान माना जाता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य प्रधान माना जाता है ।
१७ भवनपतिओंके भवनोंमें और देवलोकके विमानोंमें सुधर्मसभा, उत्पादसभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा और व्यवसायसमा, इन पांचोंही सभाओंमें जैसे सुधर्मसभा प्रधान मानी जाती है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान माना जाता है।
१८ आयुमें जैसे लवसप्तम-अनुत्तर विमानवासी देवताओंकी आयु प्रधान मानी जाती है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान माना जाता है।
१९ ज्ञानदान, धर्मोपग्रहदान और अभयदान-तीनोंही प्रकारके उत्तम दानोंमें जैसे अभयदान प्रधान-सर्वोत्तम माना जाता है, वैसेही सर्व उत्तम व्रतोंमें ब्रह्मचर्य उत्तम-प्रधान माना जाता है।
२० रंगेहुए कपडोंमें जैसे किरमची रंगा हुआ लाल कंबल मुख्य माना जाता है (एक वकका लगा हुआ रंग फिर उतरता नहीं है-मजीठका रंगभी प्रायः ऐसाही माना जाता है,) वैसेही ब्रह्मचर्य व्रत, व्रतोंमें मुख्य माना जाता है । मतलब ब्रह्मचर्य रंग जिस आत्माको लगगया बस फिर वह आत्मा मुक्तिको प्राप्त हुए विना नहीं रहता है ।
२१ छप्रकारके संहननोंमें जैसे पहला वज्र-ऋषभ-नाराच नामा संहनन प्रधान कहा जाता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान कहा जाता है।
२२ छप्रकारके संस्थानोंमें जैसे पहला संस्थान समचतुरस्र नामा मुख्य माना जाता है, वैसेही व्रतोंमें मुख्य ब्रह्मचर्य माना जाता है।
१ पंचमदेवलोकः तत्क्षेत्रस्य महत्त्वात्-तदिन्द्रस्यातिशुभपरिणामत्वात् प्रवरः। प्र० व्या० टीका ।
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२३ सर्व प्रकारके ध्यानोंमें जैसे परमशुक्लध्यान (शुक्लध्यानका चौथा भेद ) प्रधान-अत्युत्तम माना गया है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य माना गया है।
२४ मतिज्ञान आदि पांचों ज्ञानोंमें जैसे केवलज्ञान सर्वोत्तम प्रधान होता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य होता है।
२५ छप्रकारकी लेश्याओंमें जैसे शुक्लध्यानके तीसरे भेदमें होनेवाली परमशक्कुलेश्या प्रधान गिनी गई है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रधान गिना गया है।
२६ जैसे साधु-मुनि-ऋषियोंमें श्री तीर्थंकर महाराज सर्वोत्तम परमपूज्य माने जाते हैं, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य माना जाता है ।
२७ क्षेत्रों में जैसे महाविदेह क्षेत्र प्रधान माना गया है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत माना गया है।
२८ पांच मेरुओंमें जैसे मंदरवर जंबूद्वीपका मेरु गिरिराज कहा जाता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्यव्रत व्रतराज कहा जाता है।
२९ मेरुपर्वतके भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पंडक नामा चारों वनोंमें जैसे नंदनवनको प्रधान माना है, वैसे ही व्रतोंमें ब्रह्मचर्यव्रतको प्रधान माना है। ____३० जैसे वृक्षोंमें सुदर्शन नामा जंबूवृक्ष कि, जिसके नामसे यह जंबूद्वीप कहा जाता है, प्रधान मानागया है, वैसेही व्रतोंमें प्रधान व्रत ब्रह्मचर्य मानागया है।
३. जैसे तुरगपति, गजपति, रथपति और नरपति राजाके नामसे विश्रुत-प्रसिद्ध होता है, वैसेही व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत राजा तरीके प्रसिद्ध होता है।
३२ जैसे महारथपर सवार हुआ हुआ महारथी, पर-शत्रु सैन्यके पराभव करनेमें प्रसिद्ध होता है, वैसेही ब्रह्मचर्यरूप रथपर सवार हुआ हुआ महारथी-ब्रह्मचारी कर्मरिपुके सैन्यका पराभव करने में प्रसिद्ध होताहै। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वाचक ! पूर्वोक्त उपमाओंके पढ़नेसे ब्रह्मचर्यकी उत्तमताकी छाप ध्यानमें आगई होगी?
स्वर्गवासी प्रातःस्मरणीय स्वनामधन्य पूज्यपाद श्रीमद्विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) महाराजने निजरचित विंशति स्थानक पूजामें ब्रह्मचर्य पदकी पूजाका वर्णन करतेहुए
____ "दशमे अंगे बत्तीस उपमा, ब्रह्मचर्यको दखरी । श्याम." इस प्रकार वर्णन किया है, वह बत्तीस उपमा यही हैं जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं।
आपने निज विरचित जैनतत्त्वादर्श नामक ग्रंथमें ब्रह्मचर्यका वर्णन करते हुए जो कुछ वर्णन किया है मननीय एवं आदरणीय होनेसे उसको यहाँ उद्धृत करना योग्य समझा जाता है।
"चौथा मैथुन सेवनेका त्याग करना, तिसका नाम मैथुनत्यागवत कहते हैं । तिस मैथुनके दो भेद हैं, एक द्रव्यमैथुनत्याग, दूसरा भावमैथुनत्याग । उसमें द्रव्यमैथुन तो परस्त्री तथा परपुरुषके साथ संगम करना, सो पुरुष स्त्रीका त्याग करे और स्त्री पुरुषका त्याग करे । रति क्रीडा कामसेवनका त्याग करे तिसको द्रव्यब्रह्मचारी तथा व्यवहारब्रह्मचारी कहियें। __ दूसरा भावमैथुन है सो एक चेतन पुरुषके विषयविलास परपरिणतिरूप तथा तृष्णाममतारूप इत्यादि कुवासना सो निश्चय परस्त्रीको मिलना, तिसके साथ लाल पाल काम विलास करना सो भावमैथुन जानना । तिसको जिनवाणीके उपदेशसे तथा गुरुकी हितशिक्षासे ज्ञान हुआ तब जातिहीन जानकरके अनागतकालमें महादुःखदायी जानकर पूर्वकाल में इसकी संगतसे अनंत जन्ममरणका दुःख पाया, इसवास्ते इस विजातीय स्त्रीको तजना ठीक है । और मेरी जो स्वजाति स्त्री परम भक्त उत्तम सुकुलिनी समतारूप सुंदरी तिसका संग करना ठीक है। और विभावपरिणतिरूप परस्त्रीने मेरी सर्व विभूति हरलीनी है तो अब सद्गुरुकी सहाय सेती ए दुष्ट परिणामरूप जो स्त्री संग लगी हुई थी तिसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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में आजावे, यागे और कमेकी
कहिये । इहायागी तो
थोडा थोडा निग्रह करूं, त्यागनेका भाव आदरं, जिससे शुद्धस्वभाव घटरूप घरमें आजावे, तथा स्वरूप तेजकी वृद्धि होवे, ऐसी समझ पा करके परपरिणतिमें मग्नता त्यागे और कर्मके उदयमें व्यापक न होवे, शुद्ध चेतनाका संगी होवे सो भावमैथुनका त्यागी कहियें । इहां द्रव्यमैथुनके त्यागी तो षदर्शनमें मिल सकते हैं, परंतु भावमैथुनका त्यागी तो श्रीजिनवाणी सुननेसे भेदज्ञान जब घटमें प्रगट होता है तब भवपरिणतिसे सहज उदासीनरूप भावमैथुनका त्यागी जैनमतमेंही होता है।" [जैनतत्त्वादर्श ॥ ३२९ ॥]
प्रायः यत्र तत्र “ब्रह्म व्रतेषु व्रतम्" इस प्रकार ब्रह्मचर्यकी स्तुति क्या जैन और क्या जैनेतर सर्व दर्शनोंमें मुक्तकंठसे हो रही है, तथापि ब्रह्मचर्यको सादर मान देनेवाले या उसको स्वीकार करनेवाले और यथावत् पालनेवाले आजकालके सुधरे हुए कहाते जमाने में विरलेही नजर आते हैं। जिसका कारण यदि तटस्थतया शुद्ध मनसे कोई विचारेगा तो, उसको इस प्रस्तुत ब्रह्मचर्यव्रत पूजाकी दशमी पूजाके-"जो चाहें शुभ भावसे, निज आतम कल्यान । तीन सुधारें प्रेमसे, खान पान पहारन ॥" इस अंतिम दोहरेसे मालूम हो जायगा ।
