Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई रचयिता कविवर बुधजन सम्पादक सौभाग्यमल जैन, जयपुर प्रकाशक पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर (राजस्थान ) ३०२०१५ फोन : (०१४१) २७०५५८१, २७०७४५८; फैक्स: २७०४१२७ E-mail: ptstjaipur@yahoo.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण :१ हजार (दिनांक २६ जनवरी २००७) प्रस्तुत प्रकाशन की कीमत कम करनेवाले दातारों की सूची १. डॉ. सुदर्शन शाह, गुलबर्गा १००१.०० २. श्री मुलतान दिगंबर जैन समाज, जयपुर १०००.०० ३. श्री डूंगरमलजी जैन, उदयपुर |४. श्री शांतिनाथजी सोनाज, अकलूज ५०१.०० कुल राशि : ३५०२.०० मूल्य : ७ रुपये पृष्ठ क्रमांक प्रकाशकीय पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर के माध्यम से बुधजन सतसई का प्रकाशन करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। भारतीय हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन कवियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पन्द्रहवीं से अठारहवीं शताब्दी के काल में प्रचुर मात्रा में जैन साहित्य का निर्माण हुआ है। रीतिकाल के प्रमुख कवियों में कविवर द्यानतराय, भूधरदास, दौलतराम, भागचन्द्र, बुलाकीदास, आनन्दघन तथा बुधजनजी प्रमुख स्थान रखते हैं। कविवर बुधजनजी जिनका वास्तविक नाम भदीचन्दजी था, जयपुर निवासी खण्डेलवाल जाति के थे। आपकी प्रमुख रचनाओं में तत्त्वार्थबोध, पंचास्तिकायसंग्रह, बुधजन विलास, छहढाला तथा बुधजन सतसई प्रमुख हैं। 'बुधजन सतसई' अनेक वर्षों से अप्राप्य थी; अत: इसके प्रकाशन का निर्णय ट्रस्ट द्वारा लिया गया और इसके सम्पादन का दायित्व श्री सौभाग्यमलजी जैन को सोंपा गया, जिसे उन्होंने बहुत ही लगन से सम्पन्न किया। इस कृति के पाठभेद, कठिन शब्दों के अर्थ, अशुद्धि संशोधन आदि कार्य निस्पृह भावना से श्री सौभाग्यमलजी ने ही किये हैं, अन्य साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन में भी आपका सदैव सहयोग मिलता रहता है। इसके लिए टस्ट उनका हृदय से आभारी है। पुस्तक की विषयवस्तु के सम्बन्ध में सम्पादकजी ने अग्रिम पष्ठों में विस्तार से लिखा है जो दृष्टव्य है। इस कृति की लेजर टाइपसैटिंग का कार्य श्री श्रुतेश सातपुते शास्त्री डोणगाँव ने मनोयोगपूर्वक किया है, अत: वे धन्यवाद के पात्र हैं। पुस्तक की मुद्रण व्यवस्था में विभाग के मैनेजर श्री अखिल बंसल का श्रम श्लाघनीय है। आप सभी इस कृति से लाभान्वित हों, ऐसी आशा है। - ब्र. यशपाल जैन, एम. ए. प्रकाशन मंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर (iii) अनुक्रमणिका प्रकरण का नाम १. देवानुरागशतक २. सुभाषित नीति ३. उपदेशाधिकार ४. विद्या प्रशंसा ५. मित्रता और संगति ६. जुआ निषेध ७. मांस निषेध ८. मद्य निषेध ९. वेश्या निषेध १०. शिकार की निंदा ११. चोरी निंदा १२. परस्त्रीसंग निषेध १३. विराग भावना १४. समता और ममता १५. अनुभव प्रशंसा १६. गुरु प्रशंसा (१७. कवि प्रशस्ति टाईपसैटिंग : त्रिमूर्ति कम्प्यूटर्स ए-४, बापूनगर, जयपुर 33333331 30 ० ०nrm मुद्रक: प्रिन्ट 'ओ लैण्ड बाईस गोदाम, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय बुधजन सतसई (काव्यमय) ग्रन्थ का प्रकाशन पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर जैसी प्रभावी संस्था से होना अपने आप में गौरव का विषय है। इस ग्रन्थ में पण्डित बुधजनजी के बनाये हुये सात सौ दोहों का संग्रह है, जिसका संशोधन पंडित नाथूरामजी प्रेमी साहब ने किया था। यह ग्रंथ पूर्व में जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय मुंबई से छप चुका है। आध्यात्मिक भजन संग्रह का प्रकाशन सितम्बर २००६ में जब पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से हुआ था, उस समय पण्डित बुधजनजी का जीवन-चरित्र लिखते समय बुधजन सतसई ब्र. यशपालजी जैन के देखने में आई और उसमें संग्रहीत कुछ दोहों को उन्होंने पढ़ा । उन्हें पढ़कर उनकी भावना हुई कि इस ग्रन्थ का पठन-पाठन समाज में होना चाहिये। उन्होंने मुझसे पूछा कि इस ग्रन्थ की प्रतियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं या नहीं ? मैंने उनको इसकी प्रतियाँ वर्तमान में उपलब्ध न होने की बात कही तो उन्होंने मुझसे तत्काल कहा कि यह ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिये । उसी समय यह कार्य करने के लिये उन्होंने मुझसे कहा। मैंने इस ग्रन्थ को पहले अनेक बार पढ़ा था. इसमें कई शब्द ठेठ जयपरी भाषा के हैं। उन शब्दों का अर्थ वर्तमान में समझने में कठिनाई आती थी। इसके बारे में ब्रह्मचारीजी का सुझाव रहा कि ऐसे शब्दों का अर्थ प्रत्येक पृष्ठ के नीचे फुटनोट में दे दिया जाये, जिससे पढ़नेवालों को सुविधा होवे। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर आदरणीय प्रेमीजी ने प्रश्नचिह्न ?' लगा रखे थे। मैंने इस विषय में ब्रह्मचारीजी से कहा तो उन्होंने हस्तलिखित प्रति की फोटोस्टेट श्री विनयचंदजी पापड़ीवाल से मंगवाकर मुझे दी। मैंने जहाँ-जहाँ ऐसे प्रश्नवाचक ?' निशान थे, वहाँ-वहाँ फोटोस्टेट प्रति में पढ़ा। उनमें से कुछ स्थानों पर श्री प्रेमीजी की बनाई हुई प्रति में जो कमी थी, उसको उससे पूरा किया और कुछ स्थानों पर समझ में नहीं आया, वहाँ आदरणीय प्रेमीजी की शैली के अनुसार वैसे ही ?' निशान लगा दिये हैं। विद्वान पाठकगण उन स्थानों का अर्थ समझकर पढ़ने का कष्ट करें। मैंने अपनी अत्यन्त तुच्छ बुद्धि के अनुसार कठिन शब्दों के जो अर्थ लिखे हैं, उनमें कहीं भूल प्रतीत हो तो विद्वान पाठक गण उन्हें सुधार कर पढ़ने का कष्ट करें और प्रकाशन विभाग पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर को सूचित करने का अवश्य कष्ट करें, ताकि भविष्य में जब भी दुबारा यह ग्रन्थ छपे, उसमें सुधार कर लिया जावे। -सौभाग्यमल जैन, सी-१०७, सावित्री पथ, राजेंद्र मार्ग, बापूनगर, जयपुर (राज.) ३०२०१५ कविवर बुधजनजी का संक्षिप्त जीवन परिचय कविवर बुधजनजी जिनका कि दूसरा नाम भदीचन्दजी था, जयपुर निवासी थे। आपके पिता का नाम निहालचन्दजी था और आपका गोत्र बज तथा जाति खण्डेलवाल थी। आपकी जन्मतिथि के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चला है। आपने विद्या अध्ययन पण्डित मांगीलालजी के पास किया था, जो जयपुर में किशनपोल बाजार में टिक्कीवालों के रास्ते में रहते थे। आप दीवान अमरचन्दजी के मुख्य मुनीम थे। दीवानजी प्रायः अपने खास कार्य इनके मार्गदर्शन में ही कराया करते थे। एक बार दीवानजी ने आपको एक जैन मन्दिर बनवाने को कहा। आपने आज्ञा पाते ही एक की जगह दो जैन मन्दिर बनवाना प्रारम्भ करा दिया और दीवान साहब ने उनसे दोनों जैन मन्दिरों में दिल खोलकर काम कराने को कहा। दोनों जैन मन्दिरों के तैयार होने पर उनका पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सम्वत् १८६४ में बड़े धूमधाम से हुआ। जिनमें से एक मन्दिर तो छोटे दीवानजी के नाम से प्रख्यात है। दूसरे मन्दिर पर दीवानजी कविवर का नाम लिखवाना चाहते थे, परन्तु कविवर का कहना था कि इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, आपका ही नाम लिखा जाना चाहिये; परन्तु दीवानजी ने उसपर भदीचन्दजी का ही नाम लिखवाया और इसी नाम से उसे विख्यात किया। आपने इस मन्दिर की दीवार पर यह उपदेश खुदवाया था - १. समय पाय चेत भाई, २. मोह तोड़, विषय छोड़, ३. भोग घटा। कविवर बुधजनजी उच्च कोटि के पण्डित थे। आपकी शास्त्र पढ़ने की तथा शंका समाधान करने की शैली बहुत ही श्रेष्ठ तथा रुचिकर थी। आपकी शास्त्रसभा में अन्य मतावलम्बी भी आते थे। आप उनकी शंकाओं का निवारण भलीभाँति करते थे। आप उच्च कोटि के कवि थे। आपकी कविता का विषय भव्य प्राणियों को जैनधर्म के सिद्धान्त समझाना तथा विषय-प्रवृत्ति के मार्ग से हटाकर सुखद निवृत्ति मार्ग में लगाना था। (iv) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके बनाये हये सभी ग्रंथ छन्दोबद्ध हैं। उन ग्रन्थों के नाम हैं - १. तत्त्वार्थबोध, २. बुधजन सतसई, ३. पंचास्तिकायसंग्रह, ४. बुधजनविलास। ये चारों ग्रन्थ क्रम से विक्रम सम्वत् १८७१, १८७९, १८९१, १८९२ में लिखे थे। इसके अलावा आपने छहढाला नामक ग्रन्थ की भी रचना की, जिससे प्रेरणा पाकर ही कविवर पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला लिखी, जो अधिक प्रचलित हुई। पण्डित दौलतरामजी ने अपनी छहढाला में इसका स्वयं उल्लेख किया है इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शकल वैशाख । कस्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि 'बुधजन' की भाख । प्रचलित कवि वृन्द, रहीम, तुलसीदास, कबीर आदि स्वनामधन्य कवियों के दोहों से इनके दोहे किसी भी अंश में कम नहीं हैं। बुधजन सतसई की विषय-वस्तु - प्रस्तत सम्पूर्ण कति दोहा नामक छन्द में पद्यबद्ध है। इसमें कुल ७०२ छन्द हैं। इस कृति का प्रारंभ कविवर पण्डित बुधजनजी ने 'देवानुरागशतक' से किया है। जैसा कि इस प्रकरण के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें १०० दोहा छंदों के माध्यम से जिनेन्द्र देव का स्तवन किया गया है। दूसरा प्रकरण 'सुभाषित नीति' है, जिसमें २०० दोहों के माध्यम से 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करते हुये अत्यन्त कम शब्दों में नीति को प्रस्तुत किया गया है। इसके पश्चात् १२३ दोहों में 'उपदेशाधिकार' निबद्ध है; तथा 'विद्या प्रशंसा', 'मित्रता और संगति' - इसप्रकार के दो छोटे प्रकरण हैं, जिनका विषय नाम से ही स्पष्ट होता है। आगामी लघु प्रकरणों में जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्रीसंग - इन सात व्यसनों का निषेध किया गया है। 'विराग भावना' द्वारा वैराग्य भावना को प्रस्तुत कर 'समता और ममता' द्वारा ममता को छोड़ समता धारण करने का उपदेश दिया गया है। 'अनुभव प्रशंसा' में आत्मानुभव की प्रशंसा करते हये 'गरु प्रशंसा' नामक प्रकरण में गुरु की महिमा का बखान किया गया है। तथा अन्त में 'कवि प्रशस्ति' में रचना काल-स्थान का वर्णन करते हुये मंगल भावना भायी गई है। - सौभाग्यमल जैन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। बुधजन-सतसई देवानुरागशतक (दोहा) सन्मतिपद सन्मतिकरन', बन्दों मंगलकार। वरनो बुधजन सतसई, निजपरहितकरतार ।।१।। परमधरमकरतार हो, भविजनसुखकरतार । नित बंदन करता रहूँ, मेरा गहि कर तार' ।।२।। परूं पगतरे आपके, पाप पगतरे दैन । हरो कर्मको सब तरह', करो सब तरह चैन ।।३।। सबलायक ज्ञायक प्रभू, घायक कर्मकलेश । लायक जानिर नमत हैं, पायक भये सुरेश ।।४।। न तोहि कर जोरिके, शिव-वनरी कर जोरि । बरजोरी २ विधिकी हरो, दीजे यो वर जोरि ।।५।। तीन कालकी खबरि तुम, तीन लोकके तात । त्रिविधिशुद्धवंदनकरूं, त्रिविधितापमिटिजात ।।६।। १. श्री वर्धमान तीर्थकर के चरण, २.अच्छी बुद्धि या सम्यज्ञान के करनेवाले, ३. पकड़कर, ४. हाथ, ५. तार दो, ६. चरणों में, ७. नष्ट करने के लिये, ८. सर्व प्रकार से, ९. जान करके, १०. सेवक, ११. मोक्षरूपी दुल्हन से पाणिग्रहण कराइये, १२. जबर्दस्ती, १३. वरदान १४. जानते हो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानुराग शतक बुधजन सतसई तीन लोक के पति प्रभू, परमातम परमेश। मन-वच-तनते नमत हूँ, मेटो कठिन कलेश ।।७।। पूजूं तेरे पाँयकू, परम पदारथ जान । तुम पूजेतें होत हैं, सेवक आप समान ।।८।। तुम समान कोउ आन नहिं, नमूं जाय कर नाय। सुरपति नरपति नागपति, आय परें तुम पाँय ।।९।। तुम अनंतगुन मुखथकी', कैसे गाये जात। इंद मुनिंद फनिंद हू, गान करत थकि जात ।।१०।। तुम अनंत महिमा अतुल, यों मुख करहूं गान । सागर जल पीत न बनें, पीजे तृषा समान ।।११।। कह्या विना कैसे रहूं, मौसर मिल्यो अबार । ऐसी विरियां टरि गया', कैसे बनत सुधार ।।१२।। जो हूं कहऊं और तें, तो न मिटे उरझार । मेरी तो तोसों बने, तातें करूं पुकार ।।१३।। आनंदघन तुम निरखिके, हरषत है मन मोर । दूर भयो आताप सब, सुनिके मुख की घोर ।।१४।। आन थान अब ना रुचे, मन राच्यो तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायके, गहे काच को हाथ ।।