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सिंहगुफा वासी मुनि कोशा, वेश्याके दरबार । तुरत गिरा गया देश नेपाले, दीना निज व्रत हार ॥भ०४॥ अज्ञानी पशु केलि निरखत, होवे चित्त विकार । लखमणा जिम साधवी वस मोहे, बहुत रुली संसार॥भ०५॥ पंडक चंचल चित्त कहावे, वेद नपुंसक धार । चेष्टा विध विध देख है संभव, होवे तुच्छ विचार ॥भ०६॥ वाड प्रथम परकासी प्रभुने, जगजीवन हितकार । आतम लक्ष्मी प्रभुको पूजी, वल्लभ हर्ष अपार ॥ भ० ७॥
('काव्य-मंत्र पूर्ववत्') पूजा तीसरी.
दोहरा. पंचाश्रवको त्यागके, कर निज संवर रूप । निज आतम गुण संपदा, होवे आतम भूप ॥ १॥ वो ऋषि वो मुनि संयमी, वो साधु अनगार । भिक्षु ब्राह्मण वो सही, पाले ब्रह्म उदार ॥२॥ जिन वचनामृत पानसे, अजरामर पद धार । भव्य जीव इस कारणे, पूजे जिनवर सार ॥३॥ दीनदयाल जिनेश्वरु, करुणा रस भंडार । जगजीवन करुणा करी, भाख्यो यह आचार ॥४॥ रक्षा खातिर ब्रह्मकी, दूजी वाड विचार । स्त्री संबंधी टारिये, विकथा चारप्रकार ॥५॥ १ केलि-क्रीडा । २ खातिर-वास्ते।
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