भाजकाल इस सुधरेहुए कहाते जमाने में खान, पान और पहरानका कैसा हाल होगया है कहनेकी जरूरत नहीं है ! विना जरूरतके खान पान पहरान स्वाद और शौकके लिये किसकदर होरहा है प्रायः सबके अनुभव गोचर होरहा है। फजूल खर्ची इतनी बढ़ रही है कि, हरएक समाजमें इसकी पुकार सुनाई देती है ! इस परभी तुर्रा यह कि, छोड़नेके वक्त सबके सब फिर वही लकीरके फकीरवाला हिसाब लिये बैठते हैं ! धनवानोंकी जाने बला कि हमारे गरीबभाईयोंको कितना सहन करना पड़ता है ? यदि धनाढ्योंमेंसे जिव्हाका स्वाद लोलुपता और फेशनकी फिशयारी हटजावे तो समाजके उद्धारमें एक घडीकी भी देरी न लगे! अरे! जहां अपने स्वाद और शौकके पीछे जगजाहिर भ्रष्ट चीजोंके उपयोगमें धर्मतकका भी ख्याल नहीं कियाजाता है वहां गरीब भाईओंका ख्याल कहांसे आवे? मतलब मादक और मोहक वस्तुओंका प्रायः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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साम्राज्यसा होरहा है और इसके प्रभावसे ब्रह्मचर्यकी क्या दशा होरही है स्वयं विचार कर लेना प्रत्येक धर्मात्माका कर्त्तव्य है। अधिकके लिये मरहूम शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसुरिविरचित "ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन" और प्रायः सर्वमान्य महात्मा गांधीजी रचित "आरोग्यदिग्दर्शन" देखकर तटस्थतया पक्षपात रहित होकर जितना मनन और निदिध्यासन विचार और आचारमें लाना योग्य मालूम होवे, गुणग्राही सजन पुरुषोंको अवश्य ही लाना योग्य है । 'शुभे यथाशक्ति यतनीयम्' को याद कर शुभ काममें यदि सर्वथा यत्नशाली न बनाजावे तो जितना हो शके उतना तो बनना ही चाहिये।
पूर्वाचार्योंकी यही मनशा पाई जाती है कि, जिसतरह होसके लोकोंकी रुचि धर्ममें लगाई जावे । बस इसी पवित्र आशयसे उन्होंने तत्तद्देशीय तत्तत्कालीन लोकोंकी समझमें आवें और वह स्वयं भी पढसकें वैसे उस उस देशकीही भाषामें कितनेही रास, छंद, स्तोत्र, स्वाध्यायादि ग्रंथ निर्माण किये हैं। इतिहासकी तर्फ दृष्टि दौडानेसे मालूम होता है कि, जैनकी दो प्रसिद्ध शाखा, एक श्वेतांबर और एक दिगंबर । दोनों शाखाओंमें संस्कृत प्राकृतके इलावा भाषाके सैंकडों बलकि हजारों ग्रंथ नजर आयेंगे ! जिनमेंभी श्वेतांबरोंके प्रायः गुजराती भाषाके ग्रंथ अधिक मिलेंगे और दिगंबरोंके प्रायः ढुंढारी-जयपुरके इलाकेकी भाषामें और कनडी भाषामें बनेहुए ग्रंथ अधिक नजर आयेंगे । इससे यहभी सिद्ध होसकता है कि, श्वेतांबरोंकी गुजरात और गुजरातके साथ मिलता जुलता प्रायः मारवाड़ देश-इलाका सीरो ही तथा इलाका जोधपुर-इन दोनों स्थानोंमें प्रायः प्रथमसेही अधिकता रही है, जो आजतक दिखलाई दे रही है । वैसेही ढुंढारदेश इलाका जयपुर और महाराष्ट्र में प्रायः दिगंबरोंकी अधिकता प्रथमसेही रही मालूम देती है जो आजतक मौजूद है।
जिसप्रकार पूर्वाचार्योंने लोकोंके उपकारके लिये प्रचलित लोक भाषा में ग्रंथरचना की, इसी प्रकार उस उस समयकी प्रचलित संगीतविद्यामें पूजाओंकी रचना जुदे जुदे रूपमें बनाई । जिससे पूजा प्रेमी प्रभु भकोंको प्रभुके सन्मुख पूजा पढते पढ़ाते हुए उन्ही पूजाद्वारा पदपदार्थोंका बोध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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होता जाता है । दृष्टांत तरीके-विंशति स्थानक पूजाद्वारा तीर्थकरनामकर्म-पुण्यप्रकृतिके बंधनेके वीस शुभ निमित्तोंका बोध होता है।
नवपदजीकी पूजासे-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठि जो नमस्कारमंत्रमें नमस्करणीय हैं इनका बोध कराया गया है। साथमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप धर्म-कर्त्तव्य समझाया गया है कि, जिन कर्तव्योंके करनेसे यह जीव पूर्वोक्त पांचोंही परमेष्ठिपदका अधिकारी होता है । अर्थात् नवपदोंमें प्रथमके पांच पद धर्मी हैं और अगले चार पद धर्म हैं। धर्म होवे तभी जीव धर्मी हो सकता है। धर्मी पांच पदोंमें प्रथमके अरिहंत और सिद्ध दो पद देव-ईश्वर-परमेश्वरमें गिने जाते हैं । अगले आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन पद गुरु तरीके माने जाते हैं। मतलब नवपदमें दो पद देव, तीन गुरु और चार धर्म; एतावता देव, गुरु और धर्म इन तीन तत्त्वोंका बोध कियागया है ।
चउसठ प्रकारी पूजाद्वारा अष्ट कर्मका स्वरूप, उनके मूल और उत्तर भेदोंका स्वरूप, किस प्रकार किन किन निमित्तोंसे जीव कौन कौनसा कर्म बांधता है, किस किस कर्मकी कितनी कितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है, उदय-उदीरणा-सत्ता-बंध-ध्रुव-अध्रुव-संक्रमण-अपवर्तन, यावत् निर्जरा
और सर्व कर्मके क्षय होनेपर आरमसत्ताकी प्राप्ति, कर्मरहित होकर जीवकी मुक्तिका होना, संसारबंधनसे सर्वथा निर्मुक्त होना इत्यादि द्रव्यानुयोगरूप तत्त्वज्ञानका संक्षेपसे वीरप्रभुकी पूजाद्वारा बोध कराकर पूज्यकी पूजासे पूजकको कर्मरहित होकर स्वयं पूज्य बननेका उत्साह दरसाया है।
बारां व्रतकी पूजामें प्रभुकी पूजा-स्तुतिद्वारा गृहस्थधर्म-गृहस्थको . स्वीकार करने योग्य बारां प्रकारके नियमका बोध कराया है, और अंतमें धीरे धीरे यह जीव गृहस्थधर्मद्वारा भी अपनी उन्नति करताहुआ मुनिधर्मकी तर्फ झुककर, प्रवृत्तिमार्गसे हटकर, निवृत्तिमार्गमें आकर, परमपद-मोक्षका अधिकारी होजाता है। ऐसा बोध दिया गया है।
पिस्तालीस ४५ आगमकी पूजाद्वारा ११ अंग १२ उपांग ६ छेद ४ मूल १० पयन्ने और नंदिसूत्र तथा अनुयोगद्वार सूत्रमें जो जो पदार्थ ज्ञानी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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महाराजने वर्णन किये हैं, उनका संक्षेपसे दिग्दर्शन कराकर ज्ञानिमहाराज-प्रभु-वीतरागदेवकी पूजा करतेहुए ज्ञानकी आराधना होनेसे जीव आराधक बनकर ज्ञानावरणीय कर्मको क्षयकर यावत् महाज्ञानी-केवलज्ञानी बन जाता है इत्यादि आशय उपलब्ध होता है।
मतलब इसी प्रकार प्रत्येक पूजामें रहाहुआ गूढ आशय-रहस्य समझलेना चाहिये । कोईभी पूजा आशय या रहस्य-के विनाकी नहीं है।
पूर्वाचार्योंने-पूर्व पुरुषोंने-संस्कृत प्राकृत ग्रंथोंको वांचनेकी शक्तिसे रहित ऐसे श्रद्धालु भव्यजीवोंको ज्ञानवान्-जानकार और कर्तव्यपरायण सदाचारी बनानेके उद्देशसेही खासकर भाषाग्रंथोंमें उसका उद्धार करके उपकार किया है।
परंतु यह सब किनके लिये ? जो उत्साहसे इकट्ठे होकर प्रेमपूर्वक उपयोगसहित कार्य करें उनके लिये । बाकी आजकालके प्रायः निरुत्साही गले पडा ढोल बजानेवालोंके लिये नहीं ! प्रसंग वश कहना पड़ता है कि, कितनेक ठिकाने पूजा पढ़ाई जाती है वहां स्नात्री तो पूजारी (गोठी)
और चंडीपाठकी तरह पाठकरके वेठ (वगार) उतारनेवाले भोजकके सिवाय भगवान् ही भगवान् देखने में आते हैं ! __ हां कदापि कहीं सतरां भेदी पूजाके साथ अठारमा भेद-जीमन वारदूधपाक पूरी या लड्डु कचौरी का जोर होता है तो घने बाई भाई नजर आते हैं, परंतु वोभी इधर उधर फिरते रहते हैं या रसोईके काममें तलालीन रहते हैं ! इस प्रकारके वर्तनसे कैसा और कितना लाभ हो सकता है स्वयंही विचार करलेना योग्य है। ___ तात्पर्य यह है कि, जब कभी पुण्योदयसे प्रभुपूजा पढ़ाई जावे तब सब बाई भाई एकत्रित होकर शांतिपूर्वक प्रेम और आनंद उत्साहसे जिनको पढ़ना और गाना आता होवे मधुर-मीठी आवाजसे पूजा गावें और बाकीके सब चुपचाप सुने । तथा भावार्थमें सबके सब अपना अपना उपयोग लगावें । इसतरह करनेसे घरबार काम धंधा छोड़कर प्रभुमंदिरमें आनेका लाभ प्राप्त होता है और पूर्वपुरुषोंका कियाहुआ उपकारभी सफल होता है।
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प्रस्तुत पूजाभी इसी आशयसे राजनगर-अहमदाबाद निवासी झवेरी भोगीलाल ताराचंद (जो मंगल भाईके उपनामसे प्रसिद्ध हैं-और डोशी. वाडाकी पोलमें रहते हैं.) की प्रेरणासे बनाई गई है।
संवत् १९७७ चैत्र सुदिमें श्रीकेसरियानाथजीकी यात्रा करनेको झवेरी भोगीलालभाई आयेथे, उसवक्त मैं भी शिवगंजनिवासी संघवी गोमराज फतेचंद पोरवाडके संघमें श्रीकेसरियानाथजीकी यात्रार्थ वहां गयाहुआ था । संघवीजीकी प्रेरणासे श्रीऋषभदेव स्वामीके पंचकल्याणककी पूजा वहां तयार की थी। जिसके पढ़ानेका श्रीकेसरियानाथजीके दरबारमें पहलपहला लाभ झवेरी भोगीलालभाईने ही लिया था । उस समय इन्होंने प्रार्थना की थी कि, एक पूजा ब्रह्मचर्यकी बनाई जावे तो आशा की जाती है, घने जीवोंको पूजाके निमित्तसे ब्रह्मचर्यका लाभ होगा। विषय गहन और विचारणीय होनेसे अपनी शक्तिके बाहरका कार्य समझकर इसके जवाबमें मैनें मौनकाही सरणा लिया। कितनाही समय वीतादिया-परंतु-"जाकी जामें लगन है वाके मन वो देव" की कहावतके अनुसार सेठ भोगीलालभाईकी लगन इसीमें लगी रही । जब कभी किसी प्रसंगवश पत्रव्यवहार होता तो इस बातको अवश्य याद दिलाते थे आखिर मुझे यह काम करनाही पड़ा । मुझे हताशको उत्साही बनाकर ब्रह्मचर्य-चारित्र जैसे उत्तम गुणका गान करानेमें सेठकी प्रेरणा ही निमित्त बनी है, अत एव कलशमें सेठ भोगीलालभाईका परिचय बतौर यादगारके दियागया है।
