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________________ मित्रता और संगति बुधजन सतसई अलप असन निद्रा अलप, ख्याल न देखे कोय । आलस तजि घोखत रहे, विद्यार्थी सुत सोय ।।४३३।। पांच थकी सोलह बरस, पठन समय यो जान । तामें लाड़ न कीजिये, पुनि सुत मित्र' समान ।।४३४।। तजिबे गहिबे को बने, विद्या पढ़ते ज्ञान । है सरधा जब आचरन, इंद्र नमें तब आन ।।४३५।। धनते कलमष ना कटे, काटे विद्या ज्ञान । ज्ञान बिना धन क्लेशकर, ज्ञान एक सुखखान ।।४३६।। जो सुख चाहे जीव को, तो बुधजन या मान । ज्यों त्यों मर पच लीजिये, गुरुतें सांचा ज्ञान ।।४३७।। सींग पूंछ बिन बैल हैं, मानुष विना विवेक। भक्ष्य अभक्ष्य समझेनहीं, भगिनीभामिनीएक।।४३८।। १. तमाशा, २. सोलह वर्ष से अधिक उम्र के पुत्र को मित्र के समान मानना चाहिये, ३. पाप, ४. खाने योग्य, ५. नहीं खानेयोग्य मैंने देखा आतमराम (राग काफी कनड़ी) मैंने देखा आतमरामा । मैंने. ।।टेक।। रूप फरस रस गंधर्ते न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा। नित्य निरंजन जाकै नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा ।।१ | मैंने. || भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहिं बन पुर गामा। नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ।।२। मैंने. ।। भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुद्गल का जामा। 'बुधजन' संगति जिनगुरुकी तैं, मैं पाया मुझ ठामा ||३||मैंने.|| - कविवर पण्डित बुधजनजी (दोहा) जोलों तू संसार में, तोलों मीत रखाय । सलाह लिये विन मित्र की, कारज बीगड़ जाय ।।४३९।। नीति अनीति गिने नहीं, दारिद संपतिमाहिं। मीत सलाह ले चाल हैं, तिनका अपजस नाहिं ।।४४०।। मीत अनीत बचाय के, दे है व्यसन छुड़ाय । मीत नहीं वह दुष्ट है, जो दे व्यसन लगाय ।।४४१।। धन सम कुल सम धरम सम, समवयमीत बनाय। तासो अपनी गोप कहि, लीजे भरम मिटाय ।।४४२।। औरन ते कहिये नहीं, मन की पीड़ा कोय। मिले मीत परकाशिये, तब वह देवे खोय ।।४४३।। खोटे सो बातें किये, खोटा जाने लोय । वेश्या को पथ पूछता, भरम करे हर कोय ।।४४४।। सतसंगति में बैठता, जनम सफल है जाय । मैले गेले जावतां, आवे मैल लगाय ।।४४५।। सतसंगति आदर मिले, जगजन करे बखान । खोटा संग लखि सब कहे, याकी निशां न आन ।।४४६।। १. गुप्त बात, २. खराब रास्ते से, ३. विश्वास
SR No.008343
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBudhjan Kavivar
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size242 KB
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