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समता और ममता
बुधजन सतसई मुनी थके गेही थके, थाके सुरपति शेष । मरन समय नाहीं टरे, हो है वाही देश ।।५६९।। नरक निकसि तिर्यंच है, पशु है तिर्यग देव । दुर्निवार फिरना सदा, संसारी की टेव ।।५७०।। रोग शोक जामन मरन, क्षुधा नींद भय प्यास । लघु दीरघ बाधा सदा, संसारी दुखवास ।।५७१।। संसृत वस्तु न आन कछु, है ममता संयुक्त। ममता मजि समता लई, ते हैं जीवनमुक्त ।।५७२।। मोह-ममता जलते प्रबल, तरु अज्ञान संसार । जनम मरन दुख देत फल, काटो ज्ञान-कुहार ।।५७३।। मगन रहत संसार में, तन धन संपति पाय । ते कबहूं वच हैं नहीं, सूते आग लगाय ।।५७४।। जे चेते संसार में, सुगुरु वचन सुनि कान । ता माफिक साधन करत, ते पहुँचे शिवथान ।।५७५।। संसारी को देख दुख, सतगुरु दीनदयाल । सीख देत जो मान ले, सो तो होत खुशाल ।।५७६।। अति गंभीर संसार है, अगम अपरंपार । बैठे ज्ञानजिहाज में, ते उतरे भवपार ।।५७७।। जे कुमती पीड़े हरें, पर तन धन तिय प्रान । लोभ क्रोध मद मोहतें, ते संसारी जान ।।५७८।।
लखि सरूप संसार का, पांडव भए विराग। रहे सुथिर निज ध्यान में, टरे न जरते आग ।।५७९।। पले कहाँ जनमें कहाँ, हने घने नृपमान । कृष्ण त्रिखंडी भ्रात-सर, गए तिसाए प्रान ।।५८०।। दशमुख हास्यो कष्टते, सह्यो सीत वनवास । अगनि निकस दीक्षा गही, भई इंद्र तजि आस ।।५८१।। बाल हत्यो सुरकर पस्यो, पल्यो आन जा थान । प्रद्युमन सोलह लाभ ले, मिल्यो तात रन ठान ।।५८२।। त्यागी पीहर सासरे, डरी गुफा के कौन । गई माम घर सुत सहित, मिली अंजना पौन' ।।५८३।। रानी ठानी कुक्रिया, सारी निशि तजि लाज । शील सुदर्शन ना तज्यो, भज्यो हिये जिनराज ।।५८४।। चुभ्यो रोम सुकुमार तन, रहे करत वर भोग । सह्यो स्याल-उपसर्ग-दुख, प्रथमहिंधारत जोग ।।५८५।। मात तात चारों तिया, सब कर चुके विचार । दीक्षा धरके शिव वरी, स्वामी जंबुकुमार ।।५८६।। भव षट कीने कमठ हठ, सहे दुष्ट उपसर्ग । पारस प्रभु समता लई, करम काटि अपवर्ग ।।५८७।। सहे देशभूषन मुनी, कुलभूषन मुनिराय । घोर वीर उपसर्ग सुर, केवलज्ञान उपाय ।।५८८।।
१. गृहस्थी , ३. ज्ञानरूपी कुल्हाड़ी से,
२. भ्रमण, ४. सुखी
१. चिगे, ४. रावण,
२. नष्ट किये, ५. पवनंजय से,
३. जरत्कुमार के बाण से, ६. मुक्ति