इस पूजाके मंगलाचरणमें जगवल्लभ पारस प्रभु रखनेका मतलब यह है कि, जिस समय भोगीलालभाईकी अधिक प्रेरणा हुई और अहमदाबादनिवासी वकील केशवलाल प्रेमचंद मोदी दर्शनार्थ आये उनके साथभी कहला भेजा उस समय मैं मालेरकोटला (पंजाब) में था। ___ मालेरकोटलामें दो श्रीजैनमंदिर हैं। एक मोतीबाजारके रास्तेमें और दूसरा शहरके मध्यभागमें । दोनों ही शिखरबंध हैं, दोनोंमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमा मूलनायकतरीके हैं । एकमें "शामला पार्श्वनाथ" और दूसरेमें "जगवल्लभ पार्श्वनाथ ।"
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जिसवक्त वकील केशवलालभाईने सेठ मंगलभाईका संदेशा सुनाया और प्रार्थना करी उसवक्त पासमें बैठेहुए पंन्यास ललित वि० ने भी जोर दिया कि, बहुत समय हो गया अब तो इनकी प्रार्थनाकी सुनाई होजानी चाहिये, और सुनाईभी यहांहीं होवे कि जिससे केशवलालभाईका वकील होनाभी सार्थक होजावे! क्योंकि केशवलालभाई भोगीलालभाईके परम मित्रभी हैं।
ज्ञानीने अपने ज्ञानमें ऐसा ही देखाथा ! समय आमिला । द्रव्यक्षेत्रकाल-भाव-चारोंही एकत्रित होगये । पूजा बननी शुरू हो गई । मालेरकोटलामें श्रीजगवल्लभ पार्श्वनाथ स्वामीके निकटवर्ति स्थानमें प्रारंभ होनेसे मंगलाचरणमें इष्टदेवतरीके यह नाम आना योग्यही है।
प्रथम पूजा वकील साहबके सामनेही बनगई, उनको सुना दी गई और उन्हीकी मारफत भोगीलालभाईको वधाई भी दी गई कि, आपकी चीज बननी शुरू हो गई है। परंतु भवितव्यता " श्रेयांसि बहुविघ्नानि" समाप्तिके लिये क्षेत्र और काल ज्ञानीके ज्ञानमें अनुकूल नहीं था । बस प्रथम पूजा बनीही पडी रही ! किंतु साथमें पंन्यास ललित वि० की प्रेरणा जैसी की वैसी ही जारी रही ! जिसका कारण कार्य अवश्यही होना था। गुरुकृपासे यथाशक्ति यह उद्यम, यहां शहर होशियारपुर (पंजाब) में पूर्ण हो गया है । और इसीलिये समाप्तिमें 'श्रीवासुपूज्य' स्वामीका नाम अंतिम मंगलरूप रखा गया है । क्योंकि इस शहरमें दो श्रीजैनमंदिर हैं, एक पुराना और दूसरा नया । नयामंदिर स्वर्गवासी लाला गुजरमल्ल ओसवाल नाहर गोत्रीयने बनवाया है। जिसके शिखरका गुंबज साराही सोनेसे मढ़ा हुआ है । जिसकी प्रतिष्ठा स्वर्गवासी गुरुमहाराज १०८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि ( आत्मारामजी) महाराजके हाथसेही विक्रम संवत् १९४९ माघसुदि पंचमीको हुई है।
पुराने श्रीजिनमंदिरमें मूलनायक श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ हैं और नूतन मंदिरमें श्रीवासुपूज्य खामी हैं । मैनें जिस उपाश्रयमें बैठकर यह पूजा समाप्त की है वह मकान, लाला गुजर मल्लजीका ही है और श्रीमंदिरजीके पासमें है। यहांतककी उपाश्रयमें खड़े खड़े सन्मुख प्रभुके दर्शन हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सकते हैं । इसलिये उनकी नजरके सामने पूजाकी समाप्ति होनेके कारण श्रीवासुपूज्य स्वामीका नाम अंत्यमंगलरूप लिया गया है। __ मुझे इस पूजाकी समाप्तिमें अधिक आनंद इसलिये हुआ है कि-चारित्र-ब्रह्मचर्यकी तो पूजा ब्रह्मचारी श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी सेवामें इस पूजाका प्रारंभ, ब्रह्मचारी ही श्रीवासुपूज्यस्वामीके सन्मुख इस पूजाकी समाप्ति, और वहभी बालब्रह्मचारी श्रीनेमिनाथ स्वामी के जन्म कल्याणकके दिनमें ही । मानो बालब्रह्मचारी श्रीनेमिनाथस्वामीका जन्मदिन ही इस पूजाकाभी जन्मदिन ! सत्य है ! ब्रह्मचर्य होवे तभी तो ब्रह्मचारी होता है । ब्रह्मचर्य गुणसहित ही तो गुणी ब्रह्मचारी प्रभु श्रीनेमिनाथ स्वामी हुए हैं। इसलिये दोनों गुण और गुणीका जन्मदिनभी एक ही होना चाहिये !
इस कृतिमें श्रीजिनहर्षकविकी और श्रीउदयरत्नकविकी कृतिकी कुछ झलक अवश्यमेव आवेगी। क्योंकि इन दोनों महात्माओंकी रची 'नव वाडकी सज्झाय' सन्मुख रखकरके ही यह कृति तयार की गई है, जिसमें भी खास करके श्रीजिनहर्पकविकी कविताका आधार अधिक लिया गया है । और वह भी यहांतक कि, पांचमी पूजाकी दूसरी ढाल तो कहीं कहीं अक्षर बदल. के और चाल बदलके जैसीकी वैसी ही ली गई है। इसलिये इस बाबत पूर्वोक्त दोनोंही महात्माओंका सहर्ष धन्यवाद प्रगट करना उचित ही समझा जाता है। ___ अवश्य करने योग्य कितनीक बातोंका खुलासा परिशिष्ट नंबर (१) में किया गया है । तथा प्रस्तुत पूजामें कितनेक दृष्टांत सूचित कियेगये हैं, उनका खुलासा कुछ संक्षेपरूपमें कथानकोंद्वारा, पंन्यास-ललित वि० से लिखवा कर, परिशिष्ट नंबर (२) में दिया गया है । वाचकवर्ग दोनों परिशिष्टोंको पढ़कर अवश्य लाभ उठावें! __ यद्यपि इस पूजामें ब्रह्मचर्यकी मुख्यता है, ब्रह्मचर्यकी नव वाड़ोंहीका प्रकारांतरसे वर्णन है, और इसीलिये इसका नाम "ब्रह्मचर्यव्रतपूजा" रखा है, तथापि प्रारंभमें चारित्रका कुछ वर्णन दिया गया है। ब्रह्मचर्य चारित्रसे भिन्न नहीं है। ब्रह्मचर्य विना चारित्र नहीं और चारित्रके विना ब्रह्मचर्य नहीं इस अभिप्रायसे, तथा "सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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मोक्षमार्गः" इस मुजिब दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंका मोक्षप्राप्तिमें एक जैसा हक्क है। तीनोंमेंसे एक भी न होवे तो मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती है। चारित्रविनाके दर्शन और ज्ञान किसी प्रकार अविरति सम्यग् दृष्टि चतुर्थगुणस्थानमें मान लिये जावें, परंतु दर्शन और ज्ञानके विना चारित्र तो होही नहीं सकता है । जब क्षायिक दर्शन क्षायिक ज्ञान और क्षायिक चारित्र तीनों होवें तो फिर मोक्षमें देरी नहीं; उसमें भी सर्व संवररूप चारित्रके होनेपर तत्काल-अनंतरहि जीव मोक्षको प्राप्त होता है। इसीवास्ते चारित्रकी मुख्यताको स्वीकार और "सम्यग्दर्शनपूजा" "सम्यग्ज्ञानपूजा" इसप्रकार दो पूजा प्रथम बनचुकी होनेसे रत्नत्रयी-“(दर्शन-ज्ञान-चारित्र)" पूर्ण करनेकी इच्छाको ध्यानमें रखकर इस पूजाका नाम "चारित्रपूजा" भी रखागया है।
अंतमें सजनोंसे सविनय मेरी यही प्रार्थना है कि, न तो मैं गीतार्थ ही हूं और ना ही कवि हूं! छद्मस्थसे स्खलनाका होना अनिवार्य है। अतः कृपया मेरे दोष मेरेही लिये छोड़कर, यदि कोई भी गुण आपको नजर आवे तो लेलेवें और आप गुणग्राही-गुणी ही बने रहें इति, सुज्ञेषु किंबहुना।
प्रार्थीश्रीजैनसंघका दास-मुनि-व. वि.। होशियारपुर (पंजाब)
१९८० श्रावण सुदि पूर्णिमा.
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ब्रह्मचर्यप्रभाव. पंचमहवयसुवयमूलं, समणमणाइलसाहुसुचिन्नं । वेरविरामणपजवसाणं, सबसमुद्दमहोदधितित्थं ॥१॥ तित्थकरेहि सुदेसियमग्गं, नरयतिरिच्छविवजियमग्गं । सबपवित्तिसुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाण-अवंगुयदारं ॥२॥ देवनरिंदनमंसियपूयं, सबजगुत्तममंगलमग्गं। दुद्धरिसं गुणनायकमेकं, मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं ॥३॥
(श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र ) ब्राह्मीसुन्दर्या-राजीमतीचन्दनागणधराद्याः। अपि देवमनुजमहिता विख्याताः शीलसत्त्वाभ्याम्॥१॥
(उत्तरा० बृहद्त्ति ३६)
ॐ मिलनेका पता
रूपाजी लाधाजीकी कंपनी, ठि. नवी हनुमान गल्ली, मुंबई पोष्ट नं० २.
