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सुभाषित नीति
बुधजन सतसई आवत उठि आदर करे, बोले मीठे बैन । जातें हिलमिल बैठना, जिय पावे अति चैन ।।१४८।। भला बुरा लखिये नहीं, आये अपने द्वार । मधुर बोल यश लीजिये, नातर' अयश तयार ।।१४९।। सेय जती के भूपती, वसि वन के पुर बीच । या विन और प्रकारतें, जीवातें वर मीच ।।१५०।। घनो सुलप' आरंभ रचि, चिगें नाहिं चित धीर । सिंह ऊठके ना मुरे, करे पराक्रम वीर ।।१५१।। इंद्री पंच संकोचिके, देश काल वय पेखि । बकवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर विसेखि ॥१५२।। प्रात: उठि रिपुतें लरे, बांटे बंधुविभाग । रमनि रमनमें प्रीति अति, कुरकट ज्यों अनुराग ।।१५३।। गूढ मईथुन चख चपल, संग्रह सजें निधान । अविश्वासी परमादच्युत, वायस ज्योंमतिवान ॥१५४।। बहुभ्यासी संतोषजुत, निद्रा स्वलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यों, चितवत स्वामी हेत ।।१५५।। बहे भार ज्यों आदस्यो, सीत उष्ण क्षत देह । सदा संतोषी चतुर नर, ये रासभ५ गुन लेह ।।१५६।।
टोटा लाभ संताप मन, घरमें हीन चरित्र । भयो कदा अपमान निज, भाषे नाहिं विचित्र ।।१५७।। कोविद रहे संतोषचित, भोजन धन निज दार। पठन दान तप करनमें, नाहीं तृपति लगार ।।१५८।। विद्या संग्रह धान धन, करत हार व्योहार । अपनो प्रयोजन साधते, त्यागें लाज सुधार ।।१५९।। दोय विप्रमधि होम पुनि, सुंदर जुग भरतार । मंत्री नृप मसलत करत, जातें होत विगार ।।१६०।। वारि अगनि तिय मूढजन, सर्प नृपति रुज देव । अंत प्रान नाशे तुरत, अजतन करते सेव ।।१६१।। गज अंकुश हय चाबुका', दुष्ट खड़ग गहि पान । लकड़ीतें शृंगीनकू, वसि राखें बुधिवान ।।१६२।। वसि करि लोभी देय धन, मानी को कर जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ।।१६३।। भूपति वसि लै अनुगमन, जोवन तन धन नार । ब्राह्मण वसि है वेदतें, मिष्टवचन संसार ।।१६४।। अधिकसरलता सुखद नहिं, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बाँके खड़े हजार ।।१६५।।
१. आने पर, ४. मृत्यु, ७. बगुले के समान, १०. मैथुन, १३. चतुर,
२. नहीं तो, ५. थोड़ा, ८. विशेष, ११. चक्षु, १४. कुत्ते के समान,
३. जीने से, ६. पीछे नहीं देखता, ९. कुक्कुट-मुर्गा, १२. कौवे, १५. गधा
१.यहाँ विचित्र से विचक्षण-बुद्धिमान का अभिप्राय है, ३. अपनी पत्नी, ४. किंचित भी, ६. अयत्न से-बिना विचारे, ७. घोड़े को, ९. सींगवालों को, १०. अनुसार, १२. वृक्ष
२. बुद्धिमान, ५. रोग, ८. चाबुक से, ११. जंगल,