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उपदेशाधिकार
बुधजन सतसई नीति तजे नहिं सतपुरुष, जो धन मिले करोर । कुल तिय बने न कंचनी, भुगते विपदा घोर ।।३१८।। नीति धरे निरभय सुखी, जगजन करे सराह' । भंडे जनम अनीति तें, दंडलेत नरनाह ।।३१९।। नीतिवान नीति न तजे, सहे भूख तिस त्रास । ज्यो हंसा मुक्ता विना, वनसर करें निवास ।।३२०।। लखि अनीति सुतको तजे, फिरे लोक में हीन । मुसलमान हिंदू सरव, लखे नीति आधीन ।।३२१।। जे बिगरे ते स्वादतें, तजे स्वाद सुख होय । मीन परेवा मकर हरि, पकरि लेत हर कोय ।।३२२।। स्वाद लखे रोग न मिटे, कीये कुपथ अकाज । तातें कुटकी पीजिये, खाजे लूखा नाज ।।३२३।। अमृत ऊनोदर असन, विषसम खान अघाय। वहे पुष्ट तन बल करे, यातें रोग बढ़ाय ।।३२४।। भूख रोग मेटन असन२, वसन हरनको शीत । अतिविनान नहिं कीजिये, मिलेसोलीजे मीत ।।३२५।। होनी प्राप्ति सो मिले, तामें फेर न सार ।
तृष्णा किये क्लेश है, सुखी संतोषविचार ।।३२६।। १. वेश्या, २. प्रशंसा,
३. बेइज्जत होता है, ४. नरनाथ-राजा, ५. प्यास,
६. मछली, ७. कबूतर,
८. एक कड़वी दवाई, ९.खाइये, १०. कम भोजन करना-कुछ खाली पेट रहना, ११.खूब अघाकर खा लेना, १२. भोजन,
१३. ज्यादा विचार करना
किते द्योस भोगत भये, क्यों हू तृप्ति न पाय । तृप्ति होत संतोष सों, पुन्य बढ़े अघ' जाय ।।३२७।। पंडित मूरख दो जने, भोगत भोग समान । पंडित समवृति ममत विन, मूरख हरख अमान ।।३२८।। सूत्र वांचि उपदेश सुनि, तजे न आप कषाय । जान पूछि कूवे परे, तिनसों कहा बसाय ।।३२९।। विनसमुझे ते समझसी, समझे समझे नाहिं। काचे घट माटी लगे, पाके लागे नाहिं ।।३३०।। रुचिते सीखे ज्ञान है, रुचि विन ज्ञान न होय । सूधा घट बरसत भरे, औंधा भरे न कोय ।।३३१।। सांच कहे दूषन मिटे, नातर दोष न जाय। ज्योंकी त्यों रोगी कहे, ताको बने उपाय ।।३३२।। करना जो कहना नहीं, पूछे मारग आन । निशाना कैसे मरे, ताके" आन ही थान ।।३३३।।
औरन को बहकात है, करे न ज्ञान प्रकाश । गाड़र आनी ऊन को, बांधी चरे कपास ।।३३४।। विन परिख्यां संथा कहे, मूढ़ न ज्ञान गहाय । अंधा बांटे जेवरी, सगरी वछड़ा खाय ।।३३५।।
१. दिन, ४. नासमझ, ७. परखे बिना,
२. पाप, ५. देखे, ८. पाठ-सबक,
३. अप्रमाण-बहुत, ६. भेड़, ९. तमाम, सभी