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सुभाषित नीति
बुधजन सतसई याहीते सुकुलीन का, भूप करे अधिकार । आदि मध्य अवसान' में, करते नाहिं विकार ।।२८४।। दुष्ट तिया का पोषना, मूरख को समझात । वैरीते कारज परे, कौन नाहिं दुख पात ।।२८५।। विपता को धन राखिये, धन दीजे रखि दार। आतमहित को छांडिये, धन दारा परिवार ।।२८६।। दारिद में दुरविसन में, दुरभिख पुनि रिपुघात । राजद्वार समसान' में, साथ रहे सो भ्रात ।।२८७।। सर्प दुष्ट जन दो बुरे, तामें दुष्ट विसेख । दुष्ट जतन का लेख नहिं, सर्प जतन का लेख ।।२८८।। नाहीं धन भूषन वसन, पंडित जदपि कुरूप । सुघर सभा में यों लसे, जैसे राजत भूप ।।२८९।। स्नान दान तीरथ किये, केवल पुन्य उपाय । एक पिता की भक्तितें, तीन वर्ग मिलि जाय ।।२९०।। जो कुदेव को पूजिके, चाहे शुभ का मेल । सो बालू को पेलिके, काढ्या चाहे तेल ।।२९१।। धिक विधवा भूषन सजे, वृद्ध रसिक धिक होय। धिक जोगी भोगी रहे, सुत धिक पढ़े न कोय ।।२९२।। नारी धनि जोशीलजुत, पति धनि रति निज नार। नीतिनिपुन नृपति धनि, संपति धनि दातार ।।२९३।।
रसना रखि मरजाद तू, भोजन बोलत बोल । बहु भोजन बहु बोलते, परिहे सिरपे धोल ।।२९४।। जो चाहे अपना भला, तो न सतावो कोय । तिनहू के दुरशीषतें, रोग शोक भय होय ।।२९५।। हिंसक जे छुपि बन बसे, हरि अहि जीव भयान । घने बैल हय गरधभा, गऊ भैंस सुखदान ।।२९६।। वैर प्रीति अबकी करी, परभव में मिलि जाय। निबल सबल हैं एकसे, दई करत है न्याय ।।२९७।। संस्कार जिनका भला, ऊँचे कुल के पूत । ते सुनिके सुलटे जलद, जैसे ऊन्या सूत ।।२९८ ।। पहले चौकस ना करी, डूबत व्यसन मँझार । रंग मजीठ छूटे नहीं, कीये जतन हजार ।।२९९।। जे दुरबल को पोषि हैं, दुखतें देत बचाय । तातें नृप घर जनम ले, सीधी संपति पाय ।।३००।।
।। इति सुभाषित नीति ।।
१.आदर, ४. दुर्भिक्ष, ७. तीन पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम
२. अन्त में, ५. श्मशान में, ८. पुण्य,
३. स्त्री, ६. इलाज, ९. कुछ भी
१. मार, ४. गधा, ७. शीघ्र, १०. बिना प्रयत्न के
२.बुरा आशीर्वाद-शाप,
५. इस समय की, ८. नटाईपर चढ़ाया,
३. सिंह,
६. विधाता या कर्म, ९.सम्हाल,