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KOSHO
5064
NAGAR
व
50000
॥ अर्हम् ॥ वन्दे वीरमानन्दम् । श्रीचारित्रपूजा
अथवा श्रीब्रह्मचर्यव्रतपूजा ॥ -
-
दोहरा। जगवल्लभ पारस प्रभु, प्रणमी सदगुरु पाय । नमन करी पूजा रचूं, सिमरी सारद माय ॥ १॥ पूजा श्री ब्रह्मचर्यकी, ब्रह्मस्वरूप निदान । प्रेरक मंगल दास है, पूजा मंगल खान ॥२॥ मूल गुणोंमें है बडो, गुण ब्रह्मचर्य प्रधान । शुभ भावे पालन करे, होवे कोटि कल्यान ॥३॥ सम्यग दर्शन ज्ञान है, सम्यग चरण उदार। तीनों क्षायिक भावसे, करते भवजल पार ॥४॥
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पूजा दर्शन ज्ञानकी, कीनी विन विस्तार । तिम संक्षेपे कीजिये, पूजा चरण विचार ॥५॥ गुणिसे गुण नहि भिन्न है, तिन पूजा गुणवान । गुणि पूजा गुण देत है, पूर्ण गुणी भगवान ॥ ६ ॥ पूजा पूजा जानिये, अष्ट द्रव्य विस्तार । यथाशक्ति पूजा करे, भावे भवि नरनार ॥ ७॥
सारंग-कहरवा। (हमे दम देके सोतन घर जाना । यह चाल) चारित्र आतम शिव सुख दाना । अं० । जिन शासनमें सार चरण है। पांच भेद तस मूल वखाना ॥ चारित्र० ॥१॥ सामायिक छेदोपस्थापनी । परिहार विशुद्धि जिन फरमाना ॥ चारित्र० ॥२॥ चौथा सूक्ष्म संपराय कहिये । यथाख्यात जस फल निरवाना ॥ चारित्र० ॥३॥ मुख्य भेद सामायिक सबमें । विन सामायिक चरण न माना ॥ चारित्र०॥४॥ समकित श्रुत अरु देश विरति है। सर्व विरति सामायिक गाना ॥ चारित्र०॥५॥ समकित दर्शन ज्ञान कहा श्रुत । देश विरत श्रावक व्रत माना ॥ चारित्र० ॥६॥ आतम लक्ष्मी हर्ष अनुपम । वल्लभ सर्व विरति फल पाना ॥ चारित्र० ॥७॥ १ चरण-चारित्र ।
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दोहरा। सर्व विरति मुनि धर्म है, भाषे त्रिभुवन भूप । त्रिविध त्रिविधसे जानिये, पंच महाव्रत रूप ॥१॥ प्रथम अहिंसा दूसरा, झूठ बोलना त्याग । त्याग अदत्तादानका, मैथुन चौथे त्याग ॥२॥ त्याग परिग्रह पंचमे, ये हैं सब गुण मूल । चरण करण अनुयोगसे, जिनवर वचन अमूल ॥३॥ लोकसार जिन धर्म है, धर्म सार शुभ नाण । ज्ञानसार संयम कहा, संयमसे निर्वाण ॥ ४॥ संयम सतरां भेदसे, दश यति धर्म पुनीत । सवमें आदर शीलको, श्रीजिन शासन रीत ॥ ५ ॥
(गिरिवर दर्शन विरला पावे-यह चाल) चारित्र उत्तम जिन फरमावे ॥ अंचली। ज्ञानवान पिण चरण विहीना। पंगू सम नहीं इष्टको पावे ॥ चारित्र० ॥१॥ चय सो अष्ट करमको संचय । खाली करना रिक्त कहावे ॥ चारित्र० ॥२॥ चारित्र नाम निरुक्के भाष्यो। चरणानंतर मोक्ष सधावे ॥ चारित्र० ॥३॥
१ पवित्र । २ जिनको यह चालं मालूम न होवे वह पीलूमें गासकते हैं। ३ पंगू लूला-जो बिलकुल चल फिर न सके। “हयं नाणं कियाहीणं हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दडो धावमाणो. उ. अंधलो।" [आवश्यक]
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पुदगलरूप रमणता त्यागी। रमण स्वरूपे चरण बनावे ॥ चारित्र०॥४॥ आतम लक्ष्मी चरण प्रतापे । हर्ष धरी वल्लभ गुण गावे ॥ चारित्र० ॥५॥
काव्य। शीलं प्राणभृतां कुलोदयकरं शीलं वपुर्भूषणं, शीलं शौचकरं विपद्भयहरं दौर्गत्यदुःखापहम् । शीलं दुर्भगतादिकन्ददहनं चिन्तामणिः प्रार्थिते, व्याघ्रव्यालजलानलादिशमनं स्वर्गापवर्गप्रदम् ॥ १॥
मंत्र। ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय ___ जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमते चारित्रिणे ब्रह्मचर्यगुणयुताय देवाधिदेवाय
श्रीजिनेन्द्राय जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥
पूजा दूसरी।
दोहरा। पांच महाव्रत साथमें, 'निशि भोजन परिहार । व्रत षट मन वच कायसे, पाले श्री अनगारं ॥१॥ ना मिल वरतन पापका, सदाचार सहयोग । सो चारित्र सदा जयो, आतम निजगुण भोग ॥२॥ , निशिभोजन-रात्रिभोजन। २ अनगार-साधु । ३ नामिलवरतनभसहयोग।
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आतम रमणी -मराठी यह चार
चरना चारित्र मानिये, विध विध कर्म समाज । इहभव परभवके किये, संचय अपचय काज ॥ ३ ॥ कर्म अनिंदित आदरें, निंदित किरिया त्याग । पाप योगका त्यागना, चरण कहे महाभाग ॥४॥ पाप प्रवृत्ति त्यागिये, धर्म प्रवृत्ति लाग । निजगुण आतम रमणता, पुदगलरूप विराग ॥ ५॥
लावणी-मराठी। (ऋषभ जिनंद विमल गिरि मंडन-यह चाल) ब्रह्मचर्य आतमगुण उज्वल, निर्मल ध्यान धुरा कहिये । जस तेज प्रतापें, परमपद परमातम शिव सुख लहिये ॥१॥ होये सिद्ध अनंत अनंते, होवेंगे चित्त दृढ गहिये। ब्रह्मचारी पूरण, सभी नहीं घरबारी कोइ शिव लइये ॥२॥
और व्रतोंमें स्यादवाद भी, जिनवर वचन अनुसरिये । नहीं ब्रह्मचर्यमें, यही जिन शासन रीति मन धरिये ॥३॥ अन्य व्रतोंमें जो व्रत खंडित, होवे सो खंडित सहिये। इक ब्रह्मचर्यके, हुये खंडित पांचों खंडित कहिये ॥ ४ ॥ अब्रह्म सेवनसे मोहबंधन, दर्शन चारित्र दो लइये। संयंती व्रत भंगे, जीव दुर्लभ बोधि जिन वच कहिये ॥५॥ आतम लक्ष्मी साधन पूरण, ब्रह्मचर्य व्रत दृढ गहिये । मन वच कायासे, हर्ष वल्लभ ब्रह्मचारी जिन महिये ॥६॥
१ समाज-समूह । २ संचय-जमा । ३ अपचय काज निकालने वास्ते । ४ "नवि किंचि अणुचायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तुं मेहुणमेगं, न जं विणा रागदोसेहिं ।" [प्रश्नव्या वृत्तौ] तथा आर्हतानां नैकान्ततः किञ्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय [भाचा. वृ.] ५ मैथुन । ६ साध्वी । ७ पूजिये।
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दोहरा। शील विनय संयम खिमा, तप गुप्ती निर्वान । आराधक सबका कहा, ब्रह्मचारी भगवान ॥१॥ सुरतरु सम ब्रह्म मानिये, जिनशासन वन सार । वनपालक जिन देव हैं, करुणारस भंडार ॥२॥ समकित दृढतर मूल है, व्रत शाखा विस्तार । सुर सुख कुसुम वखानिये, फल शिव सुख निरधार ॥३॥ वन पालक जिनदेवने, तरुवर रक्षा काज । दृढतर नव वाडें करी, जय जय श्री जिनराज ॥४॥ उपकारी जगजीवके, श्री जिन दीनदयाल । शुभ भावें भवि पूजिये, होवे मंगल माल ॥५॥
आसाउरी-कहरवा । (करूं मैं क्या तुझ बिन बाग बहार-यह चाल) भविकजन प्रभु पूजन सुखकार भविक० ॥ अं०॥ द्रव्य भावसे प्रभु पूजन है, भाखे जिन गणधार । अष्ट द्रव्यसे द्रव्य भाव प्रभु, आज्ञा दिलमें धार ॥भ०प्र०॥१॥ स्त्री पशु पंडक सेवित थानक, सेवे नहीं अनगार। सोलवें उत्तराध्ययन सूत्रमें, ब्रह्मसमाधि विचार ॥भ०२॥ जिम कुर्कट मूषक अरु मोरा, मार्जारी संगकार । सहे दुःख तिम व्रतधारी संग, नारी होत खुवार ॥भ० ३॥
१ सुरतरु-कल्पवृक्ष । २ कुसुम-फूल ।३ पंडक-नपुंसक-हीजडा । ४ कुकंट-मुर्गा-कूकडा। ५ मूषक-चूहा उंदर । ६ मार्जारी-बिल्ली-बिलाडी। . खुवार-नाश।
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सिंहगुफा वासी मुनि कोशा, वेश्याके दरबार । तुरत गिरा गया देश नेपाले, दीना निज व्रत हार ॥भ०४॥ अज्ञानी पशु केलि निरखत, होवे चित्त विकार । लखमणा जिम साधवी वस मोहे, बहुत रुली संसार॥भ०५॥ पंडक चंचल चित्त कहावे, वेद नपुंसक धार । चेष्टा विध विध देख है संभव, होवे तुच्छ विचार ॥भ०६॥ वाड प्रथम परकासी प्रभुने, जगजीवन हितकार । आतम लक्ष्मी प्रभुको पूजी, वल्लभ हर्ष अपार ॥ भ० ७॥
('काव्य-मंत्र पूर्ववत्') पूजा तीसरी.
