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दिवाकर चित्रकथा
अंक ९,१० मूल्य ३०.००
HARVINDER SINGH
करुणानिधान
भगवान महावीर
यसंस्कार निर्माण
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विचार शद्धि : ज्ञान वृद्धि
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मनोरंजन
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करुणानिधान भगवान महावीर
चौबीसवें तीर्थंकर चरम तीर्थाधिपति श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी का जन्म ईस्वी पूर्व ५९९, अर्थात् वि. पू. ५४२ चैत्र शुक्ला १३ की शुभ रात्रि में हुआ। वे बाल्यकाल से ही धीर, वीर, साहसी करुणाशील और सर्वोच्च पुण्य-लक्ष्मीवंत थे। अनन्तबली होते हुए भी परम क्षमाशील थे। “प्रत्येक जीव को अभय दो, सबके साथ मैत्रीपूर्ण और समतापूर्ण व्यवहार करो"-इस सिद्धान्त को, उपदेश देने से पहले उन्होंने अपने जीवन में उतारा। ३० वर्ष की युवावस्था में संयम और त्याग की कठोर साधना करने के लिए उन्होंने राज-वैभव का त्यागकर मुनिव्रत धारण किया। लगभग १३ वर्ष तक अत्यन्त भीषण उपसर्ग, कष्ट और परीषह सहने के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। समस्त प्राणीगण को समता, संयम, अपरिग्रह, अनेकान्त और अहिंसा का उपदेश देते हुए ७२ वर्ष की अवस्था में पावापुरी में निर्वाण को प्राप्त हुए।
'तीर्थंकर' पद संसार का श्रेष्ठतम आध्यात्मिक उच्च पद है। अनेक जन्मों में तप-ध्यान-संयम-करुणा-मैत्री आदि की दीर्घ साधना करने के बाद कोई विरल आत्मा इस श्रेष्ठता को प्राप्त करती है। इसीलिए भगवान महावीर की जीवन कथा पिछले २६ जन्मों से प्रारंभ करके वर्तमान जीवन तक ली गई है। इन घटनाओं से पता चलता है कि कितनी सुदीर्घ साधना के बाद यह पद प्राप्त होता है।
इस जीवन कथा का मुख्य आधार कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरीश्वर जी कृत त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र है। अध्यात्मयोगी आचार्यदेव श्रीमद्विजय कलापूर्ण सूरीश्वर मी म. सा. के शिष्यरत्न मुनि श्री पूर्णचन्द्र विजय जी ने संक्षिप्त किन्तु सार रूप में यहाँ भगवान महावीर का दिव्य जीवन-वृत्त चित्र कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
लेखक : पूज्य मुनिश्री पूर्णचन्द्र विजय जी म. सा.
संपादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस'
प्रकाशन प्रबन्धक: संजय सुराना
चित्रांकन : श्यामल मित्र
© सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन :
राजेश सुराना द्वारा दिवाकर प्रकाशन ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-282 002 (भारत)
दूरभाष : (0562) 351165, 51789
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करुणा निधान भगवान महावीर
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'तीर्थंकर' पद संसार में सर्वोच्च महान पद है।
अनेक जन्मों की तपस्या और साधना के फलस्वरूप आत्मा इस महान पद को प्राप्त करती हैं। तीर्थंकर भगवान महावीर के इस पद तक पहुँचने के पीछे २७ जन्मों की तपस्या, और
साधना की लम्बी कहानी है।
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करुणानिधान भगवान महावीर
नम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में जयन्ती नगरी पर राना शत्रुमर्दन का राज्य था। वहाँ नयसार नाम का एक वनरक्षक रहता था, जो बड़ा दयालु, सदाचारी, और सरल हृदय था। एक दिन राजा ने नयसार को आदेश दिया| राज भवन के निर्माण के लिए बढ़िया इमारती
जो आज्ञा |लकड़ी की जरूरत है।
महाराज। | वर्षा ऋतु आने से पहले। यह काम पूरा करो!
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नयसार सैकड़ों मजदूरों को लेकर वन में गया और वन की कटाई चालू करा दी।
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करुणानिधान भगवान महावीर
नयसार स्वयं भी भोजन करने के लिए। एक घने वृक्ष की छाया में बैठ गया।
दोपहर का समय होने पर नयसार ने अपने सेवक को आज्ञा दीधूप बहुत तेज हो गई है। मजदूरों को भोजन
की छुट्टी दे दो,
सेवक ने नयसार के सामने भोजन और छाछ का मटका रख दिया। मन हो रहा है. पहले या
किसी अतिथि को भोजन कराकर फिर भोजन करूं?