१५।। चंचल रहत सदैव चित्त, थक्यो न काहू ठोर । अचल भयो इकटक अबे, लग्यो रावरी ओर ।।१६।। मन मोह्यो मेरो प्रभू, सुन्दर रूप अपार । इन्द्र सारिखे थकि रहे, करि करि नैन हजार ।।१७।। १. मुख से, २. सागर का पानी पिया नहीं जा सकता, ३. अवसर-मौका, ४. इस समय, ५. यदि इस समय नहीं कहूँगा तो ६. मैं, ७. दिव्यध्वनि, ८. कौन, ९. आपकी जैसें भानुप्रतापते, तम नाशे सब ओर । तैसे तुम निरखत नश्यो संशय-विभ्रम मोर ।।१८।। धन्य नैन तुम दरस लखि, धनि मस्तक लगि पाँय । श्रवन धन्य वानी सुने, रसना धनि गुन गाय ।।१९।। धन्य दिवस धनि या घरी, धन्य भाग मुझ आज । जनम सफल अब ही भयो, बंदत श्रीमहाराज ।।२०।। लखितुमछबिचितचोर को, चकित थकितचितचोर। आनंद पूरन भरि गयो, नाहिं चाहि रहि और ।।२१।। चित चातक आतुर लखे, आनंदघन तुम ओर । वचनामृत पी तृप्त भयो, तृषा रही नहिं और ।।२२।। जैसो वीरज आपमें, तैसो कहूँ न और। एक ठोर राजत अचल, व्याप रहे सब ठौर ।।२३।। यो अद्भुत ज्ञातापनो, लख्यो आपकी जाग' । भली बुरी निरखत रहो, करो नाहिं कहुं राग ।।२४।। धरि विशुद्धता भाव निज, दई असाता खोय । क्षुधा तृषा तुम परिहरी, जैसे करिये मोय ।।२५।। त्यागि बुद्धि परजाय की, लखे सर्व समभाय । राग दोष तत्क्षण टस्यो, राचे सहज सुभाय ।।२६।। मोह ममता वमता भया, समता आतमराम । अमर अजन्मा होय शिव, जाय लह्यो विसराम ।।२७।। हेत प्रीति तबसो तजी, मगन निजातममाहिं। रोग शोक अब क्यों बने, खाना पीना नाहिं ।।२८।। १. पराक्रम से, २.कान, ३. मनमोहक, ४. वीर्य, ६. पर्यायबुद्धि को, ७. सबको एक भाव से, ८. उसी समय, ९. नष्ट हो गया, १०. छोड़कर, ११. राग, १२. खेद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानुराग शतक बुधजन सतसई जागि रहे निज ध्यान में, धरि धीरज बलवान । आवे किम निद्रा जरा, निरखेदक भगवान ।।२९।। जातजीवते अधिक बल, सुथिर सुखी निजमाहिं। वस्तु चराचर लखि लई, भय विस्मय यों नाहिं ।।३०।। तत्त्वारथसरधान धरि, दीना मोह विनाश । मान हान कीना प्रगट, केवलज्ञानप्रकाश ।।३१।। अतुल शक्ति परगट भई, राजत हैं स्वयमेव । खेद स्वेद विन थिर भये, सब देवन के देव ।।३२।। परिपूरन हो सब तरह, करना रह्या न काज। आरत' चिन्ता रहित, राजत हो महाराज ।।३३।। वीर्य अनंता धरि रहे, सुख अनंत परमान । दरस अनंत प्रमानजुत, भया अनंता ज्ञान ।।३४।। अजर अमर अक्षय अनंत, अपरस अवरनवान । अरस अरूपी गंधविन, चिदानंद भगवान ।।३५।। कहत थके सुरगुर गुनी, मो मनमें किम मायँ । पै उरमें जितने भरे, तितने कहे न जायँ ।।३६।।' अरज गरजकी करत हूँ, तारन तरन सु नाथ । भवसागर में दुख सहूँ, तारो गहकरि हाथ ।।३७।। बीती जिती न कहि सकू, सब भासत है तोय। याही ते विनती करूं, फेरि न बीते मोय ।।३८।। २. खेदरहित, ३. संसारी जीवों से, ४. आश्चर्य, ५. पसीना, ६. दु:ख, ७. बल, ८. अस्पर्श, ९. वर्णरहित, १०. हृदय में, ११. जितनी वारण वानर बाघ अहि, अंजन भील चडार। जा विधी प्रभु सुखिया किया, सो ही मेरी बार ।।३९।। हूँ अजान जाने विना, फिस्यो चतुरगति थान । अब चरणा शरणा लिया, करो कृपा भगवान ।।४०।। जगजन की विनती सुनो, अहो जगतगुरुदेव।। जोलों हूँ जग में रहूँ, तोलों पाऊँ सेव ।।४१।। तुम तो दीननाथ हो, मैं हूँ दीन अनाथ । अब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ ।।४२।। बारंबारविनती करूँ, मन-वचनतें तोहि । परयो रहूँ तुम चरण में, सो बुधि दीजे मोहि ।।४३।। और नाहिं जाचूं प्रभो, ये ही वर दीजे मोहि । जोलों शिव पहुँचूं नहीं, तोलों सेऊ तोहि ।।४४।। या संसार असार में, तुम देखे हैं सार । और सकल राखे पकरि आप निकासनहार ।।४५।। या भववन अति सघन में, मारग दीखे नाहिं। तुम किरपा ऐसी करी, भास गयो मनमाहिं ।।४६।। जे तुम मारग में लगे, सुखी भये ते जीव । जिन मारग लीया नहीं, ते दुख लीन सदीव ।।४७।। और सकल स्वारथ-सगे, विनस्वारथ हो आप। पाप मिटावत आप हो, और बढ़ावत पाप ।।४८।। या अद्भुत समता प्रगट, आप माहिं भगवान । निंदक सहजे दुख लहे, बंदक लहे कल्यान ।।४९।। १. हाथी, २. चांडाल, ४. दिखाई दे गया Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानुराग शतक बुधजन सतसई तुम वानी जानी जिका', प्रानी ज्ञानी होय । सुर अरचे संचे सुभग, कलमष' काटे धोय ।।५०।। तुम ध्यानी प्रानी भये, सबमें मानी' होय । पुनि ज्ञानी ऐसे बने, निरख लेत सब लोय' ।।५१।। तुम दरसक देखें जगत, पूजक पूजें लोग। सेवें तिहि सेवें अमर, मिलें सुरग के भोग ।।५२।। ज्यों पारसतें मिलत ही, करि ले आप प्रमान । त्यों तुम अपने भक्त को, करि हो आप समान ।।५३।। जैसा भाव करे तिसा, तुमते फल मिलि जाय। तैसा तन निरखे जिसा, शीशा में दरसाय ।।५४।। जब अजान जान्यो नहीं, तब दुख लह्यो अतीव । अब जाने माने हिये, सुखी भयो लखि जीव ।।५५।। ऐसे तो कहत न बने, मो उर निवसो आय । तातें मोकू चरन तट, लीजे आप बसाय ।।५६।। तोसो और न ना मिल्यो, धाय थक्यो चहुँ ओर । ये मेरे गाढ़ी गड़ी', तुम ही हो चितचोर ।।५७।। बहुत बकत डरपत रहूँ, थोरी कही सुने न। तडफत दुखिया दीन लखि, ढीले रहे बने न ।।५८।। रहूं रावरो' सुजस सुनि, तारन-तरन जिहाज । भव बोरत राखें रहो, तोरी मोरी लाज ।।५९।। डूबत जलधि जिहाज गिरि, तारयो नृप श्रीपाल। वाही किरपा कीजिये, वोही मेरो हाल ।।६०।। तोहि छोरिके आनकू, नमूं न दीनदयाल । जैसे तैसे कीजिये, मेरो तो प्रतिपाल ।।६१।। बिन मतलब बहुते अधम, तारि दिये स्वयमेव । त्यों मेरो कारज सुगम, कर देवन के देव ।।६२।। निंदो भावो' जस करो, नाहीं कछु परवाह । लगन लगी जात न तजी, कीजो तुम निरबाह ।।६३।। तुम्हें त्यागि और न भजूं सुनिये दीनदयाल । महाराज की सेव तजि, सेवे कौन कँगाल ।।६४।। जाछिन" तुम मन आ बसे, आनंदघन भगवान । दुख दावानल मिट गयो, कीनों अमृतपान ।।६५।। तो लखि उर हरषत रहूं, नाहिं आनकी चाह । दीखत सर्व समान से, नीच पुरुष नरनाह ।।६६।। तुममें मुझमें भेद यह, और भेद कछु नाहिं । तुम तन तजि परब्रह्म भये, हम दुखिया तनमाहिं ।।६७।। जो तुम लखि निजको लखे लक्षण एक समान । सुथिर बने त्यागे कुबुधि, सो है हे भगवान ।।६८।। जो तुमते नाहीं मिले, चले सुछंद मदवान । सो जगमें अविचल भ्रमे, लहें दुखांकी खान ।।६९।। १. वैसे ही, २. छोड़कर, ३. अथवा, ४. प्रशंसा, ५. जिस क्षण, ८. मानी, ९. दु:खों की १. जिन्होंने, ५. लोक, ९. आपका, २. पाप, ६. दर्पण में, १०. डूबते ३. पूज्य, ७. पूर्ण निश्चय हो गया, ४. फिर, ८. कहते, ६.राजा, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानुराग शतक बुधजन सतसई पार उतारे भविक बहु, देय धर्म उपदेश । लोकालोक निहारिके, कीनो शिव परवेस' ।।७०।। जो जांचे सोई लहे, दाता अतुल अछेव'। इंद नरिंद फनिंद मिलि, करे तिहारी सेव ।।७१।। मोह महा जोधा प्रबल, औंधा राखत मोय । याकों हरि सूधा करो, शीश नमाऊं तोय ।।७२।। मोह-जोर को हरत हैं, तुम दरसन तुम बैन । जैसे सर शोषण करे, उदय होय के ऐन ।।७३।। भ्रमत भवार्णव' में मिले, आप अपूरव मीत । संशय नाश्या दुख गया, सहजे भया नचीत ।।७४।। तुम माता तुम ही पिता, तुम सजन सुखदान । तुम समान या लोक में, और नाहिं भगवान ।।७५।। जोग अजोग लखो मती', मो व्याकुलके वैन । करुना करिके कीजियो, जैसे तैसे चैन ।।७६ ।। मेरी अरजी तनक सी, बहुत गिनोगे नाथ । अपनो विरद विचारिके, डूबत गहियो हाथ ।।७७।। मेरे औगुन जिन गिनो, मैं औगुन को धाम। पतित उधारक आप हो, करो पतित को काम ।।७८।। सुनी नहीं औ—१२ कहूं, विपति रही है घेर । औरनिके कारज सरे, ढील कहा मो बेर ।।७९।। १. मुक्ति में, २. प्रवेश, ३. अपार, ४. उल्टा , ५. सूर्य के उदय होने पर गर्मी से तालाब सूख जाता है। ६. संसार समुद्र में, ७. निश्चिन्त-बेफिक्र, ९. मुझ दुःखी के. १०. पकड़िये, ११. मत, १२.फिर सार्थवाहि विन ज्योंपथिक, किमि पहुंचे परदेश। त्यों तुमतें करि हैं भविक, शिवपुरमें परवेश ।।८०।। केवल निर्मलज्ञान में, प्रतिबिंबित जग आन । जनम मरन संकट हस्यो भये आप रतध्यान ।।८१।। आप मतलबी ताहितें, कैसे मतलब होय । तुम विन मतलब हो प्रभू, कर हो मतलब मोय ।।८२।। कुमति अनादि संगि लगी, मोह्यो भोग रचाय । याको कोलों दुख सहूं, दीजे सुमति जगाय ।।८३।। भववनमाहीं भरमियो, मोह नींद में सोय । कर्म ठिगोरे ठिगत हैं, क्यों न जगावो मोय ।।८४।। दुख दावानल में जलत, घने कालको जीव । निरखत ही समता मिली, भली सुखांकी सीव ।।८५।। मोह ममत दुखदा तिनें, मानत हूँ हितवान । मो मनमाहीं उलटि या, सुलटावो भगवान ।।८६।। लाभ सर्व साम्राज्य का वेदयता तुम भक्त । हित अनहित समझे नहीं, तातें भये असक्त ।।८७।। विनयवान सर्वस लहे, दहे गहे जो गर्व । आप आपमें हो तदपि, व्याप रहे हो सर्व ।।८८।। मैं मोही तुम मोह विन, मैं दोषी तुम शुद्ध । धन्य आप मो घट बसे, निरख्यो नाहिं विरुद्ध ।।८९।। ८. मत, १. साथी, ४. सीमा-हद ७. उल्टी बुद्धि, २. कब तक, ५. दुःख देनेवाली, ८.सर्वस्व ३. ठग, ६. उसको, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई सुभाषित नीति (दोहा) मैं तो कृतकृत अब भया, चरन शरन तुम पाय। सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हिये न समाय ।।१०।। मोहि सतावत मोह जुर, विषम अनादि असाधि । वैद्य अत्तार हकीम तुम, दूरि करो या व्याधि ।।११।। परिपूरन प्रभु विसरि तुम, नमूं न आन कुठोर । ज्यों त्यों करि मो तारिये, विनती करूँ निहोर ।।१२।। दीन अधम निरबल रटे, सुनिये अधम उधार । मेरे औगुन मत लखो, तारो विरद चितार ।।९३।। करुनाकर परगट विरद, भूले बनि है नाहिं। सुधि लीजे सुध कीजिये, दृष्टि धार मो-माहिं ।।१४।। एही वर मो दीजिये, जांचं नहिं कुछ और। अनिमिष दृग निरखत रहूं, शान्त छबिचितचोर' ।।१५।। यादि हियामें नाम मुख, करो निरन्तर बास। जोलों बसवो जगत में, भरवो तनमें साँस ।।९६।। मैं अजान तुम गुन अनंत, नाहीं आवे अंत । बंदत अंग नमाय वसु, जावजीव-परजंत ॥९७।। हारि गये हो नाथ तुम, अधम अनेक उधारि । धीरे धीरें सहज में, लीजे मोहि उबारि ।।१८।। आप पिछान विशुद्ध है, आपा कह्यो प्रकाश । आप आपमें थिर भये, बंदत बुधजनदास ।।१९।। मन मूरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल दीजिये, पस्यो रहूं तुम धाम ।।१०।। ॥ इति देवानुराग शतक।। २. मुझको, ४. पलक रहित, ५. मनमोहक, ६. जब तक जीवन रहे तबतक अलपथकी फल दे घना, उत्तम पुरुष सुभाय। दूध झरेतॄनको चरे, ज्यों गोकुल की गाय ।।१०१।। जेता का तेता करे, मध्यम नर सनमान । घटे बढ़े नहिं रंचहू, धस्यो कोठरे धान ।।१०२।। दीजे जेता ना मिले, जघन पुरुष की बान । जैसे फूटे घट धस्यो, मिले अलप पय थान ।।१०३।। भला किये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय । पय पीये विष देत है, फणी महा दुखदाय ।।१०४।। सहे निरादर दुरवचन, मार दण्ड अपमान । चोर चुगल परदार रत, लोभी लबार' अजान ।।१०५।। अमर हारि सेवा करें, मानस की कहा बात । सो जन शील संतोषजुत, करे न परको घात ।।१०६।। अगनि चोर भूपति विपति, डरत रहे धनवान । निर्धन नींद निशंक ले, माने न काकी' हान ।।१०७।। एक चरन हू नित पढ़े, तो काटे अज्ञान । पनिहारीकी नेजसो', सहज कटे पाषान ।।१०८।। पतिव्रता सतपुरुष का, गाढा धीर सुभाव । भूख सहे दारिद सहे, करे न हीन' उपाव ||१०९।। १.स्टोर में अनाज, २. दूध, ३. पिलाने से, ४. सर्प, ५.झूठा, ६. किसी से, ७. हानि, ८. रस्सीसे, ९.अयोग्य, १०.कार्य १. कृतकृत्य, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) बुधजन सतसई बैरकरो वा हित करो, होत सबलतें हारि । मीत भये गौरव घटे, शत्रु भये दे मारि । । ११० ।। जाकी प्रकृति करूर अति, मुलकत होय लखै न । भजे सदा आधीन परि, तजे जुद्ध में सैन । । १११ । । शिथिल वैन ढाढस विना, ताकी पैठ बने न । ज्यों प्रसिद्ध रितु सरद को, अम्बर' नेकु' झरे न' ।। ११२ ।। जतन थकी नर को मिले, विना जतन लें आन । वास भरि नर पीत हैं, पशु पीवें सब थान ।। ११३ ।। झूठी मीठी तनकसी, अधिकी मानें कौन । अनसरते' बोलो इसो, ज्यों आटे में नौन ।। ११४ । । ज्वारी विभिचारीनितें, डरे निकसतें गैल । मालनि ढांके टोकरा, छूटे लखिके छैल ।।११५ ।। औसर" लखिये बोलिये, जथाजोगता वैन । सावन भादौं बरसतें, सब ही पावें चैन ।।