दोहरा. पंचाश्रवको त्यागके, कर निज संवर रूप । निज आतम गुण संपदा, होवे आतम भूप ॥ १॥ वो ऋषि वो मुनि संयमी, वो साधु अनगार । भिक्षु ब्राह्मण वो सही, पाले ब्रह्म उदार ॥२॥ जिन वचनामृत पानसे, अजरामर पद धार । भव्य जीव इस कारणे, पूजे जिनवर सार ॥३॥ दीनदयाल जिनेश्वरु, करुणा रस भंडार । जगजीवन करुणा करी, भाख्यो यह आचार ॥४॥ रक्षा खातिर ब्रह्मकी, दूजी वाड विचार । स्त्री संबंधी टारिये, विकथा चारप्रकार ॥५॥ १ केलि-क्रीडा । २ खातिर-वास्ते।
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८
माढ - ( मोरे गमका तराना . ) जिनवर ब्रह्मचारी - आनंदकारी भवजल तारनहार । प्रभु जगहितकारी - अति उपकारी - जाउं बलिहारी ॥ भवजल तारनहार ॥ अं० ॥ स्त्री पर्षद में बैठकेरे, धर्म कथा परिहार । नारी कथा फुन कामकीरे, दीजे शुद्ध मन टार ॥ प्रभु०१ ॥ जाति रूप कुल देशकीरे, नारी वात विसार । मोह वधे स्थिर नाही रहेरे, तुच्छमति अनगार ॥ प्रभु० २ ॥ चंद्रवंदन मृगलोचनारे, वेणी भुजंग प्रकार । दीप शिखा जिम नाशिकारे, रंग अंधर बिबेसार ॥ प्रभु०३ ॥ वाणी कोयल सारखीरे, कुंच कुंभ वारणं धार । हंसगमन कृश हैंरि कैटीरे, कैर युग कमलउदार ॥ प्रभु०४॥ रूप रमणी इम दाखवेरे, विषय धरी मन रंग । मुग्ध लोकको " रीझवेरे, वाधे अंग अनंग ॥ प्रभु० ५ ॥ आतम लक्ष्मी नाशिनीरे, नारी कथा शृंगार । त्यागो भवि जिन उपदिशेरे, होवे हर्ष अपार ॥ प्रभु० ६ || दोहरा. अपवित्र मल कोठरी, कलह कदाग्रह ठाम । ग्यारी स्रोत वहें सदा, चर्मदृति जस नाम ॥ १ ॥
१ मुख । २ गुत्त - - चोटलो । ३ होठ । ४ पकाहुआ लाल गोल्हफल - गिलोडा । ५ स्तन । ६ गंडस्थल । ७ हाथी । ८ चाल । ९ पतली । १० सिंह । ११ कमर । १२ हाथ । १३ दो । १४ स्त्री । १५ बेसमझ - भोले । १६ खुशकरना । १७ काम । १८ नाशकरनेवाली । १९ कहे । २० २ कान, २ आंखें, २ नाक, १ मुख, १ दिशाकी जगह और १ पिशाबकी जगह एवं नव स्रोत पुरुषके होते हैं और २ स्तन मिलाकर ११ स्त्रीके होते हैं । २१ नालें । २२ चमडेकी मशक - पखाल ।
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देह उदारिक कारमी, क्षणमें भंगुर होय । सप्त धातु रोगाकुली, सार नहीं कुछ जोय ॥२॥ चक्री चौथा जानिये, देखन सुरवर आय । वोभी क्षणमें क्षतहुओ, रूप न नित्य कहाय ॥ ३ ॥ नारीकथा विकथा कही, जिनवर तीजे अंग । सप्तम अंगे सूचना, दंड अनर्थ प्रसंग ॥४॥ धन्य जिनेश्वर देवको, वीतराग भगवंत। उपकारी विन कारणे, जग उपदेश करंत ॥५॥
बरवा-कहरवा।
(धन धन वो जगमें नरनार. यह चाल) धनधन वीर जिनंद भगवान भविभवपार लगानेवाले ॥अं०॥ पंचम देवाधिदेव, करे सुर सुरपति जस सेव । फलं पुण्य अपूरव लेव, परमपद अंतिम पानेवाले॥धन०१॥ भाखे हित भवि नरनार, व्रतमें ब्रह्म जिम शंशी तोर ।
आदरसे मनमें धार, करो सेवन शिव जानेवाले॥धन०२॥ नर नार विषयकी वात, करे आतम व्रतकी घात । जिम वात तरुवर पात, तजो हृदि ज्ञान धरानेवाले ॥धन० ३॥ .जिम नींबु खटाई नाम, मुख छूटे जल अविराम । चित विणसे छोरोकाम,वचन जिनवरके गानेवालेधन०४॥
१ दुखदाई नाश होनेवाली । २ क्षणिक । ३ देखा । ४ नाश । ५ तीसरा अंग ठाणांगसूत्र । ६ सातमा अंग उपासक दशांगं नामा सूत्र । ७ द्रव्यदेव-कालकरके देवता होनेवाला, भावदेव-जो देवता हुभा हुआ है, नरदेव-चक्रवर्तिराजा, धर्मदेव-साधु, पांचमे देवाधिदेवं तीर्थंकर
[भगवती श० १२ उ०९।] ८ चंद्र । ९ तारे। १० पवन । ११ पत्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आतम लक्ष्मी महाराज, शुद्धालंबन जिनराज । वल्लभ हर्षे शुद्ध काज, प्रभु गिरतेको बचानेवाले ॥धन०५॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
पूजा चौथी।
दोहरा। तप संयम और ब्रह्मका, मैथुन नाश करंत । निशदिन शंकित मन रहे, करे कुशलका अंत ॥१॥ ध्यानी मौनी वल्कली, मुंड तपस्वी जान । ब्रह्मा भी ब्रह्म हीन हो, तैनिक न पावे मान ॥२॥ . पढा गुना जाना सभी, सफल कहावे तास । अनुचित करणी करनकी, कभी करे नहि आस ॥३॥ . ब्रह्मचर्यने जगतमें, अतिशय पुण्य प्रभाव । व्रतमें गुरु पदवी लही, साधी आत्म स्वभाव ॥४॥ सर्व पापके तुल्य है, मदिरा मांसाहार । चार वेदके तुल्य है, ब्रह्मचर्य जग सार ॥ ५॥
(सोहनी-सिद्धाचल तीरथ जानाजी-यह चाल) भविब्रह्मचर्य गुण गानाजी। गानाजी सुख पानाजी ॥ भवि० अंचली ॥
कार्य। २ थोडासाभी। ३ व्रतानां ब्रह्मचर्य हि, निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । नजन्यपुण्यसम्भार-संयोगाद् गुरुरुच्यते ॥१॥(प्र० व्या० टी०)॥ ४ तन्त्रान्तरीयैरप्युक्तम्-एकतश्चतुरो वेदाः, ब्रह्मचर्यं च एकतः । एकतः सर्वपापानि, मयं मांसं च एकतः ॥ (प्रश्नव्याकरणटीका)
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वाड तीसरी जिनवर भाखी। एक आसन नहीं ठानाजी॥१ जिम पावक लोहेको गाले। तिम स्त्री संग पिछानाजी ॥२॥ जिस आसन बैठी हो नारी । काल घडी दो मानाजी ॥३॥ योगी यति ब्रह्मचारी न बैठे। उस आसन जिन आनाजी॥४॥ आसन भेद अनेक प्रकारे । दशमे अंग फरमानाजी ॥५॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्मस्वरूपी । वल्लभ हर्ष अमानाजी ॥६॥
दोहरा। श्रमण धर्म व्रत संयमा, वेयावच्च मिलाय । ज्ञान गुप्ति तप मूल हैं, निग्रह चार कॅसाय ॥१॥ पिंड विसोही भावना, समिई इन्द्रिय रोध। प्रतिमा गुप्ति अभिग्रहा, पडिलेहणं गुण बोध ॥ २॥ चरण करण गुण ए सही, इक संयं अरु चालीस । सबमें उत्तम दाखियो, ब्रह्मचर्य जगदीस ॥ ३॥ सेवे मैथुन होयके, दीक्षित जो नर नार । विष्ठाका कीडा बने, हायन साठ हजार ॥४॥ इत्यादि ब्रह्मचर्यको, जैनेतर भी मान । देते हैं निज शास्त्रमें, जानो चतुर सुजान ॥ ५॥
(न छेरो गारी दूंगीरे भरनेदो मोहे नीर । यह चाल) बैठे नहीं आसन नारीके, ब्रह्मचारी धीर वीर ॥ अंच०॥
१ अग्नि । २ आज्ञा । ३ प्रभव्याकरणसूत्र । ४ यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा, पुनः सेवेत मैथुनम् । षष्टिवर्षसहस्राणि, विष्ठायां जायते कृमिः।।। [या
ज्ञवल्क्यस्मृति-मिताक्षरा-प्रायश्चित्तप्रकरणम् ५] ५ वर्ष । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रभु वीर जिनंद फरमाया, पाले ब्रह्म मन वच काया। होवे उत्तम तस आयारे-ब्रह्मचारी धीर वीर-बै०॥१॥ संसर्गज दोष कहावे, अनुभवमें सबके आवे । वैज्ञानिक भी इम गावेरे-ब्रह्मचारी धीर वीर-बै० ॥२॥ इम बैठे ऑसंग थावे, आसंगे तन फरसावे । फरसे तस रस ललचावेरे-ब्रह्मचारी धीर वीर-बै० ॥३॥ संभूत मुनि चित्त दीनो, फरसे तप निष्फल कीनो। चक्रीपद मांगके लीनोरे-ब्रह्मचारी धीर वीर-बै० ॥४॥ भ्राता चित्रे समझायो, चारित्र उदय नहीं आयो। दुख सातमी नरके पायोरे-ब्रह्मचारी धीर वीर-बै० ॥५॥ आतम लक्ष्मी हित खानी, पूजा प्रभु वीर वखानी ।। वल्लभ हर्षे मन मानीरे- ब्रह्मचारी धीर वीर-बै०॥६॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
