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बुधजन सतसई
अगनि काठ सरिता उदधि, जीवनतें जमराज । मृग नैननी कामी पुरुष, तृपति न होत मिजाज ।।१८७।। दारिदजुत हु महंत जन, करवे लायक काज । दंतभंग हस्ती जदपि, फोड़ि करत गिरिराज ।।१८८।। दई होत प्रतिकूल जब, उद्यम होत अकाज । मूस पिटारो काटियो, गयो सरप करि खाज' ।।१८९।। बाह्य नरम भीतर नरम, सजन जनकी बान । बाह्य नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।।१९०।। चाहे कछु हो जाय कछु, हारे विबुध विचारि। होतवते हो जाय है, बुद्धि करम अनुसारि ।।१९१।। जाके सुख में सुख लहे, विप्र मित्र कुल भ्रात । ताहीको जीवो सुफल, पिटभरं' की क्या बात ।।१९२।। हुए होहिंगे सुभट सब, करि करि थके उपाय । तृष्णा खानि अगाध है, क्यों हू भरी न जाय ।।१९३।। भोजन गुरुअवसेस जो, ज्ञान वहै बिन पाप । हित परोख कारज किये, धरमी रहित कलाप ।।१९४।। काल जिवावे जीव को, काल करे संहार । काल सुवाय जगाय है, काल चाल विकराल ।।१९५।। काल करा दे मित्रता, काल करा दे रार।
कालखेप पंडित करे, उलझे निपट गँवार ।।१९६।। १. दैव (भाग्य), २. साँप के द्वारा खाया गया,
३. पण्डित, ४. होतव्य से-होनहार से, ५. पेट भरनेवाले की, ६. कलापरहित-बकवाद रहित थोड़ा बोलनेवाला,
७.सुलाता है, ८. समय बिताना
सुभाषित नीति
सांप दर्श दे छिप गया, वैद्य थके लखि पीर। वैरी करते छुटि गया, कौन धरि सके धीर ।।१९७।। बलधन में सिंह न लसे, ना कागन में हंस । पंडित लसे न मूढ़में, हय खर में न प्रशंस' ।।१९८।। हयगय लोहा काठि पुनि, नारी पुरुष पखान । वसन रतन मोतीनमें, अंतर अधिक विनान ।।१९९।। सत्य दीप वाती क्षमा, शील तेल संजोय । निपट जतनकरि धारिये, प्रतिबिंबित सब होय ।।२००।। परधन परतिय ना चिते, संतोषामृत राचि । ते सुखिया संसार में, तिनको भय न कदाचि ।।२०१।। रंक भूप पदवी लहे, मूरख सुत विद्वान ।
अंधा पावेविपुल धन, गिने तृना ज्यों आन ।।२०२।। विद्या विषम कुशिष्य को, विष कुपथीको व्याधि । तरुनी विष सम वृद्ध को, दारिद प्रीति असाधि ।।२०३।। शुचि अशुची नाहीं गिने, गिने न न्याय अन्याय । पाप पुन्य को ना गिने, भूसा मिले सु खाय ।।२०४।। एक मात के सुत भये, एक मते नहिं कोय । जैसे कांटे बेरके, बांके सीधे होय ।।२०५।। देखि उठे आदर करे, पूछे हिततें बात । जाना आना ताहि का, नित नवहित सरसात ।।२०६।।
१.बैलों में, ३. सावधानी से, ५. दूसरों का,
२. एक प्रति में पुत्रविना नहि वंश' - ऐसा पाठ है, ४.तिनके के समान, ६. एक विचार के