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सुभाषित नीति
बुधजन सतसई आदि अलप मधिमें घनी, पद पद बधती जाय। सरिताज्यों सतपुरुषहित, क्योंहू नाहिं अघाय ।।२०७।। गुहि ? कहना गुहि ? पूछना, देना लेना रीति । खाना आप खवावना, षटविधि बधि है प्रीति ।।२०८।। विद्या मित्र विदेश में, धर्म मीत है अंत । नारि मित्र घर के विषै, व्याधि औषधि मिंत ।।२०९।। नृपहित जो प्रजा अहित, प्रजा हित नृपरोष । दोऊ सम साधनकरे, सो अमात्य निरदोष ।।२१०।। पाय चपल अधिकार को, शत्रु मित्र परवार । सोष तोष पोषे विना, ताको है धिक्कार ।।२११।। निकट रहे सेवा करे, लपटत होत खुस्याल । दीन हीन लखते नहीं, प्रमदा लता भुपाल ।।२१२।। दुष्ट होय प्रधान जिहिं, तथा नाहिं प्रधान । ऐसा भूपति सेवता, होत आपकी हान ।।२१३।। पराक्रमी कोविद शिलपि, सेवाविद विद्वान । ऐते सोहे भूप घर, नहिं प्रतिपाले आन ।।२१४।। भूप तुष्ट है करत है, इच्छा पूरन मान । ताके काज कुलीन हू, करत प्रान कुरबान ।।२१५।। बुद्धि पराक्रम वपु बली, उद्यम साहस धीर । शंका माने देव ह, ऐसा लखिके वीर ।।२१६।।
रसना रखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलते, निहचे हो है हान ।।२१७।। वन वसिफल भखिवो भलो, महनत भली अजान । भलो नहीं बसिवो तहाँ, जहाँ मान की हान ।।२१८।। जहाँ कछू प्रापति नहीं, है आदर वा धाम । थोरे दिन रहिये तहाँ सुखी रहे परिनाम ।।२१९।। उद्यम करवो तज दियो, इंद्री रोकी नाहिं। पंथ चले भूखा रहे, ते दुख पावे चाहिं ।।२२०।। समय देखिके बोलना, नातरि आछी मौन । मैना शुक पकरे जगत, बुगला' पकरे कौन ।।२२१।। जाका दुरजन क्या करे, क्षमा हाथ तलवार । विना तिनाकी भूमिपर, आगि बुझे लगि बार ।।२२२।। बोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुबुधी बोध लहेन । दीप प्रकाश कहा करे, जाके अंधे नैन ।।२२३।। पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक। करे समिक बोले समिक, जे हजार में एक ।।२२४।। बिगड़े करें प्रमादतें, बिगड़े निपट अग्यान । बिगड़े वास कुवास में, सुधरे संग सुजान ।।२२५।। वृद्ध भये नारी मरे, पुत्र हाथ धन होत ।
बंधू हाथ भोजन मिले, जीनेते वर" मोत ।।२२६।। १. बक पक्षी, २. तृण की,
३.सम्यक्-उत्तम, ४. बुरी संगति में, ५. श्रेष्ठ
१.मित्र, ४. खी, ७. दे देते हैं।
२. मंत्री, ५. राजा,
३. खुशी, ६. मंत्री,