पूजा पांचमी।
दोहरा। भगवती वीर वखानियो, मैथुन पाप सरूप । जानी ब्रह्मचारी रहें, पावें आतम रूप ॥१॥ नरनारी संयोगमें, गर्भज नव लख जान । जीव समूर्छिम ऊपजे, संख्या नहि तस मान ॥२॥ दो पण इन्द्रिय जीवकी, हिंसा अपरंपार । तदुल वैचारिक सुनी, ब्रह्मचर्य भवि धार ॥ ३ ॥ १ आत्मा । २ सोहबतसे । ३ पदार्थ विद्याके ज्ञाता। . भासक्तिराग । ५ शतक २ उद्देशा ५।
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धन धन जिनवर देवको, धन गौतम गणधार । दीनो रक्षण ब्रह्मको, जगजीवन हितकार ॥ ४॥ पूजन ब्रह्मचारी प्रभु, ब्रह्मचर्यके हेत । गुणि पूजन गुण पूजना, होवे निश्चय लेत ॥५॥
कल्याण-(नाचत सुर इंद-यह चाल) पूजत सुर इंद विंद मंगल ब्रह्मचारी, पूजत सुर इंद विंद अं०॥ ब्रह्मचर्य शुद्ध जेह, परम पूंत तास देह । देवसेव करत नेह, जय जय ब्रह्मचारी-पूजत ॥१॥ ब्रह्मचर्य सेत हेत, खेत न नार नयन देत । काम राग कर संकेत, परिहर नर नारी-पूजत ॥ २॥ लिखित चित्रकार नार, नगन या शृंगार सार । . करत त्याग नजर धार, ऋषि मुनि अनगारी-पूजत ॥३॥ नारी रूप रुप्पी राय, नारी वेद आप पाय । भाव लाख भव भमाय, त्याग तुरीय वारी-पूजत ॥ ४॥ आतम लक्ष्मी नाथ माथ, नमत करत सेव हाथ । वल्लभ हर्ष धरत साथ, पग पर ब्रह्मचारी-पूजत ॥५॥
दोहरा। चौथी वाड कही प्रभ, नयन विकासी रूप रमणीको देखे नहीं, मुनि गुण आतम भूप ॥१॥ १ वृंद-समूह । २ पवित्र । ३ "देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिचरा । संभवारिं नमसंति, दुरं जं करंति ते ॥१६॥" [उत्तराध्ययन १] " देवनरिंदनमंसियपूर्य" [प्रभव्याकरण] ४ वेत-उज्वल-निर्मल । ५शारीर । १ नेत्र । ७ चौथी। ८ मखक ।
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निरखत दिनकर सामने, नयन घटे जिम तेज । तिम तैरुणी देखत घटे, शील न लागे जेजें ॥२॥ हसित भणित चेष्टित गति, क्रीडित 'गीत विलास । ईक्षित वाँदित आकृति, यौवन वर्ण विकास ॥३॥ अधर पयोधर देहके, अन्य गुंह्य अवकाश । वसन विभूषा रागसे, देखत शील विनाश ॥ ४॥ इस कारण हित कारणे, वार वार उपदेश । नारीदर्शन त्यागना, चौथी वाड जिनेश ॥ ५ ॥
(केसरिया थांसुं प्रीत करीरे-यह चाल) ब्रह्मचारी जिनवर पूजाकरेरे भवि भावसे-अंचली चौथी वाड कहे प्रभुरे, श्रीजिन दीनदयाल । मनहर दर्शन नारीकोरे, मन वच काया टालरे-ब्रह्म॥१॥ दीपक नारी रूपमेंरे, कामी पुरुष पतंग । झिपलावे सुख कारणेरे, जल जावे निज अंगरे -ब्रह्म॥२॥ मनगमता रमता हियेरे, उर कुच वदन सुरंग । नहर अहर भोगी डस्योरे, देखंतां व्रत भंगरे-ब्रह्म० ॥३॥ कामणगारी कामिनीरे, जीता सकल संसार । आंख अणी नहीं को रह्योरे, सुर नर सब गये हाररे-ब्रह्म०॥४ हाथ पांव छेदे हुएरे, कान नाक भी जेह । बूढी सौ वरसां तणीरे, ब्रह्मचारी तजे तेहरे-ब्रह्म०॥५॥
१ देखत । २ सूर्य । ३ स्त्री । ४ देर । ५ हँसना । ६ बोलना । ७ चे. ष्टाका करना । ८ चलना । ९घृतादि क्रीडाका करना । १० गाना। ११ कटाक्ष । १२ देखना । १३ वीणा आदिका बजाना । १४ रूप । १५ रंगगौर आदि । १६ होठ । १७ स्तन । १८ गुप्त । १९ अवयव । २० वस्त्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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रूपे रंभा सारिखीरे, मीठा बोली नार । तो किम देखे एहवीरे, भर जोबन व्रतधाररे-ब्रह्म०॥६॥ देखत अबला इंद्रिकोरे, वस होवे मन प्रेम । राजीमती देखीकरीरे, तुरत डिग्यो रहनेमरे-ब्रह्म०॥७॥ आतम लक्ष्मी कारणेरे, चेते चतुर सुजान । नारी खारी परिहरेरे, वल्लभ हर्ष अमानरे-ब्रह्म० ॥८॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्) पूजा छट्ठी।
दोहरा. व्रत षट पालक साधुजी, षट काया रखवाल । भेद अठारां त्यागते, अब्रह्म दीन दयाल ॥१॥ औदारिक वैक्रिय कहा, मन वच काय प्रकार । कृत कारित अनुमोदना, अब्रह्म भेद अठार ॥२॥ रागी दुखिया नित्य है, नित्य सुखी नीराग । वीतराग सम जानिये, ब्रह्मचारी नीराग ॥३॥ उत्तम गुण ब्रह्मचर्यकी, रक्षा कारण खास । थानक मुनि सेवे नहीं, कामोद्दीपक पास ॥४॥ उपकारी अरिहंतकी, पूजाका विस्तार । रायपसेणी सूत्रमें, शिव सुख फल दातार ॥ ५॥
ठुमरी-पंजाबी ठेका । रागिणी सरपरदा ।
(गोपाल मेरी करुणा क्यों नहीं आवे-यह चाल) जिनंदा मोरा मुखसे यूं फरमावे ॥ अं०॥ मुनि कुट्यंतर वसना त्यागेरे, पंचमी वाड कहावे ॥१॥ १ एकही दीवार-भीत-या पडदे के अंतरे।
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क्रीडा करती कामिनी रागेरे, स्वर सुनने में आवे ॥२॥ हाव भाव हाँसी स्त्री रोनारे, यहभी संभव थावे ॥३॥ शील रत्नको लांछन लागेरे, मनमें मन्मथ भावे ॥४॥ जिम भाजनमें अग्नि पासेरे, लाख मोमै ढल जावे ॥५॥ इस कारण साधु ब्रह्मचारीरे, ऐसे स्थान न ठावे ॥६॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्म प्रभावेरे, वल्लभ हर्ष मनावे ॥७॥
दोहरा। द्रव्य क्षेत्र अरु कालसे, भाव भेद इम चार । व्रत षट मन वच कायसे, आराधे अनगार ॥१॥ धरम सुकल दो ध्यानके, अधिकारी ऋषिराज। तप कर काया सोसवे, काटे कर्म समाज ॥२॥ परिषह दो अरु बीसको, जीत सहे उपसर्ग। सोलां पण विन ब्रह्मके, पावे नहि अपवर्ग ॥ ३ ॥ रक्षण निजगुण ब्रह्मका, सब किरियाका मूल । योगी ब्रह्म प्रतापसे, पावे भवजल कूल ॥ ४ ॥ पंचम वाड कही प्रभु, ब्रह्मचारीके हेत । संजोगी नर नारके, निकट रहे न निकेत ॥५॥
(चिंतामणि स्वामीरे-यह चाल) ब्रह्मचर्य धारीरे, जग उपकारीरे, भावे भवि सेविये होजी। ब्रह्मचारीकी सेवा शिव सुख देत,
सेवा करके सेवक शिव सुख लेत । सी।२ कामदेव । ३ मीण । १ मोक्ष ।५ किनारा-तीर-कांठा ।
६मकान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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ब्रह्मचर्य धारीरे, जग उपकारीरे, भावे भवि सेविये होजी । अंचली ॥ संयोगी पासे रहे, ब्रह्मचारी निस दीस । कुशल न उसके ब्रह्मको, टूटे विसवा वीस । ठहरे नहीं मुनिजन ऐसे थान-ब्रह्म० ॥१॥ निकट ही भीतके अंतरे, नारी रहे जहां रात । केलि करे निज कंतसे, विरह मरोडे गात । विरहाकुल हो हीन दीन वदे वान-ब्रह्म०॥२॥ कोयल जिम टहुका करे, गावे मीठे साद । मदमाती राती अति, सुरत करत उन्माद । कामावेशे हस हस करत गुमान-ब्रह्म० ॥३॥ मोरा नाचे भूतले, गगन सुनी गरजार । मन नाचे ब्रह्मचारीका, शब्द सुनी शृंगार । त्यागे साधु रस शृंगार पिछान-ब्रह्म०॥४॥ पांचमी वाड आराधिये, ब्रह्मचर्य व्रत धार । आतम लक्ष्मी पामिये, वल्लभ हर्ष अपार । समझो ऐसे भाखे श्रीभगवान-ब्रह्म० ॥५॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
पूजा सातमी.
