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समता और ममता
बुधजन सतसई बुरी करे है ज्या भली, लखो करमके ठाट । नश्यो रोग भास्यो जगत, फोड़त सिरको भाट ।।६१०।। करे और भोगे अवर, अनुचित विधि की बात । छेड़ करे सो भागि जा, पाड़ोसी मर जात ।।६११।। एक करे दुख सब लहे, ऐसे विधि के काम । एक हरत है कटक धन, मारा जावे गाम ।।६१२।। बहुत करे फल एक ले, ऐसा कर्म अनूप । करे फौज संग्राम को, हारे जीते भूप ।।६१३।। को जाने को कह सके, है अचिंत्य गति कर्म । यातें राचे ना छुटे, छुटे आदरे धर्म ।।६१४।। धर्म सुखांकर मूल है, पाप दुखांकर खान । गुराम्नायतें धर्म गहि, कर आपा पर ज्ञान।।६१५।। गुराम्नाय विन होत नहिं, आपा परका ज्ञान । ज्ञान विनाको त्यागवो, ज्यों हाथी को न्हान ।।६१६।। नींव बिना मंदिर नहीं, मूल विना नहिं रोख। आपा पर सरधा विना, नहीं धर्म का पोख ।।६१७।। सुलभ सुनृप पद देवपद, जनम-मरन-दुखदान । दुर्लभ सरधाजुत धरम, अद्भुत सुख की खान ।।६१८।। जो निज अनुभव होत सुख, ताकी महिमा नाहिं। सुरपति नरपति नागपति, राखत ताकी चाहिं ।।६१९।। मोह तात है जगत का, संतति देत बढ़ाय । आपा-पर -सरधान ते, हटे घटे मिट जाय ।।६२०।।
पंचपरमगुरुभक्ति विन, घटे न मोह का जोर । प्रथम पूजक परमगुरु, काज करो पुनि और ।।६२१।। गई आयु को जोइये', कहा कमायो धर्म । गई सुगई अबहू करो, तो पावोगे शर्म ।।६२२।। आप्त आगम परम गुरु, तीन धरम के अंग । झूठे सेये धर्म नहिं, सांचे सेये रंग ।।६२३।। अपने अपने मतविषे, इष्ट पूज हैं ठीक । ऐसी दृष्टि न कीजिये, कर लीजे तहकीक ।।६२४।। रहनी करनी मुख वचन-परंपरा मिलि जाय । दोषरहित सब गुनसहित, सेजे ताके पाय ।।६२५।। दोष अठारह तें रहित, परमौदारिक काय । सब ज्ञायक दिव्यधुनसहित सो आप्त सुखदाय ।।६२६।। आप्त-आनन का कह्या, परंपरा अविरुद्ध । दयासहित हिंसारहित, सो आगम प्रसिद्ध ।।६२७।। वीतराग विज्ञान-धन, मुनिवर तपी दयाल । परंपरा आगम निपुन, गुरु निरग्रंथ विशाल ।।६२८।। शत्रु मित्र लोहा कनक, सुख दुख मानिक कांच। लाभ अलाभ समान सब, ऐसे गुरु लखि राच ।।६२९।। मारक उपकारक खरे', पूछे बात विशेष । दोइन को सम हित करे, करें सुगुरु उपदेश ।।६३०।।
१. देखिये, ४. परीक्षा, ७. मारनेवाले,
२. सुख, ५. सेइये, ८. खड़े
३. सच्चा देव, ६. आप्त के मुख से कहा हुआ
१.सेना,
२. स्नान,
३. वृक्ष