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वाड तीसरी जिनवर भाखी। एक आसन नहीं ठानाजी॥१ जिम पावक लोहेको गाले। तिम स्त्री संग पिछानाजी ॥२॥ जिस आसन बैठी हो नारी । काल घडी दो मानाजी ॥३॥ योगी यति ब्रह्मचारी न बैठे। उस आसन जिन आनाजी॥४॥ आसन भेद अनेक प्रकारे । दशमे अंग फरमानाजी ॥५॥ आतम लक्ष्मी ब्रह्मस्वरूपी । वल्लभ हर्ष अमानाजी ॥६॥
दोहरा। श्रमण धर्म व्रत संयमा, वेयावच्च मिलाय । ज्ञान गुप्ति तप मूल हैं, निग्रह चार कॅसाय ॥१॥ पिंड विसोही भावना, समिई इन्द्रिय रोध। प्रतिमा गुप्ति अभिग्रहा, पडिलेहणं गुण बोध ॥ २॥ चरण करण गुण ए सही, इक संयं अरु चालीस । सबमें उत्तम दाखियो, ब्रह्मचर्य जगदीस ॥ ३॥ सेवे मैथुन होयके, दीक्षित जो नर नार । विष्ठाका कीडा बने, हायन साठ हजार ॥४॥ इत्यादि ब्रह्मचर्यको, जैनेतर भी मान । देते हैं निज शास्त्रमें, जानो चतुर सुजान ॥ ५॥
(न छेरो गारी दूंगीरे भरनेदो मोहे नीर । यह चाल) बैठे नहीं आसन नारीके, ब्रह्मचारी धीर वीर ॥ अंच०॥
१ अग्नि । २ आज्ञा । ३ प्रभव्याकरणसूत्र । ४ यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा, पुनः सेवेत मैथुनम् । षष्टिवर्षसहस्राणि, विष्ठायां जायते कृमिः।।। [या
ज्ञवल्क्यस्मृति-मिताक्षरा-प्रायश्चित्तप्रकरणम् ५] ५ वर्ष । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com