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वाचक ! पूर्वोक्त उपमाओंके पढ़नेसे ब्रह्मचर्यकी उत्तमताकी छाप ध्यानमें आगई होगी?
स्वर्गवासी प्रातःस्मरणीय स्वनामधन्य पूज्यपाद श्रीमद्विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) महाराजने निजरचित विंशति स्थानक पूजामें ब्रह्मचर्य पदकी पूजाका वर्णन करतेहुए
____ "दशमे अंगे बत्तीस उपमा, ब्रह्मचर्यको दखरी । श्याम." इस प्रकार वर्णन किया है, वह बत्तीस उपमा यही हैं जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं।
आपने निज विरचित जैनतत्त्वादर्श नामक ग्रंथमें ब्रह्मचर्यका वर्णन करते हुए जो कुछ वर्णन किया है मननीय एवं आदरणीय होनेसे उसको यहाँ उद्धृत करना योग्य समझा जाता है।
"चौथा मैथुन सेवनेका त्याग करना, तिसका नाम मैथुनत्यागवत कहते हैं । तिस मैथुनके दो भेद हैं, एक द्रव्यमैथुनत्याग, दूसरा भावमैथुनत्याग । उसमें द्रव्यमैथुन तो परस्त्री तथा परपुरुषके साथ संगम करना, सो पुरुष स्त्रीका त्याग करे और स्त्री पुरुषका त्याग करे । रति क्रीडा कामसेवनका त्याग करे तिसको द्रव्यब्रह्मचारी तथा व्यवहारब्रह्मचारी कहियें। __ दूसरा भावमैथुन है सो एक चेतन पुरुषके विषयविलास परपरिणतिरूप तथा तृष्णाममतारूप इत्यादि कुवासना सो निश्चय परस्त्रीको मिलना, तिसके साथ लाल पाल काम विलास करना सो भावमैथुन जानना । तिसको जिनवाणीके उपदेशसे तथा गुरुकी हितशिक्षासे ज्ञान हुआ तब जातिहीन जानकरके अनागतकालमें महादुःखदायी जानकर पूर्वकाल में इसकी संगतसे अनंत जन्ममरणका दुःख पाया, इसवास्ते इस विजातीय स्त्रीको तजना ठीक है । और मेरी जो स्वजाति स्त्री परम भक्त उत्तम सुकुलिनी समतारूप सुंदरी तिसका संग करना ठीक है। और विभावपरिणतिरूप परस्त्रीने मेरी सर्व विभूति हरलीनी है तो अब सद्गुरुकी सहाय सेती ए दुष्ट परिणामरूप जो स्त्री संग लगी हुई थी तिसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com