११६ ।। बोलि उठे औसर विना, ताका रहे न मान । जैसे कातिक वरसतें, निंदे सकल जहान । । ११७ । । लाज का खरचे दरब, लाज काज संग्राम । लाज गये सरवरस गयो, लाज पुरुष की माम ।। ११८ । । आरंभ्यों पूरन करे, कह्या वचन निरबाह । धीर सलज सुन्दर रमें, येते गुन नरमाह । । ११९ ।। ३. जरा भी, ४. बरसते नहीं हैं, ७. बरतन, ८. काम नहीं चल सकता, ११. उचित, १२. इज्जत १. विश्वास, ५. मनुष्य को, ९. नमक, २. बादल, ६. अन्य, १०. समय सुभाषित नीति उद्यम साहस धीरता, पराक्रमी मतिमान | एते गुन जा पुरुष में, सो निरभय बलवान ।। १२० ।। रोगी भोगी आलसी, बहमी हठी अज्ञान । ये गुन दारिदवान के, सदा रहत भयवान ।। १२१ । । अछती' आस विचारिके, छती देत छिटकाय । अछती मिलवो हाथ नहिं, तब कोरे रह जाय ।। १२२ ।। विनय भक्ति कर सबल की, निबल गोर सम भाय । हितू होय जीना भला, बैर सदा दुखदाय ।।१२३।। नदी तीर का रूखरा, करि^ विनु अंकुश नार । राजा मंत्रीतें रहित, विगरत लगे न वार ।।१२४ ।। महाराज महावृक्ष की, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल लाभे' न तो, छाया तो रह जाय ।। १२५ ।। अति खानेतें रोग है, अति बोले जा मान । अति सोये धनहानि है, अति मति करो सयान" ।। १२६ ।। झूठ कपट कायर अधिक, साहस चंचल अंग । गान सलज आरंभनिपुन, तिय न तृपति रतिरंग ।। १२७ ।। दुगुण छुधा लज चौगुनी, षष्ठ गुनो विवसाय । काम व गुनो नारिके, वरन्यो सहज सुभाय ।।१२८ ।। पति चित हित अनुगामिनी, सलज शील कुलपाल । या लछमी" जा घर बसे, सो है सदा निहाल ।। १२९ ।। १. शक्की - संदेह करनेवाला, ४. वृक्ष, ७. देर, १०. सुजान, २. जी मौजूद नहीं है, ५. हाथी. ८. प्राप्त न हो तो. ११. स्त्री ३. गाय के, ६. बिगड़ते, ९. जाता है. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित नीति बुधजन सतसई कूर कुरूपा कलहिनी, करकस बैन कठोर । ऐसी भूतनि भोगिवो बसिवो नरकनि घोर ।।१३०।। वरज्ये कुलकी बालिका, रूप कुरूप न जोय । रूपी अकुली परणतां', हीन कहे सब कोय ।।१३१।। विपति धीर रन विक्रमी, संपति क्षमा दयाल । कलाकुशल कोविद कवी, न्याय नीति भूपाल ।।१३२।। सांच झूठ भाषे सुहित, हिंसा दयाभिलाख । अति आमद अति व्यय करे, ये राजनिकी साख ॥१३३।। सुजन सुखी दुरजन डरें, करें न्याय धन संच। प्रजा पलें पख ना करें, श्रेष्ठ नृपति गुन पंच ।।१३४।। काना ढूंठा पाँगुला, वृद्ध कू बरा अंध । बेवारिस पालन करें, भूपति रचि परबंध ।।१३५।। कृपनबुद्धि अत्युग्रचित, झूठ कपट अदयाल । ऐसा स्वामी सेवतें, कदे न होय निहाल ।।१३६।। अहंकारी व्यसनी हठी, आलसवान अज्ञान । भृत्य न ऐसा राखिये, करे मनोरथहान ।।१३७।। नृप चाले ताही चलन, प्रजा चले वा चाल । जा पथ जा गजराज तहँ, जात जूथ ५ गजवाल ।।१३८।। १. भूतनी, २. विवाह करना, ३. देखकर, ४. नीच कुल की, ५. ब्याहने से, ६. कवि, ८. बिना हाथों का, ९. क्रोधी, १०. कभी-कभी, ११. अहंकारी-घमंडी, १२. आलसी, १३. दास-नौकर, १४. वही, १५. समूह सूर सुधीर पराक्रमी, सब वाहन असवार । जुद्धचतुर साहसि मधुर, सेनाधीश उदार ।।१३९।। निरलोभी सांचो सुघर', निरालसी मति धीर। हुकमी उदमी चौकसी, भंडारी गंभीर ।।१४०।। निरलोभी सांचो निडर, सुध" हिसाब करतार । स्वामि काम निरआलसी', नोसिंदा हितकार ।।१४१।। दरस परस पूछे करे, निरनै रोग रु आय। पथ्यापथ में निपुन चिर, वैद चतुर सुखदाय ।।१४२।। जुक्त सोच पाचक मधुर, देश काल वय जोग। सूपकार भोजनचतुर, बोले सत्य मनोग ।।१४३।। मूढ़ दरिद्री आयु लघु, व्यसनी लुब्ध करूर। नाधिपती ? नहिं दीजिये, जाका मन मगरूर ।।१४४।। सीख सरलकों दीजिये, विकट मिलें दुख होय । बया"सीख कपिकों दई, दिया घोंसला खोय ।।१४५।। अपनी पख नहिं तोरिये, रचि रहिये करि चाहि । ऊगैं तंदुल तुष सहित, तुष विन ऊगैं नाहिं ।।१४६।। अति लोलुप आसक्तके, विपदा नाही दूर । मीन मरे कंटक फँसे, दौरि मांस लखि कूर ।।१४७।। १. अच्छे घराने का, ४. रक्षा करनेवाला, आलस्य रहित ८. देखकर, ११. आयु, का जानकार, १५. बया नाम के पक्षी ने, २. आज्ञाकारी, ३. पुरुषार्थी, ५. सही, ६. मालिक के कार्य में ७. जमा-खर्च का हिसाब लिखनेवाला, ९.स्पर्श करके, १०.निर्णय करनेवाला, १२. खाने-पीने के पदार्थों के बारे में योग्य-अयोग्य १३. वैद्य, १४. रसोइया, १६. पक्ष Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित नीति बुधजन सतसई आवत उठि आदर करे, बोले मीठे बैन । जातें हिलमिल बैठना, जिय पावे अति चैन ।।१४८।। भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार । मधुर बोल यश लीजिये, नातर' अयश तयार ।।१४९।। सेय जती के भूपती, वसि वन के पुर बीच । या विन और प्रकारतें, जीवातें वर मीच ।।१५०।। घनो सुलप' आरंभ रचि, चिगें नाहिं चित धीर । सिंह ऊठके ना मुरे, करे पराक्रम वीर ।।१५१।। इंद्री पंच संकोचिके, देश काल वय पेखि । बकवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर विसेखि ॥१५२।। प्रात: उठि रिपुतें लरे, बांटे बंधुविभाग । रमनि रमनमें प्रीति अति, कुरकट ज्यों अनुराग ।।१५३।। गूढ मईथुन चख चपल, संग्रह सजें निधान । अविश्वासी परमादच्युत, वायस ज्योंमतिवान ॥१५४।। बहुभ्यासी संतोषजुत, निद्रा स्वलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यों, चितवत स्वामी हेत ।।१५५।। बहे भार ज्यों आदस्यो, सीत उष्ण क्षत देह । सदा संतोषी चतुर नर, ये रासभ५ गुन लेह ।।१५६।। टोटा लाभ संताप मन, घरमें हीन चरित्र । भयो कदा अपमान निज, भाषे नाहिं विचित्र ।।१५७।। कोविद रहे संतोषचित, भोजन धन निज दार। पठन दान तप करनमें, नाहीं तृपति लगार ।।१५८।। विद्या संग्रह धान धन, करत हार व्योहार । अपनो प्रयोजन साधते, त्यागें लाज सुधार ।।१५९।। दोय विप्रमधि होम पुनि, सुंदर जुग भरतार । मंत्री नृप मसलत करत, जातें होत विगार ।।१६०।। वारि अगनि तिय मूढजन, सर्प नृपति रुज देव । अंत प्रान नाशे तुरत, अजतन करते सेव ।।१६१।। गज अंकुश हय चाबुका', दुष्ट खड़ग गहि पान । लकड़ीतें शृंगीनकू, वसि राखें बुधिवान ।।१६२।। वसि करि लोभी देय धन, मानी को कर जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ।।१६३।। भूपति वसि लै अनुगमन, जोवन तन धन नार । ब्राह्मण वसि है वेदतें, मिष्टवचन संसार ।।१६४।। अधिकसरलता सुखद नहिं, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बाँके खड़े हजार ।।१६५।। १. आने पर, ४. मृत्यु, ७. बगुले के समान, १०. मैथुन, १३. चतुर, २. नहीं तो, ५. थोड़ा, ८. विशेष, ११. चक्षु, १४. कुत्ते के समान, ३. जीने से, ६. पीछे नहीं देखता, ९. कुक्कुट-मुर्गा, १२. कौवे, १५. गधा १.यहाँ विचित्र से विचक्षण-बुद्धिमान का अभिप्राय है, ३. अपनी पत्नी, ४. किंचित भी, ६. अयत्न से-बिना विचारे, ७. घोड़े को, ९. सींगवालों को, १०. अनुसार, १२. वृक्ष २. बुद्धिमान, ५. रोग, ८. चाबुक से, ११. जंगल, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित नीति बुधजन सतसई जो सपूत धनवान जो, धनजुत हो विद्वान । सब बांधव धनवान के, सरव मीत धनवान ।।१६६।। नहीं मान कुलरूप को, जगत मान धनवान । लखि बँडाल के विपुल धन, लोक करें सनमान ।।१६७।। संपति के सब ही हितू, विपदा में सब दूर । सूखो सर पंखी तजें, सेवें जलतें पूर ।।१६८।। तजें नारि सुत बंधु जन, दारिद आये साथि। फिरि आमदलखि आयके, मिलि हैं बांथाबांथि ।।१६९।। संपति साथ घटे बढ़े, सूरत बुधि बल धीर।। ग्रीषम सर शोभा हरे, सोहे वरसत नीर ।।१७०।। पटभूषन मोहे सभा, धन दे मोहे नारि । खेती होय दरिद्रतें ?, सज्जन मो मनुहार ।।१७१।। धर्महानि संक्लेश अति, शत्रुविनयकरि होय । ऐसा धन नहिं लीजिये, भूखे रहिये सोय ।।१७२।। धीर शिथिल उदमी चपल, मूरख सहित गुमान । दोष धनद के गुन कहे, निलज सरलचितवान ।।१७३।। काम छोड़ि सौ जीमजे, न्हाजे छोड़ि हजार । लाख छोड़िके दान करि, जपजे वारंवार ।।१७४।। गुरु राजा नट भट वनिक, कुटनी गनिका थान । इनतें माया मति करो, ये माया की खान ।।१७५।। खोटी संगति मति करो, पकरो गुरु का हाथ । करो निरन्तर दान पुनि, लखो अथिर सब साथ ।।१७६ ।। १. आलिंगन करके, २. वस्त्राभूषण, ३. धनवान के ४. देखो, ५.अनित्य नृप सेवातें नष्ट दुज', नारि नष्ट विन शील । गनिका नष्ट संतोषतें, भूप नष्ट चित ढील ।।१७७।। नाहीं तपसी मूढ़ मन, नहीं सूर कृतघाव । नहीं सती तिय मद्यपा', पुनि जो गान सुभाव ।।१७८।। सुत को जनम विवाहफल, अतिथिदान फल गेह। जन्म सुफल गुरुतें पठन, तजिवो राग सनेह ।।१७९।। जहाँ तहाँ तिय व्याहिये, जहाँ तहाँ सुत होय । एकमात सुत भ्रात बहु, मिले न दुरलभ सोय ।।१८०।। निज भाई निरगुन भलो, पर गुनजुत किहि काम । आंगन तरु निरफल जदपि, छाया राखे धाम ।।१८१।। निशिमें दीपक चंद्रमा, दिनमें दीपक सूर । सर्व लोक दीपक धरम, कुल दीपक सुत सूर ।।१८२।। सीख दई सरधे नहीं, करे रैन दिन शोर । पूत नहीं वह भूत है, महापापफल घोर ।।१८३।। शुष्क एक तरु सघनवन, जुडतहिं देत जराय । त्यों हि पुत्र पवित्र कुल, कुबुधि कलंक लगाय ।।१८४।। तृष्णा तुहि प्रनमति करूँ, गौरव देत निवार । प्रभु आय बावन भये, जाचक बलिके द्वार ।।१८५।। मिष्ट वचन धन दानतें, सुखी होत है लोक। सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि, रीझत पंडित लोक ।।१८६।। १. ब्राह्मण (गुरु), २. शराब पीनेवाली, ३. घर का, ४. एक माँ के पेट से उत्पन्न हुये भाई, ५.झगड़ा, ६. जुड़ते ही, ७. विष्णुकुमार मुनिराज, ८. वामन-ठिगने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई अगनि काठ सरिता उदधि, जीवनतें जमराज । मृग नैननी कामी पुरुष, तृपति न होत मिजाज ।।१८७।। दारिदजुत हु महंत जन, करवे लायक काज । दंतभंग हस्ती जदपि, फोड़ि करत गिरिराज ।।१८८।। दई होत प्रतिकूल जब, उद्यम होत अकाज । मूस पिटारो काटियो, गयो सरप करि खाज' ।।१८९।। बाह्य नरम भीतर नरम, सजन जनकी बान । बाह्य नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।।१९०।। चाहे कछु हो जाय कछु, हारे विबुध विचारि। होतवते हो जाय है, बुद्धि करम अनुसारि ।।१९१।। जाके सुख में सुख लहे, विप्र मित्र कुल भ्रात । ताहीको जीवो सुफल, पिटभरं' की क्या बात ।।१९२।। हुए होहिंगे सुभट सब, करि करि थके उपाय । तृष्णा खानि अगाध है, क्यों हू भरी न जाय ।।१९३।। भोजन गुरुअवसेस जो, ज्ञान वहै बिन पाप । हित परोख कारज किये, धरमी रहित कलाप ।।१९४।। काल जिवावे जीव को, काल करे संहार । काल सुवाय जगाय है, काल चाल विकराल ।।१९५।। काल करा दे मित्रता, काल करा दे रार। कालखेप पंडित करे, उलझे निपट गँवार ।।१९६।। १. दैव (भाग्य), २. साँप के द्वारा खाया गया, ३. पण्डित, ४. होतव्य से-होनहार से, ५. पेट भरनेवाले की, ६. कलापरहित-बकवाद रहित थोड़ा बोलनेवाला, ७.सुलाता है, ८. समय बिताना सुभाषित नीति सांप दर्श दे छिप गया, वैद्य थके लखि पीर। वैरी करते छुटि गया, कौन धरि सके धीर ।।१९७।। बलधन में सिंह न लसे, ना कागन में हंस । पंडित लसे न मूढ़में, हय खर में न प्रशंस' ।।१९८।। हयगय लोहा काठि पुनि, नारी पुरुष पखान । वसन रतन मोतीनमें, अंतर अधिक विनान ।।१९९।। सत्य दीप वाती क्षमा, शील तेल संजोय । निपट जतनकरि धारिये, प्रतिबिंबित सब होय ।।२००।। परधन परतिय ना चिते, संतोषामृत राचि । ते सुखिया संसार में, तिनको भय न कदाचि ।।२०१।। रंक भूप पदवी लहे, मूरख सुत विद्वान । अंधा पावेविपुल धन, गिने तृना ज्यों आन ।।२०२।। विद्या विषम कुशिष्य को, विष कुपथीको व्याधि । तरुनी विष सम वृद्ध को, दारिद प्रीति असाधि ।।२०३।। शुचि अशुची नाहीं गिने, गिने न न्याय अन्याय । पाप पुन्य को ना गिने, भूसा मिले सु खाय ।।२०४।। एक मात के सुत भये, एक मते नहिं कोय । जैसे कांटे बेरके, बांके सीधे होय ।।२०५।। देखि उठे आदर करे, पूछे हिततें बात । जाना आना ताहि का, नित नवहित सरसात ।।२०६।। १.बैलों में, ३. सावधानी से, ५. दूसरों का, २. एक प्रति में पुत्रविना नहि वंश' - ऐसा पाठ है, ४.तिनके के समान, ६. एक विचार के Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित नीति बुधजन सतसई आदि अलप मधिमें घनी, पद पद बधती जाय। सरिताज्यों सतपुरुषहित, क्योंहू नाहिं अघाय ।।२०७।। गुहि ? कहना गुहि ? पूछना, देना लेना रीति । खाना आप खवावना, षटविधि बधि है प्रीति ।।२०८।। विद्या मित्र विदेश में, धर्म मीत है अंत । नारि मित्र घर के विषै, व्याधि औषधि मिंत ।।२०९।। नृपहित जो प्रजा अहित, प्रजा हित नृपरोष । दोऊ सम साधनकरे, सो अमात्य निरदोष ।।२१०।। पाय चपल अधिकार को, शत्रु मित्र परवार । सोष तोष पोषे विना, ताको है धिक्कार ।।