मुनियों को देखकर नयसार प्रसन्न हुआ। उनके सामने गया और नमस्कार करके पूछा(महात्मन् ! घने जंगल जंगल की । में चिलचिलाती धूप में पगडण्डियों में | आप इधर कैसे? 4 हम रास्ता
भूल गये।
तभी उसने देखा दूर से कुछ तपस्वी मुनि उसी की तरफ आ रहे हैं।
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करुणानिधान भगवान महावीर महात्मन् ! आप बहुत थके, भूखे-प्यासे | भोजन और विश्राम करने के बाद मुनियों | लग रहे हैं। मेरे लिए आया हुआ शुद्ध | | ने नयसार से कहाभोजन और मठा तैयार है, कुछ इसमें |
पभद्र ! अब हमें आगे का रास्ता से ग्रहण कर मुझे धर्मलाभ दीजिए।
बता दो ताकि हम रात होने से पहले नगर में पहुंच जायें।
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मुनियों ने आहार ग्रहण किया। नयसार के मन का कण-कण हर्ष से नाचने लगा।
नयसार मुनियों के साथ जंगल में दूर तक छोड़ने आया।
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महात्मन् ! पहाड़ी के नीचे-नीचे यह पगडंडी सीधी नगर की तरफ
जाती है, सीधे चले जाइए।
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भद्र ! तुमने हमें इस अटवी को पार करने का मार्ग बताया है, हम भी तुम्हें इस संसार रूपी अटवी से पार होने का
मार्ग बताना चाहेंगे।
नयसार रास्ता बताकर वापस लौटने लगा तो मुनियों ने कहा
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करुणानिधान भगवान महावीर नयसार हाथ जोड़कर मुनियों की वाणी सुनने लगा
महात्मन् ! मैं आपके बताये रास्ते
पर चलने का अवश्य प्रयत्न करूंगा। भद्र ! इस संसार रूपी अटवी को पार करने
आज मेरा जीवन धन्य हो गया। के लिए देव गुरु और धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखो। श्रद्धा और सदाचार यही कल्याण के दो मार्ग हैं।
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गुरु की वाणी सुनकर नयसार को भवचक्र में प्रथम बार शुद्ध श्रद्धा रूप सम्यक्दर्शन का स्पर्श प्राप्त हुआ। ।
इतना कहकर मुनि आगे नगर की तरफ चले गये। नयसार वापस लौट आया।
जीवन के अन्तिम समय तक नयसार दान, सेवा, मृत्यु-पश्चात् नयसार का जीव और सच्चाई के मार्ग पर चलता रहा। नमस्कार | प्रथम स्वर्ग में देव बना। महामंत्र का स्मरण करते हुए उसने शान्तिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की। जब
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स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण होने पर नयसार के जीव ने ऋषभदेव के पुत्र, भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती सम्राट, महाराज भरत के घर जन्म लिया।
इस बालक के शरीर से तेज किरणें निकल रही हैं इसलिये इसका नाम मरीचि रखना चाहिए।
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करुणानिधान भगवान महावीर
• मरीचि == किरणें
भगवान ऋषभदेव का प्रवचन सुनकर मरीचि को
वैराग्य उत्पन्न हो गया।
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भगवन् ! आपका उपदेश सुनकर मुझे वैराग्य हो गया। मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ।
जहा सुहं देवाणुप्पिया !
| मरीचि बड़ा हुआ। एक दिन भरत चक्रवर्ती के साथ भगवान ऋषभदेव के समवसरण में प्रवचन सुनने के लिए गया।
उसी का जीवन सफल है, जो तप-संयम की आराधना करते हुए समाधि भाव में रमण करें।
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भगवान ऋषभदेव ने कहा
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जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो। #
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मरीचि ने दीक्षा ग्रहण कर ली और तपस्या करने लगा।
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करुणानिधान भगवान महावीर
एकबार मरीचि मुनि विहार कर रहे थे। ग्रीष्म ऋतु का समय था। तेज धूप और लम्बी यात्रा के कारण भूख, प्यास से बेहाल होकर सोचने लगे
ओह ! कितना कठिन है श्रमण जीवन। इस तपती भूमि पर गर्मी में नंगे पाँव नहीं चला जा रहा है।ओह ! भूख भी लगी है।
प्यास से कंठ सूख रहा है।
परन्तु श्रमण जीवन की मर्यादा के अनुसार मैं ये फल भी नहीं खा सकता! झरनों का मल भी नहीं पी सकता। क्या करूं?
