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साम्राज्यसा होरहा है और इसके प्रभावसे ब्रह्मचर्यकी क्या दशा होरही है स्वयं विचार कर लेना प्रत्येक धर्मात्माका कर्त्तव्य है। अधिकके लिये मरहूम शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसुरिविरचित "ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन" और प्रायः सर्वमान्य महात्मा गांधीजी रचित "आरोग्यदिग्दर्शन" देखकर तटस्थतया पक्षपात रहित होकर जितना मनन और निदिध्यासन विचार और आचारमें लाना योग्य मालूम होवे, गुणग्राही सजन पुरुषोंको अवश्य ही लाना योग्य है । 'शुभे यथाशक्ति यतनीयम्' को याद कर शुभ काममें यदि सर्वथा यत्नशाली न बनाजावे तो जितना हो शके उतना तो बनना ही चाहिये।
पूर्वाचार्योंकी यही मनशा पाई जाती है कि, जिसतरह होसके लोकोंकी रुचि धर्ममें लगाई जावे । बस इसी पवित्र आशयसे उन्होंने तत्तद्देशीय तत्तत्कालीन लोकोंकी समझमें आवें और वह स्वयं भी पढसकें वैसे उस उस देशकीही भाषामें कितनेही रास, छंद, स्तोत्र, स्वाध्यायादि ग्रंथ निर्माण किये हैं। इतिहासकी तर्फ दृष्टि दौडानेसे मालूम होता है कि, जैनकी दो प्रसिद्ध शाखा, एक श्वेतांबर और एक दिगंबर । दोनों शाखाओंमें संस्कृत प्राकृतके इलावा भाषाके सैंकडों बलकि हजारों ग्रंथ नजर आयेंगे ! जिनमेंभी श्वेतांबरोंके प्रायः गुजराती भाषाके ग्रंथ अधिक मिलेंगे और दिगंबरोंके प्रायः ढुंढारी-जयपुरके इलाकेकी भाषामें और कनडी भाषामें बनेहुए ग्रंथ अधिक नजर आयेंगे । इससे यहभी सिद्ध होसकता है कि, श्वेतांबरोंकी गुजरात और गुजरातके साथ मिलता जुलता प्रायः मारवाड़ देश-इलाका सीरो ही तथा इलाका जोधपुर-इन दोनों स्थानोंमें प्रायः प्रथमसेही अधिकता रही है, जो आजतक दिखलाई दे रही है । वैसेही ढुंढारदेश इलाका जयपुर और महाराष्ट्र में प्रायः दिगंबरोंकी अधिकता प्रथमसेही रही मालूम देती है जो आजतक मौजूद है।
जिसप्रकार पूर्वाचार्योंने लोकोंके उपकारके लिये प्रचलित लोक भाषा में ग्रंथरचना की, इसी प्रकार उस उस समयकी प्रचलित संगीतविद्यामें पूजाओंकी रचना जुदे जुदे रूपमें बनाई । जिससे पूजा प्रेमी प्रभु भकोंको प्रभुके सन्मुख पूजा पढते पढ़ाते हुए उन्ही पूजाद्वारा पदपदार्थोंका बोध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com