२११।। निकट रहे सेवा करे, लपटत होत खुस्याल । दीन हीन लखते नहीं, प्रमदा लता भुपाल ।।२१२।। दुष्ट होय प्रधान जिहिं, तथा नाहिं प्रधान । ऐसा भूपति सेवता, होत आपकी हान ।।२१३।। पराक्रमी कोविद शिलपि, सेवाविद विद्वान । ऐते सोहे भूप घर, नहिं प्रतिपाले आन ।।२१४।। भूप तुष्ट है करत है, इच्छा पूरन मान । ताके काज कुलीन हू, करत प्रान कुरबान ।।२१५।। बुद्धि पराक्रम वपु बली, उद्यम साहस धीर । शंका माने देव ह, ऐसा लखिके वीर ।।२१६।। रसना रखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलते, निहचे हो है हान ।।२१७।। वन वसिफल भखिवो भलो, महनत भली अजान । भलो नहीं बसिवो तहाँ, जहाँ मान की हान ।।२१८।। जहाँ कछू प्रापति नहीं, है आदर वा धाम । थोरे दिन रहिये तहाँ सुखी रहे परिनाम ।।२१९।। उद्यम करवो तज दियो, इंद्री रोकी नाहिं। पंथ चले भूखा रहे, ते दुख पावे चाहिं ।।२२०।। समय देखिके बोलना, नातरि आछी मौन । मैना शुक पकरे जगत, बुगला' पकरे कौन ।।२२१।। जाका दुरजन क्या करे, क्षमा हाथ तलवार । विना तिनाकी भूमिपर, आगि बुझे लगि बार ।।२२२।। बोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुबुधी बोध लहेन । दीप प्रकाश कहा करे, जाके अंधे नैन ।।२२३।। पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक। करे समिक बोले समिक, जे हजार में एक ।।२२४।। बिगड़े करें प्रमादतें, बिगड़े निपट अग्यान । बिगड़े वास कुवास में, सुधरे संग सुजान ।।२२५।। वृद्ध भये नारी मरे, पुत्र हाथ धन होत । बंधू हाथ भोजन मिले, जीनेते वर" मोत ।।२२६।। १. बक पक्षी, २. तृण की, ३.सम्यक्-उत्तम, ४. बुरी संगति में, ५. श्रेष्ठ १.मित्र, ४. खी, ७. दे देते हैं। २. मंत्री, ५. राजा, ३. खुशी, ६. मंत्री, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई दारू' धातु पखान में, नाहिं विराजे देव । देवभाव भायें भला, फले लाभ स्वयमेव ।।२२७।। तृष्णा दुख की खानि है, नंदनवन संतोष । हिंसा बंधकी दायिनी, दया दायिनी मोष ।।२२८।। लोभ पाप को बाप है, क्रोध कूर जमराज । माया विष की बेलरी, मान विषम गिरिराज ।।२२९।। व्यवसाईते दूर क्या, को विदेश विद्वान । कहा भार समरथ को, मिष्ट कहे को आन ।।२३०।। कुल की शोभा शीलते, तन सोहे गुनवान । पढ़िवो सोहे सिधि भये, धन सोहे दे दान ।।२३१।। असंतोषि दुज" भ्रष्ट है, संतोषी नृप हान । निरलज्जाकुलतिय अधम,गनिका सलज अजान ।।२३२।। कहा करे मूरख चतुर, जो प्रभु कै प्रतिकूल । हरि हल हारे जतनकरि, जरे जदू' निरमूल ।।२३३।। खेती लखिये प्रात उठि, मध्याने लखि गेह । अपराह्ने धन निरखिये, नित सुत लखि करि नेह ।।२३४।। विद्या दिये कुशिष्य को, करे सुगुरु अपकार । लाख लड़ावो भानजा, खोसि लेय अधिकार ।।२३५।। सुभाषित नीति ना जाने कुलशील के, ना कीजे विश्वास । तात मात जातें दुखी, ताहि न रखिये पास ।।२३६।। गनिका जोगी भूमिपति, वानर अहि मंजार। इनते राखे मित्रता, परे प्रान उरझार ।।२३७।। पट पनही बहु खीर गो, औषधि बीज अहार । ज्यों लाभे त्यों लीजिये, कीजे दुःख परिहार ।।२३८।। नृपति निपुन अन्याय में, लोभ निपुन परधान । चाकर चोरी में निपुन, क्यों न प्रजा की हान ।।२३९।। धन कमाय अन्याय का, वर्ष दश थिरता पाय । रहे कदा षोड़श बरस, तो समूल नश जाय ।।२४०।। गाड़ी तरु गो उदधि वन, कंद कूप गिरराज । दुरविषमें नो जीव का, जीवो करे इलाज ।।२४१।। जाते कुल शोभा लहे, सो सपूत वर एक । भार भरे रोड़ी चरे, गर्दभ भये अनेक ।।२४२।। दूधरहित घंटासहित, गाय मोल क्या पाय । त्यों मूरख आटोपकरि', नहिं सुघर है जाय ।।२४३।। कोकिल प्यारी वैनते, पति अनुगामी नार । नर वरविद्याजुत सुघर, तप वर क्षमाविचार ।।२४४।। दूरि वसत नर दूत गुन, भूपति देत मिलाय। ढांकि दूरि रखि केतकी, वास प्रगट है जाय ।।२४५।। १.लकड़ी, २. बंध की देनेवाली, ४. मिष्ट वचन बोलने से कोई अन्य नहीं रहता, सब अपने हो जाते हैं, ६. वेश्या, ७. बलदेवजी, ९. प्यार करो, १०. छीन लेता है ३. बेल, ५. ब्राह्मण, ८.यादववंशी, १. मार्जार-बिल्ली, ४. घूरेपर ७.सुगन्ध २. जूते, ५. आडंबर-ठाठबाट, ३. प्रधान-मंत्री, ६.गुणरूप दूत, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई सुभाषित नीति सुष्क साक का असन वर, निरजन वन वर वास । दीन-वचन कहिबो न वर, जोलों तनमें साँस ।।२४६।। एकाक्षरदातार गुरु, जो न गिने विनज्ञान । सो चँडाल भव को लहे, तथा होयगा श्वान ।।२४७।। सुख दुख करता आन है, यों कुबुद्धिश्रद्धान । करता तेरे कृतकरम, मेटे क्यों न अज्ञान ।।२४८।। सुखदुखविद्या आयुधन, कुल बलवित अधिकार । साथ गर्भ में अवतरे, देह धरी जिहि बार ।।२४९।। वन रन रिपुजल अगनि गिरि, रुज निद्रामद मान । इनमें पुन रक्षा करे, नाहीं रक्षक आन ।।२५०।। दुराचारि तिय कलहिनी, किंकर कूर कठोर। सर्प साथ वसिवो सदन, मृत समान दुख घोर ।।२५१।। संपति नरभव ना रहे, रहे दोषगुनबात । रहे जु वन में वासना, फूल फूलि झर जात ।।२५२।। एक त्यागि कुल राखिये, ग्राम राख कुल तोरि। ग्राम त्यागिये राजहित, धर्म राख सब छोरि ।।२५३।। नहिं विद्या नहिं मित्रता, नाहीं धन सनमान । नहीं न्याय नहिं लाज भय, तजो वास ता थान ।।२५४।। किंकर जो कारज करे, बांधव जो दुख साथ । नारी जो दारिद सहे, प्रतिपाले सो नाथ ।।२५५।। २. कुत्ता, ३. रोग, ४. पुण्य, ५.सेवक, ६. छोड़कर नदी नखी शृंगीनि में, शस्त्रपानि नर नारि। बालक अर राजान ढिग, बसिये जतन विचारि ।।२५६।। कामी को कामिन मिलन, विभवमाहिरुचिदान । भोगशक्ति भोजन विविध, तप अत्यंत फल जान ।।२५७।। किंकर हुकमी सुत विबुध', तिय अनुगामिनि जास। विभव सदन नहिं रोग तन, ये ही सुरग निवास ।।२५८।। पुत्र वही पितुभक्त जो, पिता वहीं प्रतिपाल । नारि वही जो पतिव्रता, मित्र वही दिल माल ।।२५९।। जो हँसता भाषण करे, चलता खावे खान । द्वै बतरावत जात जो, सो सठ ढीठ अजान ।।२६०।। तेता आरंभ ठानिये, जेता तनमें जोर। तेता पाँव पसारिये, जेती लांबी सोर ।।२६१।। बहुते परप्रानन हरे, बहुते दुखी पुकार । बहुते परधन तिय हरे, बिरले चलें विचार ।।२६२।। कर्म धर्म बिरले निपुन, बिरले धन दातार । बिरले सत बोले खरे, बिरले परदुख टार ।।२६३।। गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन वन चंदन नाहिं। उदधि सारिसे साधुजन, ठोर ठोर ना पाहिं ।।२६४।। १. नखवाले, ४. दान देने में रुचि, ७.समुद्र के समान गंभीर २.सींगवाले, ५. पण्डित, ३. हाथ में हथियार रखनेवाला मनुष्य, ६. रजाई, १.सूखा, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई सुभाषित नीति परघरवास विदेश पथ, मूरख मीत मिलाप। जोबनमाहिं दरिद्रता, क्यों न हो संताप ।।२६५।। धाम पराया वस्त्र पर, पर सय्या पर नारि । परघर बसिवो अधम ये, त्यागे विबुध विचारि ।।२६६।। हुन्नर हाथ अनालसी, पढ़िबो करिबो मीत । शील पंच निधि ये अक्षय, राखे राहे नचीत' ।।२६७।। कष्ट समय रनके समय, दुर्भिक्ष अर भय घोर । दुरजनकृत उपसर्ग में, बचे विबुध कर जोर ।।२६८।। धरम लहे नहिं दुष्टचित, लोभी जस किम पाय । भागहीन को लाभ नहिं, नहिं औषधि गत आय ।।२६९।। दुष्ट मिलत ही साधुजन, नहीं दुष्ट है जाय । चंदन तरु को सर्प लगि, विष नहिं देत बनाय ।।२७०।। शोक हरत है बुद्धि को, शोक हरत है धीर । शोक हरत है धर्म को, शोक न कीजै वीर ।।२७१।। अश्व सुप्त गज मस्त ढिग, नृप भीतर रनवास । प्रथम ब्यायली गाय ढिग, गये प्रान का नास ।।२७२।। भूपति व्यसनी पाहुना, जाचक जड़ जमराज। ये परदुख जोवे नहीं, कीयो चाहे काज ।।२७३।। मनुष्य जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम । सो कच अजके कंठ में, उपजे गये निकाम ।।२७४।। सरता नहिं करता रहो, अर्थ धर्म अर काम । नित तड़का द्वै घटि रह्या, चितवो आतमराम ।।२७५।। को स्वामी मम मित्र को, कहा देश में रीत । खरच कितो' आमद किती, सदा चिंतवो मीत ।।२७६।। वमन करेते कफ मिटे, मरदन मेटे वात । स्नान कियेते पित्त मिटे, लंघन ते जुर जात ।।२७७।। कोढ मांस घृत जुरविषे, सूल द्विदल द्यो टार । दृग-रोगी मैथुन तजो, नवो धान अतिसार ।।२७८।। अनदाता त्राता बिपत, हितदाता गुरुज्ञान । आप पिता पुनि धायपति, पंच पिता पहिचान ।।२७९।। गुरुरानी नृप की तिया, बहुरि मित्र की जोय । पत्नी-मा निजमातजुत, मात पांच विधि होय ।।२८०।। घसन छेद ताड़न तपन, सुवरन की पहिचान । दयाशील श्रुत तप गुननि, जान्या जात सुजान ।।२८१।। जाप होम पूजन क्रिया, वेद तत्त्वश्रद्धान। करन करावनमें निपुन, द्विज-पुरोहित गुनवान ।।२८२।। भली बुरी चितमें बसत, निरखत ले उर धार। सोम वदन वक्ता चतुर, दूत स्वामि हितकार ।।२८३।। १.कला-कौशल्य, २. निश्चिन्त-बेफिक्र, ४. गतायु-जिसकी आयु बाकी न रही हो उसे, ६. ब्याई हुई, ७. देखते नहीं हैं, ३. अकाल, ५. सोता, ८. बकरी के गले के स्तन १. सबेरे-दो घड़ी रात रहने पर, ४. कोढ़ रोग में माँस खाना, ६. नेत्ररोगी, ८. गुरु की स्त्री, २. कितना, ३. मालिश, ५. शूल रोग में दो दालोंवाला अन्न खाना, ७. अतीसार रोग में-दस्तों की बीमारी में नया अन्न ९. स्त्री, १०. सास Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित नीति बुधजन सतसई याहीते सुकुलीन का, भूप करे अधिकार । आदि मध्य अवसान' में, करते नाहिं विकार ।।२८४।। दुष्ट तिया का पोषना, मूरख को समझात । वैरीते कारज परे, कौन नाहिं दुख पात ।।२८५।। विपता को धन राखिये, धन दीजे रखि दार। आतमहित को छांडिये, धन दारा परिवार ।।२८६।। दारिद में दुरविसन में, दुरभिख पुनि रिपुघात । राजद्वार समसान' में, साथ रहे सो भ्रात ।।२८७।। सर्प दुष्ट जन दो बुरे, तामें दुष्ट विसेख । दुष्ट जतन का लेख नहिं, सर्प जतन का लेख ।।२८८।। नाहीं धन भूषन वसन, पंडित जदपि कुरूप । सुघर सभा में यों लसे, जैसे राजत भूप ।।२८९।। स्नान दान तीरथ किये, केवल पुन्य उपाय । एक पिता की भक्तितें, तीन वर्ग मिलि जाय ।।२९०।। जो कुदेव को पूजिके, चाहे शुभ का मेल । सो बालू को पेलिके, काढ्या चाहे तेल ।।२९१।। धिक विधवा भूषन सजे, वृद्ध रसिक धिक होय। धिक जोगी भोगी रहे, सुत धिक पढ़े न कोय ।।२९२।। नारी धनि जोशीलजुत, पति धनि रति निज नार। नीतिनिपुन नृपति धनि, संपति धनि दातार ।।२९३।। रसना रखि मरजाद तू, भोजन बोलत बोल । बहु भोजन बहु बोलते, परिहे सिरपे धोल ।।२९४।। जो चाहे अपना भला, तो न सतावो कोय । तिनहू के दुरशीषतें, रोग शोक भय होय ।।२९५।। हिंसक जे छुपि बन बसे, हरि अहि जीव भयान । घने बैल हय गरधभा, गऊ भैंस सुखदान ।।२९६।। वैर प्रीति अबकी करी, परभव में मिलि जाय। निबल सबल हैं एकसे, दई करत है न्याय ।।२९७।। संस्कार जिनका भला, ऊँचे कुल के पूत । ते सुनिके सुलटे जलद, जैसे ऊन्या सूत ।।२९८ ।। पहले चौकस ना करी, डूबत व्यसन मँझार । रंग मजीठ छूटे नहीं, कीये जतन हजार ।।२९९।। जे दुरबल को पोषि हैं, दुखतें देत बचाय । तातें नृप घर जनम ले, सीधी संपति पाय ।।३००।। ।। इति सुभाषित नीति ।। १.आदर, ४. दुर्भिक्ष, ७. तीन पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम २. अन्त में, ५. श्मशान में, ८. पुण्य, ३. स्त्री, ६. इलाज, ९. कुछ भी १. मार, ४. गधा, ७. शीघ्र, १०. बिना प्रयत्न के २.बुरा आशीर्वाद-शाप, ५. इस समय की, ८. नटाईपर चढ़ाया, ३. सिंह, ६. विधाता या कर्म, ९.सम्हाल, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशाधिकार उपदेशाधिकार (दोहा) ध्यावे सो पावे सही, कहत बाल गोपाल । बनिया देत कपर्दिका', नरपति करे निहाल ।।३०१।। उलझे सुलझिर सुध भये, त्यों तू उलझ्यो मान । सुलझनिको साधन करे,तो पहुँचे निजथान ।।३०२।। लखत सुनत सूंघत चखत, इंद्री त्रिपत न होय । मन रोके इंद्री रुके, ब्रह्म प्राप्ति होय ।।३०३।। तृष्णा मिटे संतोषते, सेयें अति बढ़ि जाय। तृन' डारे आग न बुझे, तृनारहित बुझ जाय ।।३०४।। चाहि करे सो ना मिले, चाहि समान न पाप । चाहि रखे चाकरि करे, चाहि विना प्रभु आप ।।३०५।। पाप जान पर-पीडबो, पुन्य जान उपकार । पाप बुरो पुण्य है भलो, कीजे राखि विचार ।।३०६।। पाप अल्प पुण्य द्वै अधिक, ऐसे आरंभ ठानि । ज्यों विचार विणजे सुघर, लाभ बहुत तुछ हानि ।।३०७।। विपति परें सोच न करो, कीजे जतन विचार । सोच कियेते होत है, तन धन धर्म बिगार ।।३०८।। १. कौड़ी, २. सुलझ करके, ४. ज्ञान, ५. घास, ६. इच्छा , ७. व्यापार करे, सोच किये चक्रित रहे, जात पराक्रम भूल । प्रबल होत वैरी निरखि, करि डारे निरमूल ।।