SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुधजन सतसई सुभाषित नीति सुष्क साक का असन वर, निरजन वन वर वास । दीन-वचन कहिबो न वर, जोलों तनमें साँस ।।२४६।। एकाक्षरदातार गुरु, जो न गिने विनज्ञान । सो चँडाल भव को लहे, तथा होयगा श्वान ।।२४७।। सुख दुख करता आन है, यों कुबुद्धिश्रद्धान । करता तेरे कृतकरम, मेटे क्यों न अज्ञान ।।२४८।। सुखदुखविद्या आयुधन, कुल बलवित अधिकार । साथ गर्भ में अवतरे, देह धरी जिहि बार ।।२४९।। वन रन रिपुजल अगनि गिरि, रुज निद्रामद मान । इनमें पुन रक्षा करे, नाहीं रक्षक आन ।।२५०।। दुराचारि तिय कलहिनी, किंकर कूर कठोर। सर्प साथ वसिवो सदन, मृत समान दुख घोर ।।२५१।। संपति नरभव ना रहे, रहे दोषगुनबात । रहे जु वन में वासना, फूल फूलि झर जात ।।२५२।। एक त्यागि कुल राखिये, ग्राम राख कुल तोरि। ग्राम त्यागिये राजहित, धर्म राख सब छोरि ।।२५३।। नहिं विद्या नहिं मित्रता, नाहीं धन सनमान । नहीं न्याय नहिं लाज भय, तजो वास ता थान ।।२५४।। किंकर जो कारज करे, बांधव जो दुख साथ । नारी जो दारिद सहे, प्रतिपाले सो नाथ ।।२५५।। २. कुत्ता, ३. रोग, ४. पुण्य, ५.सेवक, ६. छोड़कर नदी नखी शृंगीनि में, शस्त्रपानि नर नारि। बालक अर राजान ढिग, बसिये जतन विचारि ।।२५६।। कामी को कामिन मिलन, विभवमाहिरुचिदान । भोगशक्ति भोजन विविध, तप अत्यंत फल जान ।।२५७।। किंकर हुकमी सुत विबुध', तिय अनुगामिनि जास। विभव सदन नहिं रोग तन, ये ही सुरग निवास ।।२५८।। पुत्र वही पितुभक्त जो, पिता वहीं प्रतिपाल । नारि वही जो पतिव्रता, मित्र वही दिल माल ।।२५९।। जो हँसता भाषण करे, चलता खावे खान । द्वै बतरावत जात जो, सो सठ ढीठ अजान ।।२६०।। तेता आरंभ ठानिये, जेता तनमें जोर। तेता पाँव पसारिये, जेती लांबी सोर ।।२६१।। बहुते परप्रानन हरे, बहुते दुखी पुकार । बहुते परधन तिय हरे, बिरले चलें विचार ।।२६२।। कर्म धर्म बिरले निपुन, बिरले धन दातार । बिरले सत बोले खरे, बिरले परदुख टार ।।२६३।। गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन वन चंदन नाहिं। उदधि सारिसे साधुजन, ठोर ठोर ना पाहिं ।।२६४।। १. नखवाले, ४. दान देने में रुचि, ७.समुद्र के समान गंभीर २.सींगवाले, ५. पण्डित, ३. हाथ में हथियार रखनेवाला मनुष्य, ६. रजाई, १.सूखा,
SR No.008343
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBudhjan Kavivar
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size242 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy