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बुधजन सतसई बोलेतें जाने परे, मूरख विद्यावान । कांसी रूपेकी प्रगट, बाजे होत पिछान ।।३३६।। ऊँचे कुल के सुत पढ़े, पढ़े न मूढ़ गमार। घुरसल' तो क्यों हु न भने, मैना भने अपार ।।३३७।। मारग अर भोजन उदर, धन विद्या उरमाहिं। सनै सनै ही आत है, इकठा आवत नाहिं।।३३८।। नित प्रति कुछ दीया किया, काटे पाप पहार' । किश्त मांड़ि देबो किये, उतरे करज अपार ।।३३९।। वृद्ध भये हू ना धरे, क्यों विराग मनमांहि । जे बहते कैसे बचे, लकड़ी गहते नाहिं ।।३४०।। विन कलमष निरभय जिके, ते तिरजे हैं तीर । पोलो घट सूधो सदा, क्यों करि बूड़े नीर ।।३४१।। दुर्जन सज्जन होत नहिं, राखो तीरथवास । मेलो क्यों न कपूर में, हींग न होय सुवास ।।३४२।। मुखतें जाप कियो नहीं, कियो न करते दान । सदा भार बहते फिरे, ते नर पशू समान ।।३४३।। स्वामि काममें टरि गये, पायो हक भरपूर। आगे क्या कहि छूटसी, पूछे आप हुजूर ।।३४४।। करि संचित कोरो रहे, मूरख विलसि न खाय ।
माखी कर मींड़त रहे, शहद भील ले जाय ।।३४५।। १.चांदी की,
२. एक प्रकार का पक्षी, ४. सनैः-सनैः, धीरे-धीरे, ५. पहाड़, ७. जो, ८. रखो,
९. इकट्ठा
उपदेशाधिकार
कर न काहुसो वैर हित, होगा पाप संताप। स्वत: बनी लखिबो करो, करिबोकर प्रभु-जाप ।।३४६।। विविधिबनत आजीविका, विविधिनीतिजुत भोग । तजके लगे अनीति में, मुकर अधरमी लोग ।।३४७।। केवल लाग्या लोभ में, धर्मलोकगति भूल । या भव परभव तास का, हो है खोटी सूल ।।३४८।। उद्यम काज ऐसा करे, साधे लोक सुधर्म । ते सुख पावे जगत में, काटे पिछले कर्म ।।३४९।। पर औगुन मुख ना कहे, पोषे परके प्रान । विपता में धीरज भजे, ये लक्षण विद्वान ।।३५०।। जो मुख आवे सो कहे, हित अनहित न पिछान । विपति दुखी संपति सुखी, निलज मूढ़ सो जान ।।३५१।। धीर तजत कायर कहें, धीर धरें तें वीर । धीरज जाने हित अहित, धीरज गुन गंभीर ।।३५२।। क्षण हँसिबोक्षणरूसिबो',चित्त चपल थिर नाहिं। ताका मीठा बोलना, भयकारी मनमाहिं ।।३५३।। विना दई सौगन करे, हँसि बोलन की बान । सावधान तासों रहो, झूठ कपट की खान ।।३५४।। जाका चित आतुर अधिक, सडरशिथिलमुख बोल । ताका भाख्या सांच नहिं, झूठा कर है कौल ।।३५५।।
६. पाप,
२. कसम,
१. रोना, ३. इकरार