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मरीचि ने अपनी ही कल्पना से वेष में सुविधानुसार परिवर्तन कर लिया। गर्मी से बचने के लिये सिर पर छतरी रखने लगे। पैरों में खड़ाऊँ पहनने लगे।
मुनि-जीवन के कठोर व्रतों से मरीचि का मन घबरा गया। तभी उन्हें एक अनौखा उपाय सूझामैं इन नियमों में कुछ परिवर्तन कर लेता हूँ, जिससे मुझे इतने शारीरिक कष्ट भी नहीं उठाने पड़ेंगे और साधना के
मार्ग पर भी चल सकूँगा।
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वे भगवान ऋषभदेव के साथ ही विहार करते
और उनके समवसरण के द्वार पर त्रिदण्ड लेकर खड़े रहकर लोगों को धर्म प्रेरणा देते।।
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करुणानिधान भगवान महावीर
एक बार भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव का प्रवचन सुनने आये। प्रवचन के पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने पूछा
प्रभो ! आज संसार में आप जैसा ज्ञानादि दिव्य विभूतियों से संपन्न दूसरा कोई नहीं है। परन्तु क्या कोई ऐसा जीव यहाँ उपस्थित है, जो भविष्य
में आपके समान बन सकेगा?
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भगवान ऋषभदेव बोले.
भरत ! तुम्हारा पुत्र मरीचि भविष्य | में वर्धमान नामक चौबीसवां तीर्थंकर
बनेगा। तीर्थंकर बनने से पहले वह | वासुदेव और चक्रवर्ती भी बनेगा।
भगवान की भविष्यवाणी सुनकर सम्राट भरत के हर्ष का पार नहीं रहा। वे नंगे पाँव ही समवसरण के बाहर भागे और मरीचि को भविष्यवाणी सुनायी। अपना भविष्य सुनकर मरीचि बहुत प्रसन्न हुआ। उसे अपने कुल पर घमण्ड होने लगा
वाह ! मेरा कुल कितना महान है! मेरा वंश संसार में
सबसे उत्तम है!
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करुणानिधान भगवान महावीर आते-जाते लोगों के सामने मरीचि ताली पीट-पीटकर एकबार मरीचि बीमार हुआ। सेवा के लिए उसने उछलकर अपने कुल गौरव का बखान करने लगा | कपिल नामक राजकुमार को अपना शिष्य बना लिया।
मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर हैं। मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मैं अन्तिम तीर्थंकर बनूँगा अहा !
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मृत्यु को निकट जानकर मरीचि ने अनशन व्रत कर लिया।
मरीचि भव के बाद भगवान महावीर के जीव ने बारह जन्म लिये। जिसमें छ: भव (जन्म) देवलोक में और छ: भव मनुष्य के किये। मनुष्य भव में वे त्रिदण्डी परिव्राजक बने।
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मरीचि को कुल मद के कारण नीच गोत्र कर्म का बन्ध हुआ।
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करुणानिधान भगवान महावीर
सोलहवें भव में भगवान महावीर का जीव राजगृह नगर के राजा विश्वनन्दी के छोटे भाई के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया 'विश्वभूति'। एक बार विश्वभूति राजकीय उद्यान में अपनी रानियों के साथ वन क्रीड़ा कर रहा था तभी उसका चचेरा भाई विशाखानन्दी भी वहाँ आ पहुँचा
ठहरिये राजकुमार! आप उद्यान के अन्दर नहीं जा सकते।
अन्दर कुमार विश्वभूति अपनी रानियों के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं।
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विशाखानन्दी इस अपमान से तिलमिला उठा। माता से मिलकर युद्ध का बहाना करके उसने विश्वभूति को उद्यान से निकलवा दिया। और स्वयं उद्यान पर कब्जा कर बैठा।।
विश्वभूति युद्ध से लौटकर उद्यान में घुसने लगा तो पता चला भीतर कुमार विशाखानन्दी क्रीड़ा कर रहा है। उसने गुस्से में आकर पास के एक विशाल कपित्थ वृक्ष पर जोरदार लात मारी। वृक्ष के फल भरभरा कर गिर पड़े। पहरेदार काँपने लगे।
देखो मेरे साथ धोखा करने वाले का मैं यही हाल कर सकता हूँ।
धिक्कार है संसार के झूठे । नाते-रिश्ते को। एक छोटी-सी बात के लिए माता-पिता भी संतान के साथ यों प्रपंच करते हैं?