दोहरा। ब्रह्मचर्य दो भेद है, सर्व देशसे जास । जिन गणधर वर्णन करे, आतम रूप विकास ॥१॥
चा. पू. २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सर्व ब्रह्म अनगारको, देश गृही अधिकार । मुख्य गौणके भेदसे, लौकिकमें परचार ॥२॥ पर परिणतिका त्यागना, निश्चय ब्रह्म कहाय । नर नारीके मिथुनका, नय व्यवहार गिनाय ॥३॥ निश्चय सिद्धिके लिये, आवश्यक व्यवहार । व्यवहारे नव वाड हैं, नरनारी हितकार ॥ ४ ॥ आत्मबली नहि कैद है, तस नहि वाड विचार । स्थूल भद्र जंवू मुनि, विजय सेठ अधिकार ॥ ५ ॥
(मालकोंस । त्रिताला।) प्रभु वीतराग उपदेश सार,
सुन संघ चतुरविध हृदय धार ॥ प्र० अं० ॥ दोष अविरतिपन जो कीने, कामविषय बहुविध चित्त दीने।' _ब्रह्मचारी दे उसे विसार ॥ प्रभु वीतराग० ॥१॥ मणिधर जिम कंचुकको उतारी, इच्छे नहीं फिर दूसरी वारी
तिम मुनि मनसे भोग छार ॥ प्रभु वीतराग०॥२॥ नाग अगंधन कुलका कहावे, पीवे न वमन किया जलजावे।
मुनि ऐसे मन लेवे धार ॥ प्रभु वीतराग० ॥३॥ पूरव क्रीडित मन नवि लावे, ज्ञान ध्यान मन भावना भावे।
उत्तम ब्रह्मचारी आचार ॥ प्रभु वीतराग० ॥४॥ आतम लक्ष्मी संपद पावे, वल्लभ मनमें अति होवे ।
छट्ठी शुद्ध मन पार वार ॥ प्रभु वीतराग० ॥५॥
१ सर्प । २ कुंज-कोचली।
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१९
दोहरा. ब्रह्म नाम है ज्ञानका, ब्रह्म नाम है जीव । सदाचार ब्रह्म नाम है, रक्षा वीर्य सदीव ॥१॥ जिम लोकोत्तर शास्त्रमें, ब्रह्मचर्य परधान । तिम लौकिकमें जानिये, सर्वगुणोंकी खान ॥२॥ ब्रह्मचर्य तपसे मिले, मोक्ष परमपद धाम । चतुराश्रममें मुख्य है, ब्रह्मचर्यको नाम ॥ ३ ॥ तत्त्वारथमें ब्रह्मको, गुरुकुलवास वखान । आशय सबका एकहै, निज आतम कल्यान ॥४॥ आतम निजगुण पूजना, पूजा श्री भगवान । तिण कारण पूजा प्रभु, कीजे विविध विधान ॥५॥
वसंत
(होइ आनंद बहाररे-यह चाल) ब्रह्मचारी भगवानरे-भवि सेवो हृदयसे ॥ अंचली ॥ भर यौवन रामा घरेरे, धनकाभी नहीं मानरे-भवि०॥१॥ श्वसुर पक्ष पितृगृहेरे, मिलता था बहु मानरे-भवि० ॥२॥ हाव भाव शंगारमेंरे, रहते थे गलतानरे ॥ भवि०॥३॥ इत्यादि स्मृति गोचरेरे, हानि ब्रह्म निधानरे ॥ भवि० ४॥ जिनरक्षित जिनपालकारे, ज्ञाता सूत्र वखानरे ॥ भवि०५॥ विराधक होवे दुखीरे, जिनरक्षितके समानरे ॥ भवि०६॥ इसकारण दिल धारियेरे, छट्ठी वाड प्रमानरे ॥ भवि० ७॥ आतम लक्ष्मी पामियेरे, वल्लभ हर्ष अमानरे ॥ भवि० ८॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
१ स्त्री। २ माप-परिमाण ।
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२० पूजा आठमी।
दोहरा. ब्रह्मचर्य रक्षा करे, मर्यादित नरनार । चाहे हो अनगार ही, चाहे हो सागार ॥१॥ मुख्य धर्म अनगारका, पाले पूरण वार । आदरसे गृही पालते, शक्तिके अनुसार ॥२॥ बाल वृद्ध विधवा लगन, मर्यादासे बहार । उत्तम नर नारी नहीं, देवें जग सतकार ॥३॥ लग्न समय सिद्धांतमें, यौवन वय परमान । देहातम अरु ब्रह्मकी, रक्षा कारण जान ॥४॥ सातमी वाड कही प्रभु, ब्रह्मचारीके हेत । भोजन सरस न कीजिये, जानी काम निकेत ॥५॥
दरबारी कानडा । और न देवाजी और न देवा, श्रीजिनवरकी करो भवि सेवा ।
और न देवाजी और न देवा ॥ अं०॥ सेवा प्रभुकी शुभ मन कीजे,
जनम जनमका लाहा लीजे । ब्रह्मचारी प्रभु आप कहावे,
रक्षा ब्रह्मचारीकी बतावे ॥ और० १॥ पुष्टिकार आहार न खावे, विगय अधिकमें मन न लगावे ।
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२१
गलत स्नेह बिंदु मुनि राया, ___ त्यागे भोजन मन वच काया ॥ और० २॥ रसना वस जो सरस आहारी,
चउ गति दुख पावे वो भारी। दूध दही पकवानको चावे,
पापं श्रमण जिन आगम गावे ॥ और० ३॥ मांदक आहारसे मन्मथ जागे, __ इस कारण ब्रह्मचारी त्यागे। रसना जीपक गृही अनगारी,
नमन करत जगमें नरनारी ॥ और० ४॥ नीरस भोजनसे तनु पोषे,
धर्म साधन मानी संतोषे । आतम लक्ष्मी प्रभु ब्रह्मचारी, वल्लभ हर्ष नमे सय वारी ॥ और० ५॥
दोहरा। त्यागी नर परनारका, त्यागे परनर नार । संतोषी निज निज प्रति, ब्रह्मचारी सागार ॥१॥ पर्व तिथि व्रत पालते, नरनारी महा भाग। उनको भी नव वाडका, होता है अनुराग ॥२॥ १ दुद्धदही विगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अरए अ तवोकम्मे, पावसमणित्ति वुच्चह ॥ १६ ॥ (श्रीउत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १७)। भैक्षप्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सजति । (मनुस्मृ० अ० ६) तथा, यात्रामात्रमलोलुपः । यावता प्राणयात्रा वर्त्तते तावन्मानं भैक्षं चरेत् । अलोलुपो मिष्टानव्यञ्जनादिष्वप्रसक्तः । [याज्ञवल्क्यस्मृति-मिताक्षरा-यतिधर्मप्रकरण ।] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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व्रत रक्षाके कारणे, मादक सरस अहार । करें न भावें भावना, धन साधु अनगार ॥ ३ ॥ आतम बल निर्बल करे, उदय करमका जोर । ज्ञानी जन निर्लेप हो, पावें शिवपुर ठोर ॥४॥ वाड कही जिन सातमी, आतम निर्मल काज । तिण उपकारी जगतके, पूजे भवि जिनराज ॥ ५ ॥
सोहनी (ढुंढ फिरा जग सारा-यहचाल) तीर्थंकर हितकारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ तीर्थ० अं०॥ त्यागो रसना जिन फरमावे,
रसना वस जग अति दुःख पावे । जावे नर भव हारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० १॥ रसना स्वादे धनको लूटावे,
खातिर नाकके पापी थावे । होवे खाना खुवारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० २॥ सरस रसोई चक्री स्वादे,
ब्राह्मण दुखियो हुओ बकवादे ।। पायो विटम्बना भारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० ३॥ रसना लंपट मंगु आचारज,
शिथिल हुओ छोरी मुनि कारज ।
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२३
गयो दुर्गति गुण हारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती०४॥ सेलक सूरि सुत राजधानी,
चारित्र चूकी हुओ मदपानी। रसवती सरस आहारी, ब्रह्मचारी,
भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० ५ ॥ आतम लक्ष्मी निज हित जानी,
रसना जीतो हे भवि प्रानी । वल्लभ हर्ष अपारी, ब्रह्मचारी, भविजन कीजे अर्चना ॥ ती० ६ ॥
('काव्य-मंत्र पूर्ववत्')
पूजा नवमी..
दोहरा। मद्य विषय विकथा सही, निद्रा और कषाय । भवसागरमें डारते, पांच प्रमाद मिलाय ॥१॥. शत्रु त्याग प्रमादको, हो करके हुशियार । आतम सत्ता पामिये, होवे जय जय कार ॥२॥ जीत अपूरव जगतमें, ब्रह्मचर्य परभाव । तिस कारण है आठमी, वाड कही जिनराव ॥३॥ संयम पर जो प्रेम है, ब्रह्मचारी अनगार । अति मात्रा भोजन तजे, होवे भव दधि पार ॥४॥ अति मात्रा आहारसे, आवे उघ अपार । संभव शील विराधना, होवे स्वप्न मझार ॥५॥
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(तुम दीनके नाथ दयाल लाल-यह चाल) तुम चिदघन रूप जिनंद चंद तोरे ब्रह्मकी जाउं बलिहारी। देव जगतमें जेते देखे, सबही काम भिखारी ॥१॥ काम बलीको हे प्रभु तुमने, दीनो जडसे उखारी ॥२॥ कामके जीतनको उपकारी, मंत्र दियो अति भारी ॥३॥ कम खाना अरु गमका खाना, होवे सुखी ब्रह्मचारी ॥४॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्म प्रभावे, वल्लभ हर्ष अपारी ॥५॥
दोहरा। संजमका निरवाह हो, भोजनका परिमान । अधिका खाना ब्रह्मको, करता है नुकसान ॥ १ ॥ खाटा खारा चरचरा, मीठा विविध प्रकार । रस लालच अधिका भखे, होवे रोग प्रचारं ॥२॥ सेर मापकी हांडिमें, देवे अधिका डार । या फूटे या नाश हो, देखो सोच विचार ॥३॥ ऐसे अधिका खानसे, होवे रोग विकार । या होवे ब्रह्मचर्यका, नाश किसी परकार ॥४॥ ब्रह्मचारी हित कारणे, यह जिनवर उपदेश । भावे भवि जिन पूजिये, जावे सकल कलेश ॥ ५ ॥
१ यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहप्रतिपालनं भवति तथा कुर्यादित्युक्तं भवति । उक्तं च-आहारार्थ कर्म कुर्याद निन्धं, स्यादाहारःप्राणसम्धारणार्थम् । प्राणा धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् । १ [ आचा०वृ• ] २ अनारोग्यमनायुष्य-मस्वयं चातिभोजनम् ।
भपुण्यं लोकविद्विष्टं, तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ ५७ ॥ (मनुस्मृति-अ०.२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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धन्याश्री। (क्यांथी आ संभलाय मधुरधुनी-यह चाल) पूजन करो जिनचंद भविक जन, पूजन करो जिनचंद । पूरण ब्रह्मचारी प्रभु पूजन, शिवसुख सुरतरु कंद ॥१॥ जनोदरता तपमें कहावे, तप जप करम निकंद ॥ २॥ . नरनारी ब्रह्मचर्य व्रतधारी, भोजन अधिक तजंद ॥ ३॥ सहस वरस कीनो तप भारी, कंडरीक मुनि मति मंद॥४॥ विधविध जाति अधिक भोजनसे, नाश कियो ब्रह्म इन्द ॥५॥ अपध्यानी कामातुर मरके, सप्तम तल उपजंद ॥ ६ ॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्म प्रभावे, वल्लभ हर्ष अमंद ॥ ७ ॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
