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सर्व ब्रह्म अनगारको, देश गृही अधिकार । मुख्य गौणके भेदसे, लौकिकमें परचार ॥२॥ पर परिणतिका त्यागना, निश्चय ब्रह्म कहाय । नर नारीके मिथुनका, नय व्यवहार गिनाय ॥३॥ निश्चय सिद्धिके लिये, आवश्यक व्यवहार । व्यवहारे नव वाड हैं, नरनारी हितकार ॥ ४ ॥ आत्मबली नहि कैद है, तस नहि वाड विचार । स्थूल भद्र जंवू मुनि, विजय सेठ अधिकार ॥ ५ ॥
(मालकोंस । त्रिताला।) प्रभु वीतराग उपदेश सार,
सुन संघ चतुरविध हृदय धार ॥ प्र० अं० ॥ दोष अविरतिपन जो कीने, कामविषय बहुविध चित्त दीने।' _ब्रह्मचारी दे उसे विसार ॥ प्रभु वीतराग० ॥१॥ मणिधर जिम कंचुकको उतारी, इच्छे नहीं फिर दूसरी वारी
तिम मुनि मनसे भोग छार ॥ प्रभु वीतराग०॥२॥ नाग अगंधन कुलका कहावे, पीवे न वमन किया जलजावे।
मुनि ऐसे मन लेवे धार ॥ प्रभु वीतराग० ॥३॥ पूरव क्रीडित मन नवि लावे, ज्ञान ध्यान मन भावना भावे।
उत्तम ब्रह्मचारी आचार ॥ प्रभु वीतराग० ॥४॥ आतम लक्ष्मी संपद पावे, वल्लभ मनमें अति होवे ।
छट्ठी शुद्ध मन पार वार ॥ प्रभु वीतराग० ॥५॥
१ सर्प । २ कुंज-कोचली।
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