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परन्तु दयावान विश्वभूति का हृदय अपने भाई विशाखानन्दी के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार करने को तैयार नहीं हुआ।
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करुणानिधान भगवान महावीर ।
सैकड़ों वर्षों तक तपस्या करने से मुनि | विश्वभूति को कई लब्धियाँ प्राप्त हो गई।
एक बार मुनि विश्वभूति मासखमण की तपस्या का पारणा लेने के लिये मथुरा पधारे।इधर राजकुमार विशाखानन्दी भी मथुरा आया हुआ था। उसने मुनि विश्वभूति को राजमार्ग पर चलते देखा तो पहचान लिया।
अरे ! यह तो विश्वभूति है। इसका शरीर कितना दुर्बल हो गया है?
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मुनि भिक्षा के लिये धीरे-धीरे द्वार-द्वार घूम रहे।। थे, तभी एक गाय ने उन्हें टक्कर मार दी।
मुनि जमीन पर गिर पड़े। यह देखकर विशाखानन्दी खूब जोर से हंसाहा ! हा ! क्या तुम वही विश्वभूति हो, जिसकी एक लात से विशाल वृक्ष पत्ते की तरह काँपने लगा था ? आज गाय की हल्की सी टक्कर से गिर पड़े ? कहाँ गया तुम्हारा पराक्रम, कहाँ गयी तुम्हारी शक्ति ?
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मुनि ने उपहास करते हुए विशाखानन्दी को देखा तो भीतर में दबी क्रोध की अग्नि भड़क उठी।
करुणानिधान भगवान महावीर
दुष्ट ! विशाखानन्दी ! मैं राजपाट छोड़कर साधु बन गया हूँ तब भी तू भूत की तरह मेरे पीछे लगा है ? मेरी सहनशीलता को दुर्बलता मत समझ, मूर्ख !
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क्रोध में भर भराये मुनि ने गाय के दोनों सींगों को हाथ से पकड़ा और घुमाकर आकाश में उछाला और गेंद की तरह हाथ में वापस लपक लिया।
अपमान से तिलमिलाये विश्वभूति ने उद्घोष किया। यदि मेरे किये हुये तप का कोई फल हो तो अगले जन्म में मैं महान पराक्रमी बलशाली राजा बनकर तुझसे बदला लूँगा।
इस प्रकार क्रोध के कारण विश्वभूति ने वर्षों की तपस्या के फल को व्यर्थ कर दिया।
विश्वभूति का जीव आयुष्य पूर्ण कर देव बना।
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विशाखानन्दी सकपका कर भागा।
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करुणानिधान भगवान महावीर
देवलोक से आयु पूर्ण करके अठारहवें भव में भगवान महावीर का जीव पोतनपुर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के गर्भ में आया। रानी ने सात शुभ स्वप्न देखे।
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रानी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पीठ पर तीन रेखाएँ देखकर उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा गया।
उस समय रत्नपुर में अश्वग्रीव नाम का प्रतिवासुदेव राजा अपनी सेना के बल पर पूर्व जन्म की तपस्या के फलस्वरूप त्रिपृष्ठ कुमार अद्भुत आस-पास के राज्यों पर अधिकार जमा रहा पराक्रमी, साहसी और तेजस्वी राजकुमार बना ।
था। उसने भरत क्षेत्र के तीनों खण्डों पर अपना एक छत्री राज्य स्थापित कर लिया था।
• वासुदेव के जन्म के समय उनकी माता को सात शुभ स्वप्न आते हैं।
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जब अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ कुमार के बल और शौर्य के चर्चे सुने तो उसके मन में एक शंका उठी। उसने ज्योतिषी को बुलाकर पूछा
क्या इस जगत में मुझसे (बढ़कर बलशाली कोई है ? जो मुझे मारकर मेरा राज्य छीन ले?