३०९।। देशकाल वय देखिके, करि है वैद्य इलाज। त्यों गेही घर बसि करे, धर्म कर्म का काज ।।३१०।। प्रथम धरम पीछे अरथ, बहुरि कामको सेय। अन्त मोक्ष साधे सुधी, सो अविचल सुख लेय ।।३११।। धर्म मोक्ष को भूलिके, कारज करि है कोय । सो परभव विपदा लहे, या भव निंदक' होय ।।३१२।। शक्ति समालिर कीजिये, दान धर्म कुल काज। यशपावे मतलब सधे, सुखिया रहे मिजाज ।।३१३।। विना विचारे शक्तिके, करे न कारज होय । थाह विना ज्यों नदिनि में, परे सु बूड़े सोय ।।३१४।। अलभ मिल्यो न लीजिये, लिये होत बेहाल । वनमें चावल को चुगे, बँधे परेवा' जाल ।।३१५।। जैसी संगति कीजिये, तैसा है परिनाम । तीर गहै ताके तुरत, माला ले नाम ।।३१६।। जनम अनेक कुसंग वस, लीने होय खराब । अब सतसंगति के किये, लै शिवपथ का लाभ ।।३१७।। १. भ्रमित, २. उम्र, ३. गृहस्थी, ४. धन, ५. निंद्य-बदनाम, ६. संभाल कर अर्थात् जितनी शक्ति हो उतना, ७. डूबे, ८. बिना मेहनत के, ९. कबूतर, १०. एक शिकारी जंगल में चावल फैलाकर उस पर जाल बिछाकर छुप गया, चावलों को देखकर कबूतर चुगने के लिए आ बैठे और जाल में फंस गये। यह कथा हितोपदेश में है। ११. ताकता है, निशाना साधता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशाधिकार बुधजन सतसई नीति तजे नहिं सतपुरुष, जो धन मिले करोर । कुल तिय बने न कंचनी, भुगते विपदा घोर ।।३१८।। नीति धरे निरभय सुखी, जगजन करे सराह' । भंडे जनम अनीति तें, दंडलेत नरनाह ।।३१९।। नीतिवान नीति न तजे, सहे भूख तिस त्रास । ज्यो हंसा मुक्ता विना, वनसर करें निवास ।।३२०।। लखि अनीति सुतको तजे, फिरे लोक में हीन । मुसलमान हिंदू सरव, लखे नीति आधीन ।।३२१।। जे बिगरे ते स्वादतें, तजे स्वाद सुख होय । मीन परेवा मकर हरि, पकरि लेत हर कोय ।।३२२।। स्वाद लखे रोग न मिटे, कीये कुपथ अकाज । तातें कुटकी पीजिये, खाजे लूखा नाज ।।३२३।। अमृत ऊनोदर असन, विषसम खान अघाय। वहे पुष्ट तन बल करे, यातें रोग बढ़ाय ।।३२४।। भूख रोग मेटन असन२, वसन हरनको शीत । अतिविनान नहिं कीजिये, मिलेसोलीजे मीत ।।३२५।। होनी प्राप्ति सो मिले, तामें फेर न सार । तृष्णा किये क्लेश है, सुखी संतोषविचार ।।३२६।। १. वेश्या, २. प्रशंसा, ३. बेइज्जत होता है, ४. नरनाथ-राजा, ५. प्यास, ६. मछली, ७. कबूतर, ८. एक कड़वी दवाई, ९.खाइये, १०. कम भोजन करना-कुछ खाली पेट रहना, ११.खूब अघाकर खा लेना, १२. भोजन, १३. ज्यादा विचार करना किते द्योस भोगत भये, क्यों हू तृप्ति न पाय । तृप्ति होत संतोष सों, पुन्य बढ़े अघ' जाय ।।३२७।। पंडित मूरख दो जने, भोगत भोग समान । पंडित समवृति ममत विन, मूरख हरख अमान ।।३२८।। सूत्र वांचि उपदेश सुनि, तजे न आप कषाय । जान पूछि कूवे परे, तिनसों कहा बसाय ।।३२९।। विनसमुझे ते समझसी, समझे समझे नाहिं। काचे घट माटी लगे, पाके लागे नाहिं ।।३३०।। रुचिते सीखे ज्ञान है, रुचि विन ज्ञान न होय । सूधा घट बरसत भरे, औंधा भरे न कोय ।।३३१।। सांच कहे दूषन मिटे, नातर दोष न जाय। ज्योंकी त्यों रोगी कहे, ताको बने उपाय ।।३३२।। करना जो कहना नहीं, पूछे मारग आन । निशाना कैसे मरे, ताके" आन ही थान ।।३३३।। औरन को बहकात है, करे न ज्ञान प्रकाश । गाड़र आनी ऊन को, बांधी चरे कपास ।।३३४।। विन परिख्यां संथा कहे, मूढ़ न ज्ञान गहाय । अंधा बांटे जेवरी, सगरी वछड़ा खाय ।।३३५।। १. दिन, ४. नासमझ, ७. परखे बिना, २. पाप, ५. देखे, ८. पाठ-सबक, ३. अप्रमाण-बहुत, ६. भेड़, ९. तमाम, सभी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई बोलेतें जाने परे, मूरख विद्यावान । कांसी रूपेकी प्रगट, बाजे होत पिछान ।।३३६।। ऊँचे कुल के सुत पढ़े, पढ़े न मूढ़ गमार। घुरसल' तो क्यों हु न भने, मैना भने अपार ।।३३७।। मारग अर भोजन उदर, धन विद्या उरमाहिं। सनै सनै ही आत है, इकठा आवत नाहिं।।३३८।। नित प्रति कुछ दीया किया, काटे पाप पहार' । किश्त मांड़ि देबो किये, उतरे करज अपार ।।३३९।। वृद्ध भये हू ना धरे, क्यों विराग मनमांहि । जे बहते कैसे बचे, लकड़ी गहते नाहिं ।।३४०।। विन कलमष निरभय जिके, ते तिरजे हैं तीर । पोलो घट सूधो सदा, क्यों करि बूड़े नीर ।।३४१।। दुर्जन सज्जन होत नहिं, राखो तीरथवास । मेलो क्यों न कपूर में, हींग न होय सुवास ।।३४२।। मुखतें जाप कियो नहीं, कियो न करते दान । सदा भार बहते फिरे, ते नर पशू समान ।।३४३।। स्वामि काममें टरि गये, पायो हक भरपूर। आगे क्या कहि छूटसी, पूछे आप हुजूर ।।३४४।। करि संचित कोरो रहे, मूरख विलसि न खाय । माखी कर मींड़त रहे, शहद भील ले जाय ।।३४५।। १.चांदी की, २. एक प्रकार का पक्षी, ४. सनैः-सनैः, धीरे-धीरे, ५. पहाड़, ७. जो, ८. रखो, ९. इकट्ठा उपदेशाधिकार कर न काहुसो वैर हित, होगा पाप संताप। स्वत: बनी लखिबो करो, करिबोकर प्रभु-जाप ।।३४६।। विविधिबनत आजीविका, विविधिनीतिजुत भोग । तजके लगे अनीति में, मुकर अधरमी लोग ।।३४७।। केवल लाग्या लोभ में, धर्मलोकगति भूल । या भव परभव तास का, हो है खोटी सूल ।।३४८।। उद्यम काज ऐसा करे, साधे लोक सुधर्म । ते सुख पावे जगत में, काटे पिछले कर्म ।।३४९।। पर औगुन मुख ना कहे, पोषे परके प्रान । विपता में धीरज भजे, ये लक्षण विद्वान ।।३५०।। जो मुख आवे सो कहे, हित अनहित न पिछान । विपति दुखी संपति सुखी, निलज मूढ़ सो जान ।।३५१।। धीर तजत कायर कहें, धीर धरें तें वीर । धीरज जाने हित अहित, धीरज गुन गंभीर ।।३५२।। क्षण हँसिबोक्षणरूसिबो',चित्त चपल थिर नाहिं। ताका मीठा बोलना, भयकारी मनमाहिं ।।३५३।। विना दई सौगन करे, हँसि बोलन की बान । सावधान तासों रहो, झूठ कपट की खान ।।३५४।। जाका चित आतुर अधिक, सडरशिथिलमुख बोल । ताका भाख्या सांच नहिं, झूठा कर है कौल ।।३५५।। ६. पाप, २. कसम, १. रोना, ३. इकरार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई लोकरीति को छांडिके, चालत है विपरीति । धरम सीख तासों कहे, अधिकी करे अनीति ।।३५६।। जो सनमुख थिर है सुने, ताको दीजे सीख। विनयरहित धंधा सहित, मांगे देय न भीख ।।३५७।। पहले किया सो अब लियो, भोग रोग उपभोग । अब करनी ऐसी करो, जो परभव के जोग ।।३५८।। जो कर हो सो पाय हो, बात तिहारे हाथ । विकलप तजि सदबुध करो, करतव तजोनसाथ ।।३५९।। कोड़ि मुहर लाभे न फल, सो मति वृथा गमाय । करि कमाय आजीविका, कै प्रभुका गुन गाय ।।३६०।। धरम राखते रहत हैं, प्रान धान धन मान । धरम गमत गमजात' हैं, मान धान धन प्रान ।।३६१।। धर्म हरन अपना मरन, गिने न धनहित जोय । यों नहिं जाने मूढ़ जन, मरे भोगि है कोय ।।३६२।। चातुर खरचत विन सरे, पूंजी दे न गमाय । कै भोगे कै पुन करे, चली जात है आय ॥३६३।। भावी रचना फेरि दे, रसमें करे उदास । टस्यो मुहूरत राजको, राम भयो वनवास ।।३६४।। कोटि करो परपंच किन, मिलि है प्राप्ति-मान । समुद्र भस्या अपार जल, आवे पात्र प्रमान ।।३६५।। उपदेशाधिकार पंडित हू रोगी भये, व्याकुल होत अतीव । देखो वनमें विन जतन, कैसे जीवत जीव ।।३६६।। कहे वचन फेर न फिरे, मूरख के मन टेक । अपने कहे सुधार ले, जिनके हिये विवेक।।३६७।। लखि अजोगि विचक्षण मुरे, दुरजन नेकु टरेन । हस्यो काठ मोड़त मुरे, सूखो फटे मुड़े न ।।३६८।। चिर सीख्यो सुमरत रहत, तदपि विसर जा शुद्धि । पंडित मूरख क्या करे, भावी फेरे बुद्धि ।।३६९।। सायर संपति विपति में, राखे धीरज ज्ञान । कायर व्याकुल धीर तजि, सहे वचन अपमान ।।३७०।। कहा होत व्याकुल भये, होत न दुखकी हान। रिपु जीते हारे धरम, फैले अजस कहान ।।३७१।। दुखमें हाय न बोलिये, मन में प्रभु को ध्याय । मिटे असाता मिट गये, कीजे जोग उपाय ।।३७२।। कर न अगाऊ कल्पना, कर न गईको याद । सुख दुख जो बरतत अबे, सोई लीजे साध ।।३७३।। कबहूँ आभूषण वसन, भोजन विविध तयार। कबहूँ दारिद जौ-असन', लीजे समता धार ।।३७४।। धूप छाँह ज्यों फिरत है, संपति विपति सदीव । हरष शोक करि फँसत क्यों, मूढ़ अज्ञानी जीव ।।३७५।। १. कर्तव्य, ४. चले जाने से, ७. आयु-उम्र, २. रखने से, ५. चले जाते हैं, ८. होनहार-भवितव्य, ३. रहते हैं, ६. पुण्य, ९. रंग में भंग ३. विद्वान, १. बहुत, ४. आगे की, २. लकड़ी, ५. जौ का भोजन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशाधिकार बुधजन सतसई असन औषधी भूख की, वसन औषधी सीत। भला बुरा नहिं जोइये', हरजे बाधा मीत ।।३७६।। खाना पीना सोवना, पुनि लघु दीरघ व्याधि । राव रंकके एक सी, एती क्रिया असाधि ।।३७७।। वाही बुधि धन जात है, वाही बुधिते आत । जिनस' व्याज विनजत बधे, ताही करते जात ॥३७८।। पंडित भावो मूढ़ हो, सुखिया मंद कषाय । माठो मोटो है बलध, ताती दुबरी गाय ।।३७९।। बंधे भोग कषायतें, छुटे भक्ति वैराग । इनमें जो आछा लगे, ताही मारग लाग ।।३८०।। दुष्ट दुष्टता ना तजे, निंदत हू हर कोय । सुजन सुजनता क्यों तजे, जगजस निजहित होय ।।३८१।। दुष्ट भलाई ना करे, किये कोटि उपकार । सर्पन दूध पिलाइये, विषही के दातार ।।३८२।। दुष्ट संग नहिं कीजिये, निश्चय नाशे प्रान । मिले ताहि जारे अगनि, भली बुरी न पिछान ।।३८३।। दुष्ट कही सुनि चुप रहो, बोले है है हान । भाटा' मारे कीचमें, छींटे लागे आन ।।३८४।। कंटक अर दुष्ट का, और न बने उपाय । पग पनही तर दाबिये, नातर खटकत आय ।।३८५।। १. देखिये, २. बाधा मिटा लीजिये, ३. लघुशंका, ४. दीर्घशंका, ५. अनाज, ६. ठंडा-गरियाल, ७. गरम-तेज, ८. पत्थर, ९. जूते के नीचे, १०. नहीं तो मन तुरंग चंचल मिल्या, बाग हाथ में राखि। जा छिन ही गाफिल रहो, ताछिन डारे नाखि ।।३८६।। मन विकल्प ऐते करे, पलके गिने न कोय । याके किये न कीजिये, कीजे हित है जोय ।।३८७।। पवन थकी देवनथकी, मनकी दौड़ अपार । डूबे जीव अनंत हैं, याकी लागे लार ।।३८८।। मन लागे अवकास दे, तब करतब बन जाय । मन विन जाप जपेवृथा, काज सिद्ध नहिं थाय ।।३८९।। जैसे तैसे जतन करि, जो मन लेत लगाय। पुनि जो जो कारज चतुर, करे सु ही बन जाय ।।३९०।। जिनका मन वसिमें नहीं, चाले न्याय अन्याय । ते नर व्याकुल विकल है, जगत निंदता पाय ।।३९१।। बड़े भागते मन रतन, मिल्यो राखिये पास । जहाँ तहाँ के खोलते, तन धन होत विनास ।।३९२।। तनते मन दीरघ घनो, लांबो अर गंभीर । तन नाशे नाशे न मन, लड़ती विरियां वीर ।।३९३।। मन माफिक चाले न जब, तब सुतको तज देत । मन साधनकरता निरखि, करत आनते हेत ।।३९४।। तनकी दौड़ प्रमानते, मनकी दौड़ अपार । मन बढ़करि घटि जात है, घटे न तनविस्तार ।।३९५।। १. लगाम, ३. कार्य, २. पलभर के विकल्पों को कोई गिन नहीं सकता, ४. देखकर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) बुधजन सतसई मनकी गति को कहि सके, सब जाने भगवान । जिन याको बसि कर लियो, ते पहुँचे शिवथान ।। ३९६ ।। पर का मन मैला निरखि, मन बन जाता सेर । जब मन मांगे आनते, तब मनका है सेर ।। ३९७ ।। जब मन लागे सोचमें, तब तन देत सुखात । जब मन निरभै सुख गहे, तब फूले सब गातः ।। ३९८ ।। गति गति में मरते फिरे, मनमें गया न फेर । फेर मिटेते मन तना, मरे न दूजी बेर ।। ३९९ ।। जिनका मन आतुर भया, ते भूपति नहिं रंक । जिनका मन संतोष में, ते नर इंद्र निःशंक ॥। ४०० ।। जंत्र मंत्र औषधि हरे, तनकी व्याधि अनेक । मन की बाधा सब हरे, गुरु का दिया विवेक ।।४०१ ।। वही ध्यान वही जाप व्रत, वही ज्ञान सरधान । जिनमन अपनावसि किया, तिन सब किया विधान || ४०२ || विन सीखे बचवो नहीं, सीखो राख विचार । झूठ कपटकी ढालकर, ना कीजे ? तरवार ।।४०३।। जीनेते मरना भला, अपजस सुन्या न जात । कहने ते सुनना भला, बिगड़ जाय है बात ।।४०४।। अपने मन आछी लगे, निंदे लोक सयान । ऐसी परत न कीजिये, तजिये लोभ अज्ञान ।। ४०५ ।। २. शरीर, १. क्षीण कर देता है, ३. पक्ष उपदेशाधिकार थोड़ा ही लेना भला, बुरा न लेना भोत' । अपजस सुन जीना बुरा, तातें आछी मौत ।। ४०६ ।। स्वामिकाज निज काम है, सधे लोक परलोक । इसा काज बुधजन करो, जामें एते थोक ।।४०७ ।। कहा होत व्याकुल भए, व्याकुल विकल कहात । कोटि जतनतें ना मिटे, जो होनी जा स्यात' ।। ४०८ ।। जामें नीति बनी रहे, बन आवे प्रभु नाम । सो तो दारिद ही भला, या विन सबे निकाम ।। ४०९ ।। जो निंदाते ना डरे, खा चुगली धन लेत । वातें जग डरता इसा, जैसे लागा प्रेत । । ४१० ।। कुल मरजादाका चलन, कहना हितमित वैन । छोड़े नाहीं सतपुरुष, भोगे चैन अचैन । ।४११।। दारिद रहे न सासता, संपति रहे न कोय । खोटा काज न कीजिये, करो उचित है सोय ।।