________________
बुधजन सतसई लोकरीति को छांडिके, चालत है विपरीति । धरम सीख तासों कहे, अधिकी करे अनीति ।।३५६।। जो सनमुख थिर है सुने, ताको दीजे सीख। विनयरहित धंधा सहित, मांगे देय न भीख ।।३५७।। पहले किया सो अब लियो, भोग रोग उपभोग । अब करनी ऐसी करो, जो परभव के जोग ।।३५८।। जो कर हो सो पाय हो, बात तिहारे हाथ । विकलप तजि सदबुध करो, करतव तजोनसाथ ।।३५९।। कोड़ि मुहर लाभे न फल, सो मति वृथा गमाय । करि कमाय आजीविका, कै प्रभुका गुन गाय ।।३६०।। धरम राखते रहत हैं, प्रान धान धन मान । धरम गमत गमजात' हैं, मान धान धन प्रान ।।३६१।। धर्म हरन अपना मरन, गिने न धनहित जोय । यों नहिं जाने मूढ़ जन, मरे भोगि है कोय ।।३६२।। चातुर खरचत विन सरे, पूंजी दे न गमाय । कै भोगे कै पुन करे, चली जात है आय ॥३६३।। भावी रचना फेरि दे, रसमें करे उदास । टस्यो मुहूरत राजको, राम भयो वनवास ।।३६४।। कोटि करो परपंच किन, मिलि है प्राप्ति-मान । समुद्र भस्या अपार जल, आवे पात्र प्रमान ।।३६५।।
उपदेशाधिकार
पंडित हू रोगी भये, व्याकुल होत अतीव । देखो वनमें विन जतन, कैसे जीवत जीव ।।३६६।। कहे वचन फेर न फिरे, मूरख के मन टेक । अपने कहे सुधार ले, जिनके हिये विवेक।।३६७।। लखि अजोगि विचक्षण मुरे, दुरजन नेकु टरेन । हस्यो काठ मोड़त मुरे, सूखो फटे मुड़े न ।।३६८।। चिर सीख्यो सुमरत रहत, तदपि विसर जा शुद्धि । पंडित मूरख क्या करे, भावी फेरे बुद्धि ।।३६९।। सायर संपति विपति में, राखे धीरज ज्ञान । कायर व्याकुल धीर तजि, सहे वचन अपमान ।।३७०।। कहा होत व्याकुल भये, होत न दुखकी हान। रिपु जीते हारे धरम, फैले अजस कहान ।।३७१।। दुखमें हाय न बोलिये, मन में प्रभु को ध्याय । मिटे असाता मिट गये, कीजे जोग उपाय ।।३७२।। कर न अगाऊ कल्पना, कर न गईको याद । सुख दुख जो बरतत अबे, सोई लीजे साध ।।३७३।। कबहूँ आभूषण वसन, भोजन विविध तयार। कबहूँ दारिद जौ-असन', लीजे समता धार ।।३७४।। धूप छाँह ज्यों फिरत है, संपति विपति सदीव । हरष शोक करि फँसत क्यों, मूढ़ अज्ञानी जीव ।।३७५।।
१. कर्तव्य, ४. चले जाने से, ७. आयु-उम्र,
२. रखने से, ५. चले जाते हैं, ८. होनहार-भवितव्य,
३. रहते हैं, ६. पुण्य, ९. रंग में भंग
३. विद्वान,
१. बहुत, ४. आगे की,
२. लकड़ी, ५. जौ का भोजन