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देवानुराग शतक
बुधजन सतसई जागि रहे निज ध्यान में, धरि धीरज बलवान । आवे किम निद्रा जरा, निरखेदक भगवान ।।२९।। जातजीवते अधिक बल, सुथिर सुखी निजमाहिं। वस्तु चराचर लखि लई, भय विस्मय यों नाहिं ।।३०।। तत्त्वारथसरधान धरि, दीना मोह विनाश । मान हान कीना प्रगट, केवलज्ञानप्रकाश ।।३१।। अतुल शक्ति परगट भई, राजत हैं स्वयमेव । खेद स्वेद विन थिर भये, सब देवन के देव ।।३२।। परिपूरन हो सब तरह, करना रह्या न काज। आरत' चिन्ता रहित, राजत हो महाराज ।।३३।। वीर्य अनंता धरि रहे, सुख अनंत परमान । दरस अनंत प्रमानजुत, भया अनंता ज्ञान ।।३४।। अजर अमर अक्षय अनंत, अपरस अवरनवान । अरस अरूपी गंधविन, चिदानंद भगवान ।।३५।। कहत थके सुरगुर गुनी, मो मनमें किम मायँ । पै उरमें जितने भरे, तितने कहे न जायँ ।।३६।।' अरज गरजकी करत हूँ, तारन तरन सु नाथ । भवसागर में दुख सहूँ, तारो गहकरि हाथ ।।३७।। बीती जिती न कहि सकू, सब भासत है तोय। याही ते विनती करूं, फेरि न बीते मोय ।।३८।।
२. खेदरहित, ३. संसारी जीवों से, ४. आश्चर्य, ५. पसीना, ६. दु:ख, ७. बल,
८. अस्पर्श, ९. वर्णरहित, १०. हृदय में, ११. जितनी
वारण वानर बाघ अहि, अंजन भील चडार। जा विधी प्रभु सुखिया किया, सो ही मेरी बार ।।३९।। हूँ अजान जाने विना, फिस्यो चतुरगति थान । अब चरणा शरणा लिया, करो कृपा भगवान ।।४०।। जगजन की विनती सुनो, अहो जगतगुरुदेव।। जोलों हूँ जग में रहूँ, तोलों पाऊँ सेव ।।४१।। तुम तो दीननाथ हो, मैं हूँ दीन अनाथ । अब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ ।।४२।। बारंबारविनती करूँ, मन-वचनतें तोहि । परयो रहूँ तुम चरण में, सो बुधि दीजे मोहि ।।४३।।
और नाहिं जाचूं प्रभो, ये ही वर दीजे मोहि । जोलों शिव पहुँचूं नहीं, तोलों सेऊ तोहि ।।४४।। या संसार असार में, तुम देखे हैं सार ।
और सकल राखे पकरि आप निकासनहार ।।४५।। या भववन अति सघन में, मारग दीखे नाहिं। तुम किरपा ऐसी करी, भास गयो मनमाहिं ।।४६।। जे तुम मारग में लगे, सुखी भये ते जीव । जिन मारग लीया नहीं, ते दुख लीन सदीव ।।४७।।
और सकल स्वारथ-सगे, विनस्वारथ हो आप। पाप मिटावत आप हो, और बढ़ावत पाप ।।४८।। या अद्भुत समता प्रगट, आप माहिं भगवान । निंदक सहजे दुख लहे, बंदक लहे कल्यान ।।४९।।
१. हाथी,
२. चांडाल, ४. दिखाई दे गया