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में आजावे, यागे और कमेकी
कहिये । इहायागी तो
थोडा थोडा निग्रह करूं, त्यागनेका भाव आदरं, जिससे शुद्धस्वभाव घटरूप घरमें आजावे, तथा स्वरूप तेजकी वृद्धि होवे, ऐसी समझ पा करके परपरिणतिमें मग्नता त्यागे और कर्मके उदयमें व्यापक न होवे, शुद्ध चेतनाका संगी होवे सो भावमैथुनका त्यागी कहियें । इहां द्रव्यमैथुनके त्यागी तो षदर्शनमें मिल सकते हैं, परंतु भावमैथुनका त्यागी तो श्रीजिनवाणी सुननेसे भेदज्ञान जब घटमें प्रगट होता है तब भवपरिणतिसे सहज उदासीनरूप भावमैथुनका त्यागी जैनमतमेंही होता है।" [जैनतत्त्वादर्श ॥ ३२९ ॥]
प्रायः यत्र तत्र “ब्रह्म व्रतेषु व्रतम्" इस प्रकार ब्रह्मचर्यकी स्तुति क्या जैन और क्या जैनेतर सर्व दर्शनोंमें मुक्तकंठसे हो रही है, तथापि ब्रह्मचर्यको सादर मान देनेवाले या उसको स्वीकार करनेवाले और यथावत् पालनेवाले आजकालके सुधरे हुए कहाते जमाने में विरलेही नजर आते हैं। जिसका कारण यदि तटस्थतया शुद्ध मनसे कोई विचारेगा तो, उसको इस प्रस्तुत ब्रह्मचर्यव्रत पूजाकी दशमी पूजाके-"जो चाहें शुभ भावसे, निज आतम कल्यान । तीन सुधारें प्रेमसे, खान पान पहारन ॥" इस अंतिम दोहरेसे मालूम हो जायगा ।
भाजकाल इस सुधरेहुए कहाते जमाने में खान, पान और पहरानका कैसा हाल होगया है कहनेकी जरूरत नहीं है ! विना जरूरतके खान पान पहरान स्वाद और शौकके लिये किसकदर होरहा है प्रायः सबके अनुभव गोचर होरहा है। फजूल खर्ची इतनी बढ़ रही है कि, हरएक समाजमें इसकी पुकार सुनाई देती है ! इस परभी तुर्रा यह कि, छोड़नेके वक्त सबके सब फिर वही लकीरके फकीरवाला हिसाब लिये बैठते हैं ! धनवानोंकी जाने बला कि हमारे गरीबभाईयोंको कितना सहन करना पड़ता है ? यदि धनाढ्योंमेंसे जिव्हाका स्वाद लोलुपता और फेशनकी फिशयारी हटजावे तो समाजके उद्धारमें एक घडीकी भी देरी न लगे! अरे! जहां अपने स्वाद और शौकके पीछे जगजाहिर भ्रष्ट चीजोंके उपयोगमें धर्मतकका भी ख्याल नहीं कियाजाता है वहां गरीब भाईओंका ख्याल कहांसे आवे? मतलब मादक और मोहक वस्तुओंका प्रायः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com