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________________ गुरु प्रशंसा बुधजन सतसई ये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल व्यभिचार । क्रोध कपट मद लोभ, पुनि आरंभ असत उचार ।।६६९।। चोर डरे निद्रा तजे, कर है खोट उपाय। नृप मारे मारे धनी, परभव नरकां जाय ।।६७०।। छाने पर चगली करे, उज्जल भेष बनाय। ते तो बुगला सारिखे, पर अकाज करि खाँय ।।६७१।। लाज धर्म भय ना करे, कामी कूकर एक। बहिन भानजी नीचकल, इनके नाहिं विवेक ।।६७२।। नीति अनीति लखे नहीं, लखे न आप बिगार। पर जारे आपन जरे, क्रोध अगनिकी झार ।।६७३।। तन सूधे सूधे वचन, मनमें राखे फेर । अग्नि ढकी तो क्या हुआ, जारत करत न बेर ।।६७४।। कुल ब्योहार को तज दिया, गरबीले मनमाहिं। अवसि पड़ेंगे कूप ते, जे मारग में नाहिं ।।६७५।। बाहिर चुगि शुक उड़ गये, ते तो फिरे खुशाल । अति लालच भीतर धसे, ते शुक उलझे जाल ।।६७६।। आरंभ विन जीवन नहीं, आरंभमाहीं पाप। तातें अति तजि अल्प सो, कीजे विना विलाप ।।६७७।। असत वैन नहिं बोलिये, तातें होत बिगार । वे असत्य नहिं सत्य है, जाते है उपकार ।।६७८।। क्रोधि लोभि कामी मदी, चार सूझते अंध । इनकी संगति छोड़िये, नहिं कीजे संबंध ।।६७९।। झूठ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमें जान । जक न धरे जगमें अजस, जूआ जहर समान ।।६८०।। २.छुपकर, ३. अभिमानी, ५. सुखी जाको छीवत चतुर नर, डरे करे हैं न्हान । इसा मांस का ग्रासतें, क्यों नहिं करो गिलान ।।६८१।। मदिरातें मदमत्त है, मदते होत अज्ञान । ज्ञान विना सुता मात को, कहे भामिनी मान ।।६८२।। गान तान ले मान के, हरे ज्ञान धन प्रान । सुरापान पलखान को, गनिका रचत कुध्यान ।।६८३।। तृण चावे चावे न धन, नांगे कांगे जान । नाहक क्यों मारे इन्हें, सब जिय आप समान ।।६८४।। नृप दंडे भंडे जनम, खंडे धर्म रु ज्ञान । कुल लाजे भाजे हितू, व्यसन दुखां की खान ।।६८५।। बड़े सीख वकबो करे, व्यसनी ले न विवेक। जैसे बासन चीकना, बूंद न लागे एक ।।६८६।। मार लोभ पुचकारते, व्यसनी तजे न फैल । जैसे टट्ट अटकला', चले न सीधी गैल ।।६८७।। ऊपरले मनते करे, व्यसनी जन कुलकाज । ब्रह्मसुरत भूले न ज्यों, काज करत रिखिराज ||६८८।। व्यसन हलाहलते अधिक, क्योंकर सेत अज्ञान। व्यसन बिगाड़े दोय भव, जहर हरे अब प्रान ।।६८९।। नरभव कारण मुक्त का, चाहत इंद्र फनिंद। ताको खोत व्यसन में, सो निंदन में निंद ।।६९०।। जैसो गाढ़ो व्यसन में, तैसो ब्रह्मसो होय । जनम जनम के अघ किये, पल में नाखे धोय ।।६९१।। १. झूठ, ४. तोते, १. स्नान, ५. अड़नेवाला घोड़ा, ९. सेवन करते हैं, २. मांस खाने को, ६. रास्ता , १०. धो देता है ३. घास, ४. बर्तन ७. आत्मस्वरूप, ८. ऋषीश्वर,
SR No.008343
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBudhjan Kavivar
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size242 KB
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