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शिकार की निंदा
जैसे अपने प्रान हैं, तैसे पर के जान । कैसे हरते दुष्ट जन, विना वैर पर प्रान ।। ४७९।। निरजन वन घनमें फिरें, भरें भूख भय हान । देखत ही घूंसत छुरी, निरदइ अधम अजान ।। ४८० ।। दुष्ट सिंह अहि मारिये, तामें का अपराध । प्रान पियारे सबनि को, याही मोटी बाध ॥। ४८१ ।। भलो भलो फल लेत है, बुरो बुरो फल लेत । तू निरदड़ है मारके, क्यों है पाप समेत ।।४८२ ।। नेकू दोष परको किये, बाढ़े बढ़ो क्लेश । जे प्रत्यक्ष प्राननि हरे, तब है चुक्यो अशेष ।। ४८३ ।। प्रान पोषना धर्म है, प्रान नाशना पाप । ऐसा परका कीजिये, जिसा सुहावे आप ।। ४८४ । ।
बुधजन सतसई
चीरी निंदा
प्रान पलत हैं धन रहे, तातें तासो प्रीति । सो जोरी चोरी करे, ता सम कौन अनीति । । ४८५ ।। लड़े मरे घर तजि फिरे, धन प्रापतिके हेत ।
ऐसे को चोरे हरे, पुरुष नहीं वह प्रेत । । ४८६ ।।
धनी लड़े नृप सिर हरे, बसे निरन्तर घात । निधरक है चोर न फिरे, डरे रहे उतपात ।। ४८७ । ।
१. बाधा, अड़चन, दोष, ४. जैसा,
२. थोडा,
५. भूत,
३. बढ़ाता है,
६. निडर
परस्त्रीसंग निषेध
१. उपाय,
४. बहुत,
७. बिल्ली,
बहुउद्यम धन मिलन का, निज परका हितकार । सो तजि क्यों चोरी करे, तामें विघन अपार । । ४८८ ।। चोरत डरे भोगत डरे, मरे कुगति दुख घोर । लाभ लिख्यो सो ना टरे, मूरख क्यों है चोर ।। ४८९ ।। चिंता चिततें ना टरे, डरे सुनत ही बात । प्रापति का निश्चय नहीं, जाग हुए मर जात ।। ४९० ।। चोर एकते सब नगर, डरे जगे सब रैन । ऐसी और न अधमता, जामें कहूँ न चैन ।। ४९१ । ।
परस्त्रीसंग निषेध
अपनी परतख देखिके, जैसा अपने दर्द । तैसा ही परनारिका, दुखी होत है मर्द ।। ४९२ ।। निपट कठिन परतिय मिलन, मिले न पूरे होंस' । लोक लड़े नृप दंड करे, परे महत पुनि दोस ।।४९३ ।। ऊँचा पद लोक न गिने, करे आबरू दूर । औगुन एक कुशलतें, नाश होत गुन भूर ।।४९४ ।। कन्या पुनि परब्याहता, सपरस अपरस जात । सारी" व्यभिचारी गहे, राखे नाहिं दुभाँत ।।४९५ ।। कपट झपट तकिबो करे, सदा जार' मांजार" । भोग करे नाहीं डरे, परे पीठ पैजार' ।। ४९६ ।।
२. इच्छा,
५. सब,
८. जूते
३. इज्जत, ६. व्यभिचारी,