पूजा दशमी।
दोहरा। नवमी वाड कही प्रभु, साधु तजे भंगार । अवनीतल शोमे नहीं, शृंगारी अनगार ॥१॥--- स्त्रान विलेपन वासना, उत्तम वस्त्र अपार । उदभट वेश न धारिये, तेल तंबोल निवार ॥२॥ दातन स्नान निवारना, मौन नियम तप धार। केश लोच आदि क्रिया, ब्रह्मचर्य हितकार ॥३॥ चमक दमक अति ऊजला, वस्त्र धरे नहीं अंग। बहुमोला अति पातला, संभव होत अनंग ॥४॥ १ सातमी नरक ।
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जिम धोयो धरणी धन्यो, हान्यो रत्न कुंभार । शील रत्न मुनि हारते, करते जो भंगार ॥ ५॥
श्याम कल्याण। कीजे भवि पूजन प्रभु ब्रह्मचारी । अंचली। पूरण ब्रह्मचारी सब होवे, तीर्थकर पदधारी ॥कीजे०॥१॥ ऋषि मुनि तापस यति संन्यासी, होवत सब ब्रह्मचारी ॥२॥ वेश पृथक गृहीसे साधारण, ब्रह्मचर्य हितकारी ॥३॥ देह वसन आभूषण शोभा, संजोगी नरनारी ॥४॥ ब्रह्मचारीको योग्य नहीं है, फिरना बन श्रृंगारी ॥५॥ काम दीपावन भूषण दूषण, अंग विभूषण टारी ॥ ६॥ नाटक चेटक रास सिनेमा, देखे नहीं ब्रह्मचारी ॥७॥ - सैर सपाटा रौनक ठौनक, त्यागे धन्य सदाचारी ॥८॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्म अनुपम, वल्लभ हर्ष अपारी ॥की०९॥
दोहरा। पांच नियंठा आगमे, जिनगणधर फरमान । अंतिम दो निर्वेद हैं, तीन सवेद पिछान ॥ १॥ १ कोई एक कुंभार माटी खोद रहाथा, दैवयोग उसको मिट्टीमेंसे एक रत्न मिलगया, उसको पानीसे साफ कर चमकीला दमकीला बना जमीनपर रखकर उसे देख देखकर खुश होताथा । इतनेमें चीलने आ झपट मारी, . चील उसे मांसका टुकडा समझती थी इसलिये लेकर चलती हुई और कुंभकार रोताही रहगया! इसी तरह कई जन्मोंमें मिट्टी खोदनके समान जन्ममरण करते हुए इस जीवको उत्तम मनुष्यजन्मरूप रत्नोंकी खानिमेसे सर्वोत्तम ब्रह्मचर्यरूप रन मिलाहै । यदि ब्रह्मचारी अपने आपको चमकीले दमकीले शृंगारसे सजा रखेगा तो संभव है स्त्रीरूप चील इसके ब्रह्मचर्यरूप छालको खोस लेवेगी! बस फिर क्या ? प्राचर्यसे भ्रष्ट हुआ हुआ दुर्गतिका अधिकारी हो जायगा ! इसलिये ब्रह्मचारीको शृंगारी न बनना चाहिये।
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२७
निर्वेदी जब होत है, आतम क्षायिक भाव । पूरण ब्रह्म स्वरूप ही, प्रगटे आतम भाव ॥२॥ जबलग वेदी जीवहै, तबलग शुभ व्यवहार । वाड सहित किरिया करे, ब्रह्मचारी अनगार ॥३॥ यह उपदेश ही खास है, षट पंचम गुणठाण । साधु श्रावक सर्वसे, देशसे जिनवर वाण ॥४॥ जो चाहे शुभ भावसे, निज आतम कल्यान । तीन सुधारे प्रेमसे, खान पान पहिरान ॥ ५ ॥
देश-त्रिताल-लावणी । (कर पकर प्रीतयुत बोलत नार सयानी-यह चाल) ब्रह्मचारी तीरथ नाथ नमो भवि प्रानी। आतम हितखानि मानो जिनेश्वर वानी ॥ अं० ॥ जो होये अरिहंत देव तीरथके स्वामी, पूरण ब्रह्मचारी जानो नहीं कोई खामी । तोभी श्रीनेमिनाथ बाल ब्रह्मचारी, जिनशासनमें अतिमान पावे जयकारी। व्रतब्रह्मचर्य परभाव वदे महाज्ञानी ॥ आतम० १॥ नरनारी शुभ आचार सभी अधिकारी, किंतु व्रत लेवे धार वही ब्रह्मचारी । आचार विचार आहार विहार ये चारी, हैं मर्यादित जस धन्य जगत नरनारी । वोही उत्तमकुलवंश उत्तम खानदानी ॥ आ० २॥
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२८
जिम उदभट वेश न साधु साधवी धारे, तिम नरनारी सागारभी कुल अनुसारे । धारे नहीं उदभट वेश ब्रह्म व्रत पारे, नरनारी परस्पर दोष समान निवारे । सुंदर मर्यादा धारो पूर्वज मानी ॥ आतम० ३ ॥ विधवा परिवर्तन वेश जगतमें जानो, रक्षा ब्रह्मचर्य पतिव्रत धर्मकी मानो । सादे कपड़े पहने भूषण नवि धारे, कुल दोनों अपने पितृश्वसुर उजियारे । धारो दिल अपने गूढ रहस्य वखानी ॥ आ० साधु पेथड भाग्यवान गृही ब्रह्मचारी, छोटी वय वर्ष बत्तीस अवस्था धारी । खातिर ब्रह्मपालन सादा वेश विहारी, त्यागा तांबूल सुकृत सागर उच्चारी। इंद्रियगण अतिबलवान न करो नादानी आ०५॥ महाभाग पालो ब्रह्मचर्य प्रगटे तुम नूरा, बलवीर्यपराक्रम फोर बनो अतिसूरा । वर्तमान अवस्था देशकी दिलमें विचारो, बल देहके कारण ब्रह्मचर्य अवधारो। तजो कायरता अवलंबन लो ब्रह्मज्ञानी ॥ आ०६॥ अवलंबन पूजा पूज्य परम ब्रह्मज्ञानी,
पूजक पावे फल आप होवे तस सानी। १ नूर-तेज । २ फोरना- उपयोगमें लाना । ३ सानी-तुल्य ।
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मनवचकाया शुद्ध धार अध्यातम मानी, आतम लक्ष्मी प्रभु आप अनुपम ज्ञानी । वल्लभ हर्षे ब्रह्मचर्यगुणे मस्तानी ॥ आतम० ७॥
(काव्य-मंत्र पूर्ववत्)
कलश. (भवि नंदो जिनंद जस वरणीने-यह चाल) भवि वंदो गुणी ब्रह्मचारीने ॥ भवि० अं०॥ पूजन ब्रह्मचर्य सुखकारी, करे भवि निज हित धारीने ॥ भवि० १॥ अपुनरावृत्ति फल पावे, भावे शीलको पारीने ॥ भवि० २॥ नूतन श्रीजिन चैत्य बनावे, कोटि निष्क दान कारीने ॥ भवि० ३ ॥ होवे नहीं ब्रह्मचर्य बराबर, आगम पाठ उच्चारीने ॥ भवि० ४ ॥ ब्रह्मचर्यसे चारित्र दीपे, विना ब्रह्म सब हारीने ॥ भवि० ५॥ जिन गणधर सुर गुरु गुण गावे, आवे न पार अपारीने ॥ भवि० ६॥ मैं मतिहीन कथं भक्तिवश, निजशक्ति अनुसारीने ॥ भवि० ७॥
मोहर । २ जो देइ कणयकोडि अहवा कारेइ कणय जिणभवणं । तस्स न तत्तियपुणं जत्तिय बंभवए धरिए ॥"
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राजनगर श्रावक श्रद्धालु, ताराचंद सुत धारीने ॥ भवि० ८॥ भोगीलाल ओसवाल झवेरी, 'मंगल'उपपद धारीने ॥ भवि० ९॥ इनके कथनसे रचना कीनी, पूर्वाचार्य आधारीने ॥ भवि० १०॥ संवत निधि युग वेर्दै युगलमें, मोक्ष बीर अवधारीने ॥ भवि० ११ ॥ आतम वसु कर विक्रम कहिये, वीस कमी दो हजारीने ॥ भवि० १२ ॥ श्रावणसुदि पंचमी प्रभुनेमि, जन्म दिवस ब्रह्मचारीने ॥ भवि० १३ ॥ मंगल रचना पूरण होई, विजय मुहर्त कवि वारीने ॥ भवि० १४ ॥ विजयानंद सूरि महाराया, तपगच्छ आनंदकारीने ॥ भवि० १५॥ लक्ष्मी विजयजी हर्षविजयजी, वल्लभ गुरु बलिहारीने ॥ भवि० १६ ॥ कीनी रचना हुशियार पुरमें, वासुपूज्य दिल धारीने ॥ भवि० १७ ॥
१ शुक्रवार । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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बालकक्रीडा सज्जन गुणीजन, लीजो भूल सुधारीने ॥ भवि० १८ ॥ मिथ्या दुष्कृत आतम लक्ष्मी, वल्लभ हर्ष अपारीने ॥ भवि० १९ ॥
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न्यायाम्मोनिधि श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर पट्टधर आचार्य श्रीमद्विजयवल्लभसूरिविरचिता चारित्रपूजा अपर नाम ब्रह्मचर्य
व्रतपूजा समाप्ता॥ *HENERGREEHEIGHEE
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________________ wastram astrastrateaserat s वन्दे वीरमानन्दम् / श्रीभावनगरचैत्यपरिपाटीस्तवन लावणी. (ऋषभजिनंद विमल गिरिमंडन-चाल / ) SERSERSERSERSERSERSERSERSEASESERSERSERSED SEREDIAS जय जिनवर तीर्थकर खामी, केवली अर्हन सुखकारा / नमिये निशदिन भवि, नमनसे मंगल में मंगलाचारा ॥अंचल भावनगर बंदरके अंदर, मंदर जिनवर हितकारा / कीजे शुभ भावे, चैत्यजिन परिपाटी आनंदकारा // 1 // मंदर म्होटा मन हरनारा, भर बजार चमके भारा। दरबारी टावर, निकटमें करता है टं टंकारा // 2 // मंदर अंदर पांच हैं सुंदर, पांच अनुत्तर सम धारा / पंचम गति पावे, करे भवी पांच अंगसे नमुकारा // 3 // मूलनायक लायक सुखदायक, क्षायक निज गुण अवधारा आदि जिन स्वामी, ध्यानसे होवे भवि भवदधिपारा // 4 // शांत रूप धारी प्रभु शांति, जग शांतिके करनारा। नमे शांत भावसे, वरे निज रूप शांत भवीजन प्यारा॥५ जगदमिनंदन नाथ जिनेश्वर, अभिनंदन जिन हितकारा। अभिनंदन देवे, उसे अमिनंदन देवे जगसारा // 6 // पुरिसादानी पार्श्वजिनेश्वर, पारस सम उपमा धारा / फरसे शुद्ध चेतन, कनक सम निर्मल रूप भलंकारा // 7 चउवीस जिन प्रतिबिंब सुहावे, चउवीस जिन चरनन सार दंडक चउवीसे, निवारण कारण नमते नरनारा // 8 // थोडी दूर बजार किनारे, मंदिर गौरव धरनारा / चलती है पेठी, जहां श्री संघ तरफसे साहुकारा // 9 // मूलनायक पायक धरणीदर, सायक दूर किये मारा। गौडी पारस जिन, नमो नित भाव भगत भवजल तारा // BeaSensasasasasaseas Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com