४१२ ।। मानुष की रसना वसे, विष अर अमृत दोय । भली कहे बच जाय है, बुरी कहे दुख होय ।। ४१३ । । अनुचित हो है बसि विना, तामें रहो अबोल । बोलेतें ज्यों वारि लगि, सागर उठे कलोल । । ४१४ । । तृष्णा की क्या मिले, नाशे हित निज देह । सुखी संतोषी सासता, जग जस रहे सनेह । । ४१५ । । १. अधिक, ३. जिस समय, २. ऐसा, ४. शाश्वत निरन्तर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई मोह कोह दवकरि तपे, पिवे न समता वारि । विष खावे अमृत तजे, जात धनंतर हारि ।।४१६।। दान धर्म व्योपार रन, कीजे शक्ति विचार । बिन विचार चाले गिरे, ओंड़े खाड़मँझार ।।४१७।। आमद लखि खरचे अलप, ते सुखिया संसार । विन आमद खरचे घनो, लहे गाल अर मार ।।४१८।। लाखलाजविनलाख सम,लाजसहितलखिलाख। भला जीवना लाजजुत, ज्यों त्यों लाजहिं राख ।।४१९।। कुशल प्रथम परिपाक लख, पीछे काज रचात । पिछला पाँव उठाय तब, अगली ठोर लखात ।।४२०।। देव मनुष नारक पशू, सबे दुखी करि चाहि । विना चाह निरभय सुखी, वीतराग विन नाहिं ।।४२१।। जीवजात सब एकसे, तिनमें इतना विनान । चाह सहित चहुँगति फिरे, चाह रहित निरवान ।।४२२।। गुरु ढिग जिन पूछी नहीं, गह्यो न आप सुभाव । सूना घर का पाहुना, ज्यों आवे त्यों जाव ।।४२३।। १.अग्नि से, २. धन्वन्तरि वैद्य, ३. गहरे गड्ढे में, ४. लाख (चपड़ा) के समान, ५. फल, ७. जिन्होंने बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग ।। टेक || तत्वारथकी चरचा पाई, साधरमी को संग ।।१|| बन्यो.।। श्री जिनचरन बसे उर माहीं, हरष भयो सब अंग। ऐसी विधि भव भवमैं मिलिज्यौ, धर्मप्रसाद अभंग ।।२।। बन्यो.।। - कविवर पण्डित बुधजनजी विद्या प्रशंसा (दोहा) जगजन वंदत भूपती, ताहि अधिक विद्वान । मान भूपती देश निज, विद्या सारे मान ।।४२४।। दारिद संपतिमें सदा, सुखी रहत विद्वान । आदरते लाभे सु ले, सहे नाहिं अपमान ।।४२५।। या भव जस परभव सुखी, निरभय रहे सदीव । पुण्य बढ़ावे अघ हरे, विद्या पढ़िया जीव ।।४२६।। राज चोर डरपे धनी, धन खरचत घट जाय । विद्या देते मान बढ़े, नरपति बंदे पाय ।।४२७।। द्रव्यवान डरपत रहे, ना बैठे जा थान । भूपसभा चतुरन विषै, अति उद्धत विद्वान ।।४२८।। चारि गतिन में मनुष्य को, पढ़िवे को अधिकार । मनुष्य जन्म धरि ना पढ़े, ताको अति धिक्कार ।।४२९।। पुस्तक गुरु थिरता लगन, मिले सुथान सहाय। तब विद्या पढ़िवो' बने, मानुष गति परजाय ।।४३०॥ जो पढ़ि करे न आचरन, नाहिं करे सरधान । ताको पढ़िवो बोलिवो, काग वचन परमान ।।४३१।। रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ावे नाहिं। शोभा पावे नाहिं सो, राज सभा के मांहि ।।४३२।। १. उसे, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रता और संगति बुधजन सतसई अलप असन निद्रा अलप, ख्याल न देखे कोय । आलस तजि घोखत रहे, विद्यार्थी सुत सोय ।।४३३।। पांच थकी सोलह बरस, पठन समय यो जान । तामें लाड़ न कीजिये, पुनि सुत मित्र' समान ।।४३४।। तजिबे गहिबे को बने, विद्या पढ़ते ज्ञान । है सरधा जब आचरन, इंद्र नमें तब आन ।।४३५।। धनते कलमष ना कटे, काटे विद्या ज्ञान । ज्ञान बिना धन क्लेशकर, ज्ञान एक सुखखान ।।४३६।। जो सुख चाहे जीव को, तो बुधजन या मान । ज्यों त्यों मर पच लीजिये, गुरुतें सांचा ज्ञान ।।४३७।। सींग पूंछ बिन बैल हैं, मानुष विना विवेक। भक्ष्य अभक्ष्य समझेनहीं, भगिनीभामिनीएक।।४३८।। १. तमाशा, २. सोलह वर्ष से अधिक उम्र के पुत्र को मित्र के समान मानना चाहिये, ३. पाप, ४. खाने योग्य, ५. नहीं खानेयोग्य मैंने देखा आतमराम (राग काफी कनड़ी) मैंने देखा आतमरामा । मैंने. ।।टेक।। रूप फरस रस गंधर्ते न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा। नित्य निरंजन जाकै नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा ।।१ | मैंने. || भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहिं बन पुर गामा। नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ।।२। मैंने. ।। भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुद्गल का जामा। 'बुधजन' संगति जिनगुरुकी तैं, मैं पाया मुझ ठामा ||३||मैंने.|| - कविवर पण्डित बुधजनजी (दोहा) जोलों तू संसार में, तोलों मीत रखाय । सलाह लिये विन मित्र की, कारज बीगड़ जाय ।।४३९।। नीति अनीति गिने नहीं, दारिद संपतिमाहिं। मीत सलाह ले चाल हैं, तिनका अपजस नाहिं ।।४४०।। मीत अनीत बचाय के, दे है व्यसन छुड़ाय । मीत नहीं वह दुष्ट है, जो दे व्यसन लगाय ।।४४१।। धन सम कुल सम धरम सम, समवयमीत बनाय। तासो अपनी गोप कहि, लीजे भरम मिटाय ।।४४२।। औरन ते कहिये नहीं, मन की पीड़ा कोय। मिले मीत परकाशिये, तब वह देवे खोय ।।४४३।। खोटे सो बातें किये, खोटा जाने लोय । वेश्या को पथ पूछता, भरम करे हर कोय ।।४४४।। सतसंगति में बैठता, जनम सफल है जाय । मैले गेले जावतां, आवे मैल लगाय ।।४४५।। सतसंगति आदर मिले, जगजन करे बखान । खोटा संग लखि सब कहे, याकी निशां न आन ।।४४६।। १. गुप्त बात, २. खराब रास्ते से, ३. विश्वास Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुआ निषेध (दोहा) बुधजन सतसई येते मीत न कीजिये, जती लखपती बाल । ज्वारी चारी तसकरी', अमली अर बेहाल ।।४४७।। मित्रतना विश्वास सम, और न जगमें कोय । जो विश्वास को घात है, बड़े अधरमी लोय ।।४४८।। कठिन मित्रता जोड़िये, जोड़ तोड़िये नाहिं। तोड़ेते दोऊन के, दोष प्रगट है जाहिं ।।४४९।। विपत मेटिये मित्रकी, तन धन खरच मिजाज । कबहूँ बांके वक्त में, कर है तेरो काज ।।४५०।। मुखते बोले मिष्ट जो, उरमें राखे घात । मीत नहीं वह दुष्ट है, तुरत त्यागिये भ्रात ।।४५१।। अपने सो दुख जानके, जे न दुखावे आन । ते सदैव सुखिया रहे, या भाखी भगवान ।।४५२।। १. दूत-चुगलखोर, २. चोर, ३. नशेबाज, ४. दरिद्री, ५.बुरे समय में जननी लोभ लवार की, दारिद दादी जान । कूरा कलही कामिनी, जुआ विपति की खान ।।४५३।। धन नाशे नाशे धरम, ज्वारी धरे कुध्यान । धकाधूम धरबो करे, धिक धिक कहे जहान ।।४५४।। ज्वारी को जोरू तजे, तजे मात पितु भ्रात । द्रव्य हरे बरजे लरे, बोले बात कुबात ।।४५५।। ज्वारी जाय न राजमें, करि न सके व्यापार । ज्वारी की प्रतीति नहिं, फिरता फिरे खुवार ।।४५६।। बांधे ज्वारी चीथरा, डोले बने कंगाल। कबहू चौसर पहिरके, धरे फैटमें माल ।।४५७।। अशुचि असन की ग्लानि नहिं, रहे हाल बेहाल । तात मरत हू रत रहे, तजे न जूआ ख्याल ।।४५८।। कहा गिनति सामान जन, पांडव भये खराब । जूआ खेलत पुरुष की, क्यों हू रहे न आब' ।।४५९।। जैसो खान चंडाल के, तैसो खावे खान । नीच ऊँच कुल की तबे, कैसे होय पिछान ।।४६०।। निजपुर में आज मची होरी (तथा) निजपुर में आज मची होरी । निज.।।टेक।। उमगि चिदानंदजी इत आये, उत आई सुमतीगोरी ||१||निज.।। लोकलाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी ।।शनिज. ।। समकित केसर रंग बनायो। चारित की पिचुकी छोरी ।।३।।निज.।। गावत अजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं बरस्यो री।।४ । निज. ।। देखन आये बुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखो री।।५।।निज.।। - कविवर पण्डित बुधजनजी १. दुःखी, २. इज्जत Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या निषेध बुधजन सतसई मांस निषेध हाड़ मांस मुरदान के, जाका कांसामाहिं। सो तो प्रगट मसान है, कांसा खासा नाहिं ।।४६१।। दूध दही घृत धान फल, सुष्ट मिष्ट वर खान । ताको तजके अधम मुख, खोटी माटी आन ।।४६२।। जीव अनंता सासते, भाखे श्री भगवान । बालत काटत मांस को, हिंसा होत महान ।।४६३।। मांस पुष्ट निज करन को, दुष्ट आन-पल खात । बुरा करते है भला, सो कहुं सुनी न बात ।।४६४।। स्यार सिंह राक्षस अधम, तिनका भख है मांस । मोक्ष होन लायक मनुष, गहे न याकी बास ।।४६५।। उत्तम होता मांस तो, लगता प्रभु के भोग । यों भी या जानी पड़े, खोटा है संयोग ।।४६६।। दारू की मतबाल में, गोप बात कह देय । पीछे बाका दुख सहे, नृप सरवस हर लेय ।।४७०।। मतवाला कै बावला, चाले चाल कुचाल । जातें जावे कुगतिमें, सदा फिरे बेहाल ।।४७१।। मानुष ढके मद पिये, जाने धरम बलाय । आंख मूंदि कूवे परे, तासों कहा बसाय ।।४७२।। वेश्या निषेध चरमकार बेची सुता, गनिका लीनी मोल । ताको सेवत मूढजन, धर्म कर्म दे खोल ।।४७३।। हीन दीनते लीन है, सेती अंग मिलाय। लेती सरवस संपदा, देती रोग लगाय ।।४७४।। जे गनिका संग लीन हैं, सर्व तरह ते हीन । तिनके करते खावना, धर्म कर्म कर छीन ।।४७५।। खाता पीता सोवता, करता सब व्योहार । गनिका उर बसिवो करे, करतब करे असार ।।४७६।। धन खरचे तोलों रचे, हीन खीन तज देत । व्यसनी का मन ना मुरे, फिरता फिरे अचेत ।।४७७।। द्विज खत्री कोली वनिक, गनिका चाखत लाल । ताको सेवत मूढजन, मानत जनम-निहाल ।।४७८।। मद्य निषेध सड़ि उपजे प्रानी अनंत, मदमें हिंसा भोत। हिंसाते अघ ऊपजे, अघते अति दुख होत ।।४६७।। मदिरा पी मत्ता मलिन, लोटे बीच बजार । मुखमें मूतें कूकरा, चाटे विना विचार ।।४६८।। उज्जल ऊँचे रहन की, सबही राखत चाय । दारू पी रोड़ी पड़े, अचरज नाहिं अघाय ।।४६९।। १. थाल, २. मांस, ३. दूसरों का मांस, ४. गंध, ५. बहुत, ६. बुद्धि, ७. कूड़े में १. नशे में, ४. चमार-मोची, ७. लार, २. गुप्त, ५. सेवन करती है, ८.सफल ३.सर्वस्व-सारा धन, ६. लौटता है, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकार की निंदा जैसे अपने प्रान हैं, तैसे पर के जान । कैसे हरते दुष्ट जन, विना वैर पर प्रान ।। ४७९।। निरजन वन घनमें फिरें, भरें भूख भय हान । देखत ही घूंसत छुरी, निरदइ अधम अजान ।। ४८० ।। दुष्ट सिंह अहि मारिये, तामें का अपराध । प्रान पियारे सबनि को, याही मोटी बाध ॥। ४८१ ।। भलो भलो फल लेत है, बुरो बुरो फल लेत । तू निरदड़ है मारके, क्यों है पाप समेत ।।४८२ ।। नेकू दोष परको किये, बाढ़े बढ़ो क्लेश । जे प्रत्यक्ष प्राननि हरे, तब है चुक्यो अशेष ।। ४८३ ।। प्रान पोषना धर्म है, प्रान नाशना पाप । ऐसा परका कीजिये, जिसा सुहावे आप ।। ४८४ । । बुधजन सतसई चीरी निंदा प्रान पलत हैं धन रहे, तातें तासो प्रीति । सो जोरी चोरी करे, ता सम कौन अनीति । । ४८५ ।। लड़े मरे घर तजि फिरे, धन प्रापतिके हेत । ऐसे को चोरे हरे, पुरुष नहीं वह प्रेत । । ४८६ ।। धनी लड़े नृप सिर हरे, बसे निरन्तर घात । निधरक है चोर न फिरे, डरे रहे उतपात ।। ४८७ । । १. बाधा, अड़चन, दोष, ४. जैसा, २. थोडा, ५. भूत, ३. बढ़ाता है, ६. निडर परस्त्रीसंग निषेध १. उपाय, ४. बहुत, ७. बिल्ली, बहुउद्यम धन मिलन का, निज परका हितकार । सो तजि क्यों चोरी करे, तामें विघन अपार । । ४८८ ।। चोरत डरे भोगत डरे, मरे कुगति दुख घोर । लाभ लिख्यो सो ना टरे, मूरख क्यों है चोर ।। ४८९ ।। चिंता चिततें ना टरे, डरे सुनत ही बात । प्रापति का निश्चय नहीं, जाग हुए मर जात ।। ४९० ।। चोर एकते सब नगर, डरे जगे सब रैन । ऐसी और न अधमता, जामें कहूँ न चैन ।। ४९१ । । परस्त्रीसंग निषेध अपनी परतख देखिके, जैसा अपने दर्द । तैसा ही परनारिका, दुखी होत है मर्द ।। ४९२ ।। निपट कठिन परतिय मिलन, मिले न पूरे होंस' । लोक लड़े नृप दंड करे, परे महत पुनि दोस ।।४९३ ।। ऊँचा पद लोक न गिने, करे आबरू दूर । औगुन एक कुशलतें, नाश होत गुन भूर ।।४९४ ।। कन्या पुनि परब्याहता, सपरस अपरस जात । सारी" व्यभिचारी गहे, राखे नाहिं दुभाँत ।।४९५ ।। कपट झपट तकिबो करे, सदा जार' मांजार" । भोग करे नाहीं डरे, परे पीठ पैजार' ।। ४९६ ।। २. इच्छा, ५. सब, ८. जूते ३. इज्जत, ६. व्यभिचारी, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई धिक कुशील कुलवान को, जासों डरत जहान । बतलावत लागे बटा', नाहिं रहत कुलकान ।।४९७।। ना सेई नाहीं छुई, रावन पाई घात । चली जात निंदा अजों, जगमें भई विख्यात ।।४९८।। प्रथम सुभग सोहित सुगम, मध्य वृथा रस स्वाद । अंत विरस दुख नरकसा, विसन-विवाद अबाद ।।४९९।। विसन लगा जा पुरुषके, सो तो सदा खराब । जैसे हीरा एबजुत', नाहीं पावे आब ।।५००।। ॥ इति उपदेशाधिकार ।। १. इजत में बट्टा लगाता है, ३. दोषवाला २. कुल की लाज, विराग भावना (दोहा) केश पलटि पलट्या वपू', ना पलटी मन बाँक। बुझे न जरती झूपरी, ते जर चुके निसांक ।।५०१।। नित्य आयु तेरी झरे, धन पैले मिलि खाँय । तू तो रीता ही रह्या, हाथ झुलाता जाय ।।