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बुधजन सतसई
समता और ममता
सुर गेरे संजयत मुनि, दइ विद्याधर मार । सोसहिके शिव तिय वरी, फनिंद कियो उपकार ।।५८९।। गाढ़ गह्यो सोई तिस्यो, कहा साह कहा चोर । अंजन भया निरंजना, सेठ वचन के जोर ।।५९०।। मारे मुरगे चून रचि, कष्ट लियो भव सात । राय जसोधर चंद्रमति, ताकी कथा विख्यात ।।५९१।। सुलझे पशु उपदेश सुनि, सुलझे क्यों न पुमान । नाहरतें भये वीरजिन, गज पारस भगवान ।।५९२।। अगनि जराई श्वसुर सिर, आप मगन रहि ध्यान । गजकुमार मुनि करम हरि, भये सिद्ध भगवान ।।५९३।। कोढ़ सह्यो सागर तिरयो, कह्यो भांड़ अज्ञान । श्रीपाल साहस गह्यो, जाय लह्यो निजथान ।।५९४।। गनिका घर आरूढ़ गिरि, रतनदीप भेरूढ़। चारुदत्त पुनि मुनि भये, सुकलध्यान आरूढ़ ।।५९५।। जय मसान श्रेष्ठी लियो, रह्यो अमर घर जाय। दुष्ट जयो नृप मुनि भयो, जीवंधर शिव थाय ।।५९६।। मंदिरकोट महेश के, बेच दिये शिवकोट । समंतभद्र उपदेश सुनि, आये जिनमत ओट ।।५९७।। सहज सहज त्यागन लगे, धनकुमार संसार । शालभद्र सुनि तहँ तज्यो, दो मुनि हुए लार ।।५९८।।
श्रेणिक नृप संबोध तें, धर्मरुची मुनिराज । त्याग कुध्यान सुध्यान गहि, भये मुक्त करि काज ।।५९९।। समुद तिच्या कन्या वस्या, बहुरि भया अधिराज। प्रीतंकर मुनि होइके, लयो मुक्ति को राज ।।६००।। लव अंकुश सुत राम पति, जनक भूप से बाप। हरन अरनि जरना अगनि, सीता भुगत्या पाप ।।६०१।। भर्ता अर्जुन पांडवा, हितू कृष्ण महाराज। तऊ दुशासन चीर गहि, हरी द्रौपदी लाज ।।६०२।। बाल वृद्ध नारी पुरुष, ज्ञानी तजे न धीर। कन्या कुमारी चंदना, भुगत्या दुख गंभीर ।।६०३।। साहस तें टरि ज्या, विपति, मैनासुंदरि धीर । कोढ़ी वरको आदस्यो, कंचन हुवो शरीर ।।६०४।। टरे घोर उपसर्ग सब, सांचे गाढ़ विचार । वारिषेन सुकुमार सिर, भई हार तलवार ।।६०५।। कहा प्रीति संसारतें, देखो खोटी बात । पीव जिवाई अहि डसी, मंगी? कीनो घात ।।६०६।। नारिन का विश्वास नहिं, औगुन प्रगट निहार । रानी राची कूबरे, लियो जशोधर मार ।।६०७।। भोज-नारि म्हावत रची, म्हावत गनिका संग। गनिका फल ले नृप दियो, इसो जगत को रंग ।।६०८।। वरनी जाहि न कर्मगति, भली बुरी है जात । दोऊ झगरत होत है, बीच परेको घात ।।६०९ ।।
१. गाढ़ सम्यक्त्व, दृढ़ श्रद्धान, ४. जन्म ,
२. पुरुष, ५. काष्ठांगार दुष्ट को जीता।
१. समुद्र,
२. अरण्य, वनवास