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बुधजन सतसई मोह कोह दवकरि तपे, पिवे न समता वारि । विष खावे अमृत तजे, जात धनंतर हारि ।।४१६।। दान धर्म व्योपार रन, कीजे शक्ति विचार । बिन विचार चाले गिरे, ओंड़े खाड़मँझार ।।४१७।। आमद लखि खरचे अलप, ते सुखिया संसार । विन आमद खरचे घनो, लहे गाल अर मार ।।४१८।। लाखलाजविनलाख सम,लाजसहितलखिलाख। भला जीवना लाजजुत, ज्यों त्यों लाजहिं राख ।।४१९।। कुशल प्रथम परिपाक लख, पीछे काज रचात । पिछला पाँव उठाय तब, अगली ठोर लखात ।।४२०।। देव मनुष नारक पशू, सबे दुखी करि चाहि । विना चाह निरभय सुखी, वीतराग विन नाहिं ।।४२१।। जीवजात सब एकसे, तिनमें इतना विनान । चाह सहित चहुँगति फिरे, चाह रहित निरवान ।।४२२।। गुरु ढिग जिन पूछी नहीं, गह्यो न आप सुभाव ।
सूना घर का पाहुना, ज्यों आवे त्यों जाव ।।४२३।। १.अग्नि से,
२. धन्वन्तरि वैद्य, ३. गहरे गड्ढे में, ४. लाख (चपड़ा) के समान, ५. फल, ७. जिन्होंने
बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग बन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग ।। टेक || तत्वारथकी चरचा पाई, साधरमी को संग ।।१|| बन्यो.।। श्री जिनचरन बसे उर माहीं, हरष भयो सब अंग। ऐसी विधि भव भवमैं मिलिज्यौ, धर्मप्रसाद अभंग ।।२।। बन्यो.।।
- कविवर पण्डित बुधजनजी
विद्या प्रशंसा
(दोहा) जगजन वंदत भूपती, ताहि अधिक विद्वान । मान भूपती देश निज, विद्या सारे मान ।।४२४।। दारिद संपतिमें सदा, सुखी रहत विद्वान । आदरते लाभे सु ले, सहे नाहिं अपमान ।।४२५।। या भव जस परभव सुखी, निरभय रहे सदीव । पुण्य बढ़ावे अघ हरे, विद्या पढ़िया जीव ।।४२६।। राज चोर डरपे धनी, धन खरचत घट जाय । विद्या देते मान बढ़े, नरपति बंदे पाय ।।४२७।। द्रव्यवान डरपत रहे, ना बैठे जा थान । भूपसभा चतुरन विषै, अति उद्धत विद्वान ।।४२८।। चारि गतिन में मनुष्य को, पढ़िवे को अधिकार । मनुष्य जन्म धरि ना पढ़े, ताको अति धिक्कार ।।४२९।। पुस्तक गुरु थिरता लगन, मिले सुथान सहाय। तब विद्या पढ़िवो' बने, मानुष गति परजाय ।।४३०॥ जो पढ़ि करे न आचरन, नाहिं करे सरधान । ताको पढ़िवो बोलिवो, काग वचन परमान ।।४३१।। रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ावे नाहिं। शोभा पावे नाहिं सो, राज सभा के मांहि ।।४३२।।
१. उसे,