५०२।। अरे जीव भव वन विषै, तेरा कौन सहाय । काल सिंह पकरे तुझे, तब को लेत बचाय ।।५०३।। को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सराय में, बिछुरेंगे निरधार' ।।५०४।। तात मात सुत भ्रात सब, चले सुचलना मोहि। चौसठ वरष जाते रहे, कैसे भूले तोहि ।।५०५।। बहुत गई थोड़ी रही, उरमें धरो विचार । अब तो भूले डूबना, निपट नजीक किनार ।।५०६।। झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार । खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार ।।५०७।। आसी सो जासी सही, रहसी जेते आय। अपनी गो' आया गया, मेरा कौन बसाय ।।५०८।। जिनबानी के सुनैसौं मिथ्यात मिटै जिनबानीके सुनैसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै।।जिनबानी. ।।टेक।। जैसैं प्रात होत रविऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फटै।।१।जिनबानी.।। अनादिकालकी भूलि मिटावै, अपनी निधि घटघटमैं उघटे। त्याग विभाव सुभावसुधारे, अनुभव करतांकरम कटै।।२।।जिनबानी. ।। और काम तजि सेवो याकौं, या बिन नाहिं अज्ञान घटै। बुधजन याभव परभव मांहीं, बाकी हुंडी तुरत पटे||३|जिनबानी. ।। - कविवर पण्डित बुधजनजी ३. निश्चय से, १. शरीर, ४. आयु-उम्र, २. दूसरे लोग, ५. बारी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई जावो ये भावो रहो, नाहीं तन धन चाय । मैं तो आतमराम के मगन रहूँ गुन गाय ।। ५०९ ।। जो कुबुद्धितें बन गये, ते ही लागे लार । नई कुबुधकर क्यों फयूँ, करता बनिर अबार ।।५१० ।। चींटी मीठा ज्यों लगे, परिकर के चहुँ ओर । तू या दुःख को सुख गिने, याही तुझमें भोर ।। ५११ । । अपनी अपनी आयु ज्यों, रह हैं तेरे साथ । तेरे राखे ना रहे, जो गहि राखे हाथ । । ५१२ ।। जैसे पिछले मर गये, तैसे तेरा काल । काके कहे नचिंत है, करता क्यों न संभाल । । ५१३ ।। आयु कटत है रात-दिन, ज्यों करोत तें काठ । हित अपना जलदी करो, पड़ा रहेगा ठाठ ।।५१४ । । संपति बिजुरी सारिसी, जोबन बादर रंग । कोविद कैसे राच है, आयु होत नित भंग ।। ५१५ । । परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । छल बलकरि हु न बचे, काल झपट ले जाय ।। ५१६ ।। बनती देखि बनाय ले, पुनि मत राख उधार । बहते वारि पखार कर, फेरि न लाभे वारि ।। ५१७ ।। विसन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय । गांठ खाय रीते चले, हटवारे में आय ।।५१८ ।। १. बनकर के. ४. पंडित विवेकी, ७. मिलेगा, २. भोलापन, ५. पानी, ८. समय, ३. बादल, ६. घोले, ९. बाजार विराग भावना खावो खरचो दान द्यो, विलसो मन हरषाय । संपति नदी प्रवाह ज्यों, राखी नाहिं रहाय । । ५१९ ।। निशि सूते संपति सहित, प्रात हो गये रंक । सदा रहे नहिं एकसी, निभे न काकी बंक' ।। ५२० ।। तुछ स्यानप' अति गाफिली, खोई आयु असार । अब तो गाफिल मत रहो, नेड़ो आत करार ।।५२१ ।। राचो विरचो कौनसो, देखी वस्तु समस्त । प्रगट दिखाई देत है, भानु उदय अर अस्त ।। ५२२ ।। देहधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात । तन तो तजि गये राम से, रावन की क्या बात ।। ५२३ ।। आया सो नाही रह्या, दशरथ लछमन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पाप का धाम ।। ५२४।। करना क्या करता कहा, धरता नाहिं विचार । पूंजी खोई गांठ की, उलटी खाई मार ।। ५२५ ।। धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । घर की झुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज ।। ५२६ ।। किते दिवस बीते तुम्हें, करते क्यों न विचार । काल गहेगा आय कर, सुन है कौन पुकार ।।५२७ ।। जो जीये तो क्या किया, मूए क्या दिया खोय । लारे लगी अनादि की, देह तजे नहिं तोय ।। ५२८ ।। २. चतुराई, ३. नजदीक, १. अभिमान, ४. जीव Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता और ममता बुधजन सतसई तजे देहसों नेह अर, माने खोटा संग। नहिं पोषे सोषत रहे, तब तू होय निसंग ।।५२९।। तन तो कारागार है, सुत परिकर रखवार । यों जाने भाने न दुख, माने हितू गँवार ।।५३०।। या दीरघ संसार में, मुवो अनंती बार। एक बार ज्ञानी मरे, मरे न दूजी बार ।।५३१।। देह तजे मरता न तू, तो काहे की हान । जो मूए तू मरत है, तो ये जान कल्यान ।।५३२।। जीरन तजि नूतन गहे, परगट रीति जहान । तैसे तन गहना तजन, बुधजन सुखी न हान ।।५३३।। लेत सुखी देता दुखी, यह करज की रीत । लेत नहीं सो दे कहा, सुख दुख विना नचीत ।।५३४।। स्वारथ परमारथ विना, मूरख करत बिगार। कहा कमाई करत है, गुड़ी उड़ावनहार ।।५३५।। सहज मिली लखि नागहे, करे विपत के काम। चौपड़ रचि खेलें लड़े, लेत नहीं मुख राम ।।५३६।। जगमें होरी हो रही, छार उड़त सब ओर । बाह्य गये बचवो नहीं, बचवो अपनी ठोर ।।५३७।। जगजन की विपरीत गति, हरषत होत अकाज । होली में धन दे नचे, बनि भडुवा तजि लाज ।।५३८।। १. परिग्रह, २. जेलखाना, ३. ग्रहण करना, ४. पतंग उड़ानेवाला, ५. लक्ष्मी , ६. धूल मोहमाते सब ही भये, बोले बोल कुबोल । मिलवो बसिवो एक घर, बचवो रहो अबोल ।।५३९।। जगजन कारज करत सब, छलबल झूठ लगाय । इसा काज कोविद करे, जामें धरम न जाय ।।५४०।। आसी सो जासी सही, टूटे जुर गई प्रीति । देखी सुनी न सासती, अथिर अनादी रीति ।।५४१।। सब परजायनिको सदा, लागि रह्यो संस्कार । विना सिखाये करत यों, मैथुन हार निहार' ।।५४२।। समता और ममता सुने निपुन ममता विषै, कारन और हजार । विना सिखाये गुरुन के, होत न समताधार ।।५४३।। आकुलता ममता तहाँ, ममता दुखकी नींव । समता आकुलता हरे, तातें सुख की सींव ।।५४४।। समता भवदधिसोषनी, ज्ञानामृत की धार । भवाताप को हरत है, अद्भुत सुखदातार ।।५४५।। समता ते चिंता मिटे, भेटे आतमराम । ममता ते विकलप उठे, हेरे सारा ठाम ।।५४६।। ममता को परिकर घनो, क्रोध कपट मद काम । त्याजे समता एकली, बैठी अपने धाम ।।५४७।। ममता काठ अनेक तें, चिंता अगनि लगाय। जरे अनंताकाल की, समता नीर बुझाय ।।५४८।। १.मोह में मतवाले, २. ज्ञानी, ३. आया है सो जायेगा, ४. आहार-भोजन, ५. पाखाना, ६. परिवार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता और ममता बुधजन सतसई समता अपनी नारि संग, नित सुख निरभय होय । भय क्लेश करनी विपत, ममता परकी जोय ।।५४९।। ममता संग अनादि की, करे अनंत फैल। जब जिय गुरु संगति करे, तब या छांड़े गैल ।।५५०।। ममता बेटी पाप की, नरक-सदन ले जाय । धर्म सुता समता जिको, सुरगमुकति सुखदाय ।।५५१।। ममता समता की करो, निज घटमाहिं पिछान । बुरी तजो आछी भजो, जो तुम हो बुधिमान ।।५५२।। जाकी संगति दुख लहो, ताकी तजो न गैल । तो तुमको कहिये कहा, ज्योंके त्यों हो बैल ।।५५३।। पूर्व कमाया सो लिया, कहा कियें होय कास' । अब करनी ऐसी करो, परभव होय खुस्यास ।।५५४।। जैसे यहाँ तैसे वहाँ, बरतत है सब व्याध । ज्यों अब यहाँ साधन करो, त्यों ही परभव साध ।।५५५।। याही भव में रचि रहे, परभव करो न याद। चाले रीते होय के, क्या खाओगे खाद ।।५५६।। जोलों काय कटे नहीं, रहे भूख की व्याध । परमारथ स्वारथतना, तोलों साधन साध ।।५५७।। सरते में करते नहीं, करते रहे विचार । परनिर छोड़ी बापके, फिर पछतात गँवार ।।५५८।। १. स्त्री, २. बुरे कार्य, ३.साथ, ५. दुःख, ६. सुख, ७. भोजन, ८. ब्याह करके अहिनिश प्रानी जगत के, चले जात जमथान । शेषा' थिरता गहि रहे, ए अचरज अज्ञान ।।५५९।। नागा चलना होयगा, कछु न लागे लार। लार लेन का है मता', तो ठानो' दातार ।।५६०।। नरनारी मोहे गये, कंचन कामिनि माहिं। अविचल सुख तिन ही लिया, जो इनके बस नाहिं ।।५६१।। मिथ्या रुज नाश्यो नहीं, रह्या हिया में वास । लीयो तप द्वादश वरस, किया द्वारिका नाश ।।५६२।। कहा होत विद्या पढ़े, विन प्रतीति विचार । अभविसेन संज्ञा लई, कीनो हीनाचार ।।५६३।। विना पढ़े प्रतीति गहि, राख्यो गाढ़ अपार । याद करत तुष-माष को, उतर गये भवपार ।।५६४।। आपा-पर-सरधान विन, मधुपिंगल मुनिराय । तप खोया बोयो जनम, रोयो नरक मंझार ।।५६५।। कोप्या मुनि उपसर्ग सुनि, लोप्यो नृप पुर देश । कीनो दंडकवन विषम, लीनो नरकप्रवेश ।।५६६।। सुख माने भाने धरम, जोवनधनमद अंध । माल जानि अहिको गहे, लहे विपति मतिअंध ।।५६७।। भोग व्यसन सुख ख्याल में, दई मनुषगति खोय। ज्यों कपूत खा तात धन, विपता भोगे रोय ।।५६८।। १. बचे हुये, २. इरादा, ३. बनो, ४. रोग, ५. श्रद्धा, ७. नष्ट किया, ८. नष्ट किया ४. मूर्ख, ६. ज्ञान, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता और ममता बुधजन सतसई मुनी थके गेही थके, थाके सुरपति शेष । मरन समय नाहीं टरे, हो है वाही देश ।।५६९।। नरक निकसि तिर्यंच है, पशु है तिर्यग देव । दुर्निवार फिरना सदा, संसारी की टेव ।।५७०।। रोग शोक जामन मरन, क्षुधा नींद भय प्यास । लघु दीरघ बाधा सदा, संसारी दुखवास ।।५७१।। संसृत वस्तु न आन कछु, है ममता संयुक्त। ममता मजि समता लई, ते हैं जीवनमुक्त ।।५७२।। मोह-ममता जलते प्रबल, तरु अज्ञान संसार । जनम मरन दुख देत फल, काटो ज्ञान-कुहार ।।५७३।। मगन रहत संसार में, तन धन संपति पाय । ते कबहूं वच हैं नहीं, सूते आग लगाय ।।५७४।। जे चेते संसार में, सुगुरु वचन सुनि कान । ता माफिक साधन करत, ते पहुँचे शिवथान ।।५७५।। संसारी को देख दुख, सतगुरु दीनदयाल । सीख देत जो मान ले, सो तो होत खुशाल ।।५७६।। अति गंभीर संसार है, अगम अपरंपार । बैठे ज्ञानजिहाज में, ते उतरे भवपार ।।५७७।। जे कुमती पीड़े हरें, पर तन धन तिय प्रान । लोभ क्रोध मद मोहतें, ते संसारी जान ।।५७८।। लखि सरूप संसार का, पांडव भए विराग। रहे सुथिर निज ध्यान में, टरे न जरते आग ।।५७९।। पले कहाँ जनमें कहाँ, हने घने नृपमान । कृष्ण त्रिखंडी भ्रात-सर, गए तिसाए प्रान ।।५८०।। दशमुख हास्यो कष्टते, सह्यो सीत वनवास । अगनि निकस दीक्षा गही, भई इंद्र तजि आस ।।५८१।। बाल हत्यो सुरकर पस्यो, पल्यो आन जा थान । प्रद्युमन सोलह लाभ ले, मिल्यो तात रन ठान ।।५८२।। त्यागी पीहर सासरे, डरी गुफा के कौन । गई माम घर सुत सहित, मिली अंजना पौन' ।।५८३।। रानी ठानी कुक्रिया, सारी निशि तजि लाज । शील सुदर्शन ना तज्यो, भज्यो हिये जिनराज ।।५८४।। चुभ्यो रोम सुकुमार तन, रहे करत वर भोग । सह्यो स्याल-उपसर्ग-दुख, प्रथमहिंधारत जोग ।।५८५।। मात तात चारों तिया, सब कर चुके विचार । दीक्षा धरके शिव वरी, स्वामी जंबुकुमार ।।५८६।। भव षट कीने कमठ हठ, सहे दुष्ट उपसर्ग । पारस प्रभु समता लई, करम काटि अपवर्ग ।।५८७।। सहे देशभूषन मुनी, कुलभूषन मुनिराय । घोर वीर उपसर्ग सुर, केवलज्ञान उपाय ।।५८८।। १. गृहस्थी , ३. ज्ञानरूपी कुल्हाड़ी से, २. भ्रमण, ४. सुखी १. चिगे, ४. रावण, २. नष्ट किये, ५. पवनंजय से, ३. जरत्कुमार के बाण से, ६. मुक्ति Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई समता और ममता सुर गेरे संजयत मुनि, दइ विद्याधर मार । सोसहिके शिव तिय वरी, फनिंद कियो उपकार ।।५८९।। गाढ़ गह्यो सोई तिस्यो, कहा साह कहा चोर । अंजन भया निरंजना, सेठ वचन के जोर ।।५९०।। मारे मुरगे चून रचि, कष्ट लियो भव सात । राय जसोधर चंद्रमति, ताकी कथा विख्यात ।।५९१।। सुलझे पशु उपदेश सुनि, सुलझे क्यों न पुमान । नाहरतें भये वीरजिन, गज पारस भगवान ।।५९२।। अगनि जराई श्वसुर सिर, आप मगन रहि ध्यान । गजकुमार मुनि करम हरि, भये सिद्ध भगवान ।।५९३।। कोढ़ सह्यो सागर तिरयो, कह्यो भांड़ अज्ञान । श्रीपाल साहस गह्यो, जाय लह्यो निजथान ।।५९४।। गनिका घर आरूढ़ गिरि, रतनदीप भेरूढ़। चारुदत्त पुनि मुनि भये, सुकलध्यान आरूढ़ ।।५९५।। जय मसान श्रेष्ठी लियो, रह्यो अमर घर जाय। दुष्ट जयो नृप मुनि भयो, जीवंधर शिव थाय ।।५९६।। मंदिरकोट महेश के, बेच दिये शिवकोट । समंतभद्र उपदेश सुनि, आये जिनमत ओट ।।५९७।। सहज सहज त्यागन लगे, धनकुमार संसार । शालभद्र सुनि तहँ तज्यो, दो मुनि हुए लार ।।५९८।। श्रेणिक नृप संबोध तें, धर्मरुची मुनिराज । त्याग कुध्यान सुध्यान गहि, भये मुक्त करि काज ।।५९९।। समुद तिच्या कन्या वस्या, बहुरि भया अधिराज। प्रीतंकर मुनि होइके, लयो मुक्ति को राज ।।६००।। लव अंकुश सुत राम पति, जनक भूप से बाप। हरन अरनि जरना अगनि, सीता भुगत्या पाप ।।६०१।। भर्ता अर्जुन पांडवा, हितू कृष्ण महाराज। तऊ दुशासन चीर गहि, हरी द्रौपदी लाज ।।६०२।। बाल वृद्ध नारी पुरुष, ज्ञानी तजे न धीर। कन्या कुमारी चंदना, भुगत्या दुख गंभीर ।।