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बुधजन सतसई
सुभाषित नीति
(दोहा)
मैं तो कृतकृत अब भया, चरन शरन तुम पाय। सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हिये न समाय ।।१०।। मोहि सतावत मोह जुर, विषम अनादि असाधि । वैद्य अत्तार हकीम तुम, दूरि करो या व्याधि ।।११।। परिपूरन प्रभु विसरि तुम, नमूं न आन कुठोर । ज्यों त्यों करि मो तारिये, विनती करूँ निहोर ।।१२।। दीन अधम निरबल रटे, सुनिये अधम उधार । मेरे औगुन मत लखो, तारो विरद चितार ।।९३।। करुनाकर परगट विरद, भूले बनि है नाहिं। सुधि लीजे सुध कीजिये, दृष्टि धार मो-माहिं ।।१४।। एही वर मो दीजिये, जांचं नहिं कुछ और। अनिमिष दृग निरखत रहूं, शान्त छबिचितचोर' ।।१५।। यादि हियामें नाम मुख, करो निरन्तर बास। जोलों बसवो जगत में, भरवो तनमें साँस ।।९६।। मैं अजान तुम गुन अनंत, नाहीं आवे अंत । बंदत अंग नमाय वसु, जावजीव-परजंत ॥९७।। हारि गये हो नाथ तुम, अधम अनेक उधारि । धीरे धीरें सहज में, लीजे मोहि उबारि ।।१८।। आप पिछान विशुद्ध है, आपा कह्यो प्रकाश । आप आपमें थिर भये, बंदत बुधजनदास ।।१९।। मन मूरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल दीजिये, पस्यो रहूं तुम धाम ।।१०।।
॥ इति देवानुराग शतक।।
२. मुझको, ४. पलक रहित, ५. मनमोहक,
६. जब तक जीवन रहे तबतक
अलपथकी फल दे घना, उत्तम पुरुष सुभाय। दूध झरेतॄनको चरे, ज्यों गोकुल की गाय ।।१०१।। जेता का तेता करे, मध्यम नर सनमान । घटे बढ़े नहिं रंचहू, धस्यो कोठरे धान ।।१०२।। दीजे जेता ना मिले, जघन पुरुष की बान । जैसे फूटे घट धस्यो, मिले अलप पय थान ।।१०३।। भला किये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय । पय पीये विष देत है, फणी महा दुखदाय ।।१०४।। सहे निरादर दुरवचन, मार दण्ड अपमान । चोर चुगल परदार रत, लोभी लबार' अजान ।।१०५।। अमर हारि सेवा करें, मानस की कहा बात । सो जन शील संतोषजुत, करे न परको घात ।।१०६।। अगनि चोर भूपति विपति, डरत रहे धनवान । निर्धन नींद निशंक ले, माने न काकी' हान ।।१०७।। एक चरन हू नित पढ़े, तो काटे अज्ञान । पनिहारीकी नेजसो', सहज कटे पाषान ।।१०८।। पतिव्रता सतपुरुष का, गाढा धीर सुभाव ।
भूख सहे दारिद सहे, करे न हीन' उपाव ||१०९।। १.स्टोर में अनाज, २. दूध, ३. पिलाने से, ४. सर्प, ५.झूठा, ६. किसी से, ७. हानि, ८. रस्सीसे, ९.अयोग्य, १०.कार्य
१. कृतकृत्य,