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अनुभव प्रशंसा, गुरु प्रशंसा
बुधजन सतसई सुरपति नरपति नागपति, वसुविधि दर्व मिलाय । पूजे वसु करमन हरन, आय सुगुरु के पाय ।।६३१।। सत्य क्षमा निरलोभ ब्रह्म, सरल सलज बिनमान । निरममता त्यागी दमी, धर्म अंग ये जान ।।६३२।। हिंसा अनृत तसकरी', अब्रह्म परिग्रह पाप । देश अलप सब त्यागिवो, धरम दोय विधि थाप ।।६३३।। धर्म क्षमादिक अंग दश, धर्म दयामय जान । दरसन ज्ञान चरित धरम, धरम तत्त्व सरधान ।।६३४।। इते धरम के अंग सब, इनका फल शिवधाम । धर्म सुभाव जु आतमा, धरमी आतमराम ।।६३५।। अधरम फेरत चतुरगति, जनम मरन दुखधाम । धरम उद्धरन जगतमें, थापे अविचल ठाम ।।६३६।। गुरुमुख सुन गाढ़ो रह्यो, त्यागो वायस'-मांस । सो श्रेणिक अब पायसी, तीर्थंकर शिववास ।।६३७।। सुलट्यो भील अज्ञान हू, वनमें लखि मुनिराज । अनुक्रम विधि को काटके, भए नेमि जिनराज ।।६३८।।
अनुभव प्रशंसा इंद्र नरिंद फनिंद सब, तीन काल में होय । एकपलक अनुभवजितो, तिनको सुख नहिंकोय ।।६३९।। पूछे कैसा ब्रह्म है, केती मिश्री मिष्ट । स्वादे सो ही जान है, उपमा मिले न इष्ट ।।६४०।। अनुभव-रस चाखे विना, पढ़वे में सुख नाहिं। मैथुन सुख जाने न ज्यों, कुवारी गीतन माहिं ।।६४१।। जाने चाख्यो ब्रह्मसुख, गुरुते पूछि विधान । कोटि जतनहू के किये, सो नहिं राचे आन ।।६४२।। बाह्य-भेष उज्जल किया, पाप रहा मन माहिं। शीशी" बाहिर धोवतां, उज्जल होवे नाहिं ।।६४३।। पहिले अंदर सुध करे, पीछे बाहर धोय । तब शीशी उज्जल बने, जाने सगरे लोय ।।६४४।।
गुरु प्रशंसा गुरु विन ज्ञान मिले नहीं, करो जतन किन कोय। विना सिखाये मिनख तो, नाहिं तिर सके तोय ।।६४५।। जो पुस्तक पढ़ि सीख है, गुरु को पूछे नाहिं। सो शोभा नाहीं लहे, ज्यो बक हंसा माहिं ।।६४६।।
१. झूठ, २. चोरी,
३. कुशील, ४. एकदेश त्याग और सर्वथा त्याग अर्थात् अणुव्रत और महाव्रत, ५. कौए का मांस, ६. पायेंगे
चिदानन्द मैं अनादि हूँ, नहीं कुछ आदि है मोरी। सिवा अपने चतुष्टय के, नहिं पर वस्तु मेरे में।।
१. अविवाहित, ४. बाह्य वेष, ऊपरी रूप, ७. कोई भी, १०. बगुला
२. रचते, ५. बोतल, बाटली, ८. मनुष्य,
३. दूसरी जगह, ६. समस्त, ९. पानी,