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देवानुराग शतक
बुधजन सतसई तुम वानी जानी जिका', प्रानी ज्ञानी होय । सुर अरचे संचे सुभग, कलमष' काटे धोय ।।५०।। तुम ध्यानी प्रानी भये, सबमें मानी' होय । पुनि ज्ञानी ऐसे बने, निरख लेत सब लोय' ।।५१।। तुम दरसक देखें जगत, पूजक पूजें लोग। सेवें तिहि सेवें अमर, मिलें सुरग के भोग ।।५२।। ज्यों पारसतें मिलत ही, करि ले आप प्रमान । त्यों तुम अपने भक्त को, करि हो आप समान ।।५३।। जैसा भाव करे तिसा, तुमते फल मिलि जाय। तैसा तन निरखे जिसा, शीशा में दरसाय ।।५४।। जब अजान जान्यो नहीं, तब दुख लह्यो अतीव । अब जाने माने हिये, सुखी भयो लखि जीव ।।५५।। ऐसे तो कहत न बने, मो उर निवसो आय । तातें मोकू चरन तट, लीजे आप बसाय ।।५६।। तोसो और न ना मिल्यो, धाय थक्यो चहुँ ओर । ये मेरे गाढ़ी गड़ी', तुम ही हो चितचोर ।।५७।। बहुत बकत डरपत रहूँ, थोरी कही सुने न। तडफत दुखिया दीन लखि, ढीले रहे बने न ।।५८।। रहूं रावरो' सुजस सुनि, तारन-तरन जिहाज । भव बोरत राखें रहो, तोरी मोरी लाज ।।५९।।
डूबत जलधि जिहाज गिरि, तारयो नृप श्रीपाल। वाही किरपा कीजिये, वोही मेरो हाल ।।६०।। तोहि छोरिके आनकू, नमूं न दीनदयाल । जैसे तैसे कीजिये, मेरो तो प्रतिपाल ।।६१।। बिन मतलब बहुते अधम, तारि दिये स्वयमेव । त्यों मेरो कारज सुगम, कर देवन के देव ।।६२।। निंदो भावो' जस करो, नाहीं कछु परवाह । लगन लगी जात न तजी, कीजो तुम निरबाह ।।६३।। तुम्हें त्यागि और न भजूं सुनिये दीनदयाल । महाराज की सेव तजि, सेवे कौन कँगाल ।।६४।। जाछिन" तुम मन आ बसे, आनंदघन भगवान । दुख दावानल मिट गयो, कीनों अमृतपान ।।६५।। तो लखि उर हरषत रहूं, नाहिं आनकी चाह । दीखत सर्व समान से, नीच पुरुष नरनाह ।।६६।। तुममें मुझमें भेद यह, और भेद कछु नाहिं । तुम तन तजि परब्रह्म भये, हम दुखिया तनमाहिं ।।६७।। जो तुम लखि निजको लखे लक्षण एक समान । सुथिर बने त्यागे कुबुधि, सो है हे भगवान ।।६८।। जो तुमते नाहीं मिले, चले सुछंद मदवान ।
सो जगमें अविचल भ्रमे, लहें दुखांकी खान ।।६९।। १. वैसे ही,
२. छोड़कर,
३. अथवा, ४. प्रशंसा,
५. जिस क्षण, ८. मानी,
९. दु:खों की
१. जिन्होंने, ५. लोक, ९. आपका,
२. पाप, ६. दर्पण में, १०. डूबते
३. पूज्य, ७. पूर्ण निश्चय हो गया,
४. फिर, ८. कहते,
६.राजा,