६०३।। साहस तें टरि ज्या, विपति, मैनासुंदरि धीर । कोढ़ी वरको आदस्यो, कंचन हुवो शरीर ।।६०४।। टरे घोर उपसर्ग सब, सांचे गाढ़ विचार । वारिषेन सुकुमार सिर, भई हार तलवार ।।६०५।। कहा प्रीति संसारतें, देखो खोटी बात । पीव जिवाई अहि डसी, मंगी? कीनो घात ।।६०६।। नारिन का विश्वास नहिं, औगुन प्रगट निहार । रानी राची कूबरे, लियो जशोधर मार ।।६०७।। भोज-नारि म्हावत रची, म्हावत गनिका संग। गनिका फल ले नृप दियो, इसो जगत को रंग ।।६०८।। वरनी जाहि न कर्मगति, भली बुरी है जात । दोऊ झगरत होत है, बीच परेको घात ।।६०९ ।। १. गाढ़ सम्यक्त्व, दृढ़ श्रद्धान, ४. जन्म , २. पुरुष, ५. काष्ठांगार दुष्ट को जीता। १. समुद्र, २. अरण्य, वनवास Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता और ममता बुधजन सतसई बुरी करे है ज्या भली, लखो करमके ठाट । नश्यो रोग भास्यो जगत, फोड़त सिरको भाट ।।६१०।। करे और भोगे अवर, अनुचित विधि की बात । छेड़ करे सो भागि जा, पाड़ोसी मर जात ।।६११।। एक करे दुख सब लहे, ऐसे विधि के काम । एक हरत है कटक धन, मारा जावे गाम ।।६१२।। बहुत करे फल एक ले, ऐसा कर्म अनूप । करे फौज संग्राम को, हारे जीते भूप ।।६१३।। को जाने को कह सके, है अचिंत्य गति कर्म । यातें राचे ना छुटे, छुटे आदरे धर्म ।।६१४।। धर्म सुखांकर मूल है, पाप दुखांकर खान । गुराम्नायतें धर्म गहि, कर आपा पर ज्ञान।।६१५।। गुराम्नाय विन होत नहिं, आपा परका ज्ञान । ज्ञान विनाको त्यागवो, ज्यों हाथी को न्हान ।।६१६।। नींव बिना मंदिर नहीं, मूल विना नहिं रोख। आपा पर सरधा विना, नहीं धर्म का पोख ।।६१७।। सुलभ सुनृप पद देवपद, जनम-मरन-दुखदान । दुर्लभ सरधाजुत धरम, अद्भुत सुख की खान ।।६१८।। जो निज अनुभव होत सुख, ताकी महिमा नाहिं। सुरपति नरपति नागपति, राखत ताकी चाहिं ।।६१९।। मोह तात है जगत का, संतति देत बढ़ाय । आपा-पर -सरधान ते, हटे घटे मिट जाय ।।६२०।। पंचपरमगुरुभक्ति विन, घटे न मोह का जोर । प्रथम पूजक परमगुरु, काज करो पुनि और ।।६२१।। गई आयु को जोइये', कहा कमायो धर्म । गई सुगई अबहू करो, तो पावोगे शर्म ।।६२२।। आप्त आगम परम गुरु, तीन धरम के अंग । झूठे सेये धर्म नहिं, सांचे सेये रंग ।।६२३।। अपने अपने मतविषे, इष्ट पूज हैं ठीक । ऐसी दृष्टि न कीजिये, कर लीजे तहकीक ।।६२४।। रहनी करनी मुख वचन-परंपरा मिलि जाय । दोषरहित सब गुनसहित, सेजे ताके पाय ।।६२५।। दोष अठारह तें रहित, परमौदारिक काय । सब ज्ञायक दिव्यधुनसहित सो आप्त सुखदाय ।।६२६।। आप्त-आनन का कह्या, परंपरा अविरुद्ध । दयासहित हिंसारहित, सो आगम प्रसिद्ध ।।६२७।। वीतराग विज्ञान-धन, मुनिवर तपी दयाल । परंपरा आगम निपुन, गुरु निरग्रंथ विशाल ।।६२८।। शत्रु मित्र लोहा कनक, सुख दुख मानिक कांच। लाभ अलाभ समान सब, ऐसे गुरु लखि राच ।।६२९।। मारक उपकारक खरे', पूछे बात विशेष । दोइन को सम हित करे, करें सुगुरु उपदेश ।।६३०।। १. देखिये, ४. परीक्षा, ७. मारनेवाले, २. सुख, ५. सेइये, ८. खड़े ३. सच्चा देव, ६. आप्त के मुख से कहा हुआ १.सेना, २. स्नान, ३. वृक्ष Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव प्रशंसा, गुरु प्रशंसा बुधजन सतसई सुरपति नरपति नागपति, वसुविधि दर्व मिलाय । पूजे वसु करमन हरन, आय सुगुरु के पाय ।।६३१।। सत्य क्षमा निरलोभ ब्रह्म, सरल सलज बिनमान । निरममता त्यागी दमी, धर्म अंग ये जान ।।६३२।। हिंसा अनृत तसकरी', अब्रह्म परिग्रह पाप । देश अलप सब त्यागिवो, धरम दोय विधि थाप ।।६३३।। धर्म क्षमादिक अंग दश, धर्म दयामय जान । दरसन ज्ञान चरित धरम, धरम तत्त्व सरधान ।।६३४।। इते धरम के अंग सब, इनका फल शिवधाम । धर्म सुभाव जु आतमा, धरमी आतमराम ।।६३५।। अधरम फेरत चतुरगति, जनम मरन दुखधाम । धरम उद्धरन जगतमें, थापे अविचल ठाम ।।६३६।। गुरुमुख सुन गाढ़ो रह्यो, त्यागो वायस'-मांस । सो श्रेणिक अब पायसी, तीर्थंकर शिववास ।।६३७।। सुलट्यो भील अज्ञान हू, वनमें लखि मुनिराज । अनुक्रम विधि को काटके, भए नेमि जिनराज ।।६३८।। अनुभव प्रशंसा इंद्र नरिंद फनिंद सब, तीन काल में होय । एकपलक अनुभवजितो, तिनको सुख नहिंकोय ।।६३९।। पूछे कैसा ब्रह्म है, केती मिश्री मिष्ट । स्वादे सो ही जान है, उपमा मिले न इष्ट ।।६४०।। अनुभव-रस चाखे विना, पढ़वे में सुख नाहिं। मैथुन सुख जाने न ज्यों, कुवारी गीतन माहिं ।।६४१।। जाने चाख्यो ब्रह्मसुख, गुरुते पूछि विधान । कोटि जतनहू के किये, सो नहिं राचे आन ।।६४२।। बाह्य-भेष उज्जल किया, पाप रहा मन माहिं। शीशी" बाहिर धोवतां, उज्जल होवे नाहिं ।।६४३।। पहिले अंदर सुध करे, पीछे बाहर धोय । तब शीशी उज्जल बने, जाने सगरे लोय ।।६४४।। गुरु प्रशंसा गुरु विन ज्ञान मिले नहीं, करो जतन किन कोय। विना सिखाये मिनख तो, नाहिं तिर सके तोय ।।६४५।। जो पुस्तक पढ़ि सीख है, गुरु को पूछे नाहिं। सो शोभा नाहीं लहे, ज्यो बक हंसा माहिं ।।६४६।। १. झूठ, २. चोरी, ३. कुशील, ४. एकदेश त्याग और सर्वथा त्याग अर्थात् अणुव्रत और महाव्रत, ५. कौए का मांस, ६. पायेंगे चिदानन्द मैं अनादि हूँ, नहीं कुछ आदि है मोरी। सिवा अपने चतुष्टय के, नहिं पर वस्तु मेरे में।। १. अविवाहित, ४. बाह्य वेष, ऊपरी रूप, ७. कोई भी, १०. बगुला २. रचते, ५. बोतल, बाटली, ८. मनुष्य, ३. दूसरी जगह, ६. समस्त, ९. पानी, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु प्रशंसा बुधजन सतसई गुरनुकूल चाले नहीं, चाले स्वतः स्वभाव । सो नहिं पावे थानको, भव वन में भरमाय ।।६४७।। कलेश मिटे आनंद बड़े, लाभे सुगम उपाय । गुरु को पूछिर चालता, सहज थान मिल जाय ।।६४८।। तन मन धन सुख संपदा, गुरु पे डारूं वार । भवसमुद्रतें डूबता, गुरु ही काढ़नहार ।।६४९।। स्वारथ के जगजन हितू, विन स्वारथ तज देत । नीच ऊँच निरखे न गुरु, जीवजातते हेत ।।६५०।। ब्योंत परे हित करत हैं, तात मात सुत भ्रात । सदा सर्वदा हित करे, गुरु के मुख की बात ।।६५१।। गुरु समान संसार में, मात पिता सुत नाहिं। गुरु तो तारे सर्वथा, ए बोरे भवमाहिं ।।६५२।। गुरु उपदेश लहे विना, आप कुशल है जात । ते अजान क्यों टारि हैं, करी चतुर की घात' ।।६५३।। जहाँ तहाँ मिलि जात हैं, संपति तिय सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ।।६५४।। पुस्तक बांची इकगुनी, गुरुमुख गुनी हजार। तातें बड़े तलाशतें, सुनिजे वचन उचार ।।६५५।। गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहिं। अमर भया ततखिन सुतो, फिर दुख पावे नाहिं ।।६५६।। भली भई नरगति मिली, सुने सुगुरु के वैन । दाह मिट्या उरका अबे, पाय लई चित चैन ।।६५७।। क्रोध वचन गुरु का जदपि, तदपि सुखकर' धाम । जैसे भानु दुपहर का, शीतलता परिणाम ।।६५८।। परमारथ का गुरु हितू, स्वारथ का संसार । सब मिलि मोह बढ़ात हैं, सुत तिय किंकर यार ।।६५९।। तीरथ तीरथ क्यों फिरे, तीरथ तुम घटमाहिं। जे थिर हुए सो तिर गये, अथिर तिरत हैं नाहिं ।।६६०।। कौन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । याके पहचाने विना, झूठा करत इलाज ।।६६१।। प्रात धर्म पुनि अर्थरुचि, काम करे निशि सेव । रुचे निरंतर मोक्ष मन, सो मानुष नहिं देव ।।६६२।। संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान । तिनके सुख सम लुब्ध को, अनंत भाग नहिं जान ।।६६३।। लोभ मूल है पाप को, भोग मूल है व्याधि । हेत जु मूल क्लेश को, तिहूं त्यागि सुख साधि ।।६६४।। हिंसाते है पातकी, पातकतें नरक आय । नरक निकसि है पातकी, संतति कठिन मिटाय ।।६६५।। हिंसक को बैरी जगत, कोई न करे सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोइ लेत बचाय ।।६६६।। अपने भाव बिगाड़ते, निहचे लागत पाप । पर अकाज तो हो न हो, होत कलंकी आप ।।६६७।। जितो पाप चित चाहसो, जीव सताए होय । आरंभ उद्यम को करत, ताते थोरो जोय ।।६६८।। १. सुख करनेवाला, २.सेवक, ३. लोभी, ४. मोह, ५. नरक आयु १. अपनेआप, २. पूछकर, ३.सभी जीवों से, ४. डुबोते, ५. चतुर पुरुषों की की हुई चोट-आक्षेप को कैसे टालेंगे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु प्रशंसा बुधजन सतसई ये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल व्यभिचार । क्रोध कपट मद लोभ, पुनि आरंभ असत उचार ।।६६९।। चोर डरे निद्रा तजे, कर है खोट उपाय। नृप मारे मारे धनी, परभव नरकां जाय ।।६७०।। छाने पर चगली करे, उज्जल भेष बनाय। ते तो बुगला सारिखे, पर अकाज करि खाँय ।।६७१।। लाज धर्म भय ना करे, कामी कूकर एक। बहिन भानजी नीचकल, इनके नाहिं विवेक ।।६७२।। नीति अनीति लखे नहीं, लखे न आप बिगार। पर जारे आपन जरे, क्रोध अगनिकी झार ।।६७३।। तन सूधे सूधे वचन, मनमें राखे फेर । अग्नि ढकी तो क्या हुआ, जारत करत न बेर ।।६७४।। कुल ब्योहार को तज दिया, गरबीले मनमाहिं। अवसि पड़ेंगे कूप ते, जे मारग में नाहिं ।।६७५।। बाहिर चुगि शुक उड़ गये, ते तो फिरे खुशाल । अति लालच भीतर धसे, ते शुक उलझे जाल ।।६७६।। आरंभ विन जीवन नहीं, आरंभमाहीं पाप। तातें अति तजि अल्प सो, कीजे विना विलाप ।।६७७।। असत वैन नहिं बोलिये, तातें होत बिगार । वे असत्य नहिं सत्य है, जाते है उपकार ।।६७८।। क्रोधि लोभि कामी मदी, चार सूझते अंध । इनकी संगति छोड़िये, नहिं कीजे संबंध ।।६७९।। झूठ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमें जान । जक न धरे जगमें अजस, जूआ जहर समान ।।६८०।। २.छुपकर, ३. अभिमानी, ५. सुखी जाको छीवत चतुर नर, डरे करे हैं न्हान । इसा मांस का ग्रासतें, क्यों नहिं करो गिलान ।।६८१।। मदिरातें मदमत्त है, मदते होत अज्ञान । ज्ञान विना सुता मात को, कहे भामिनी मान ।।६८२।। गान तान ले मान के, हरे ज्ञान धन प्रान । सुरापान पलखान को, गनिका रचत कुध्यान ।।६८३।। तृण चावे चावे न धन, नांगे कांगे जान । नाहक क्यों मारे इन्हें, सब जिय आप समान ।।६८४।। नृप दंडे भंडे जनम, खंडे धर्म रु ज्ञान । कुल लाजे भाजे हितू, व्यसन दुखां की खान ।।६८५।। बड़े सीख वकबो करे, व्यसनी ले न विवेक। जैसे बासन चीकना, बूंद न लागे एक ।।६८६।। मार लोभ पुचकारते, व्यसनी तजे न फैल । जैसे टट्ट अटकला', चले न सीधी गैल ।।६८७।। ऊपरले मनते करे, व्यसनी जन कुलकाज । ब्रह्मसुरत भूले न ज्यों, काज करत रिखिराज ||६८८।। व्यसन हलाहलते अधिक, क्योंकर सेत अज्ञान। व्यसन बिगाड़े दोय भव, जहर हरे अब प्रान ।।६८९।। नरभव कारण मुक्त का, चाहत इंद्र फनिंद। ताको खोत व्यसन में, सो निंदन में निंद ।।६९०।। जैसो गाढ़ो व्यसन में, तैसो ब्रह्मसो होय । जनम जनम के अघ किये, पल में नाखे धोय ।।६९१।। १. झूठ, ४. तोते, १. स्नान, ५. अड़नेवाला घोड़ा, ९. सेवन करते हैं, २. मांस खाने को, ६. रास्ता , १०. धो देता है ३. घास, ४. बर्तन ७. आत्मस्वरूप, ८. ऋषीश्वर, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि प्रशस्ति बुधजन सतसई कीने पाप पहार से, कोटि जनम में भूर। अपना अनुभव वज्रसम, कर डाले चकचूर / / 692 / / हितकरनी धरनी सुजस, भयहरनी सुखकार / तरनी भवदधिकी दया, वरनी षटमत' सार / / 693 / / दया करत सो तात सम, गरु नप भ्रात समान। दयारहित जे हिंसकी, हरि अहि अगनि प्रमान / / 694 / / पंथ सनातन चालजे, कहजे हितमित वैन / अपना इष्ट न छोड़जे सहजे चैन अचैन / / 695 / / कवि प्रशस्ति मधि नायक सिरपंच ज्यों, जैपुर मधि ढूंढार / नृप जयसिंह सुरिंद तहाँ, प्रजाको हितकार / / 696 / / कीने बुधजन सातसे, सुगम सुभाषित हेर। सुनत पढ़त समझे सरव 2, हरे कुबुधिका फेर / / 697 / / संवत ठारासे असी, एक वरसतें घाट / जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, हवो सतसई पाठ / / 698 / / पुन्य हरत रिपुकष्टको, पुन्य हरत रुज व्याधि / पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साधि / / 699 / / भूख सहो दारिद सहो, सहो लोक अपकार। निंदकाम तुम मति करो, यह ग्रंथ को सार / / 700 / / ग्राम नगर गढ़ देश में, राज प्रजा के गेह।। पुन्य धरम होवो करे, मंगल रहो अछेह / / 701 / / ना काहूकी प्रेरना, ना काहूकी आस / अपनी मति तीखी करन, वरन्यो वरनविलास / / 702 / / 1. पहाड़, 2. बहुत, 6. चलिये, 7. कहिये, 11. दुःख 12. सभी, 15. अपमान-तिरस्कार, 3. छहों मतों में, 4. सिंह, 5. साँप, 8. छोड़िये ९.सहिये, १०.सुख, 13. संवत् 1879, 14. जेठ वदी अष्टमी रविवार, 16. तीक्ष्ण