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करुणानिधान भगवान महावीर
उसने चण्डमेघ दूत को प्रजापति के पास भेजा। दूत सीधा राजसभा में घुस आया और अल्हड़पन से एक ऊँचे आसन पर जाकर बैठ गया। यह देखकर त्रिपृष्ठ कुमार को 'बहुत क्रोध आया।
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ज्योतिषी ने बताया
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इस मूर्ख दूत को राजसभा में आने और बैठने की भी तमीज नहीं है। इसे धक्के देकर सभा से बाहर निकाल दो।
अश्वग्रीव का दिल धड़क उठा।
महाराज, जो वीर आपके चण्डमेघदूत का अपमान करेगा और तुंगगिरी पर्वतों में रहने वाले खूँखार केसरी सिंह को मार डालेगा उसी व्यक्ति के हाथों आपकी मृत्यु होगी।
सैनिकों ने चण्डमेघ दूत को अपमानित करके राजसभा से बाहर धकेल दिया।
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कलणानिधान भगवान महावीर दूत वापस अश्वग्रीव के पास पहुंचा। नमक-मिर्च लगाकर अपने अपमान की घटना सुनाई।अश्वग्रीव बहुत क्रोधित हुआ कुछ ही दिनों बाद अश्वग्रीव ने राजा प्रजापति के पास संदेश भेजा
तुंगगिरी के वन में रहने वाले सिंह को मारकर वहाँ के निवासियों की रक्षा करने के लिए जाइए।
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अश्वग्रीव का आदेश सुनकर त्रिपृष्ठ कुमार राजा प्रजापति से बोला
जाला । पिताश्री ! इस छोटे से काम के लिये मुझे जाने दीजिये। आप निश्चिंत रहियेNOSELविजयी बनो! मैं सिंह को मारकर ही आऊँगा।
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भागो! सिंह मार डालेगा।
त्रिपृष्ठ कुमार अपने बड़े भाई बलदेव के साथ सैनिकों को लेकर वन की में पहुंचा। सिंह की गुफा के पास पहुंचकर सैनिकों ने हल्ला किया तो गुफा में सोया सिंह उठ गया और दहाड़ता हुआ सैनिकों पर झपटा।
बचाओ।
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करुणानिधान भगवान महावीर कुमार ने सिंह को सामने देखकर सोचा- राजकुमार त्रिपृष्ठ रथ से उतरे और शरत्र फैंकका
अकेले सिंह के सामने पहुंच गये। सिंह ने जैसे ही यह सिंह निहत्था कुमार पर आक्रमण कियाहै तो मैं भी शस्त्र से क्यों लडूं?
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EGA कुमार ने सिंह का जबड़ापकड़कर यों चीर डाला जैसे कोई पुराना कपड़ा हो?
सिंह को मारने की खबर सुनते ही अश्वग्रीव पर बिजली सी गिर पड़ी
यह छोकरा अवश्य ही मेटी। र मृत्यु का कारण बनेगा। इसे ।
खत्म कर देना चाहिये।
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करुणानिधान भगवान महावीर | अश्वग्रीव ने घबराकर प्रजापति से युद्ध की घोषणा | कर दी। भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया।
अन्त में अश्वग्रीव
त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्यार चक्र से मारा गया।
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एक बार त्रिपृष्ठ वासुदेव की
सभा में संगीत का मधुर | कार्यक्रम चल रहा था। वासुदेव ने अपने शय्यापालक से कहा
मुझे नींद आ जाये तो यह संगीत बन्द करा देना।
संगीत सुनते-सुनते ही वासुदेव को नींद लग गई। संगीत की मधुर तान में शय्यापालक इतना
मग्न हो गया कि उसे सम्राट | का आदेश याद ही नहीं रहा।
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देर रात तक संगीत सभा चलती रही।
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करुणानिधान भगवान महावीर
सम्राट की नींद खुली, देखा संगीत की महफिल वैसी ही जमी है। उन्हें क्रोध आ गया। शय्यापालक को डाँटते हुए बोले
मैंने कहा था कि मुझे नींद आ जाये तो संगीत बन्द करा देना, तुमने संगीत बन्द क्यों नहीं कराया?
क्षमा करें महाराज, मैं संगीत सुनने में इतना मग्न हो गया कि ।
बन्द कराना ही भूल गया।
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सैनिकों ने शय्यापालक के कानों में खौलता हुआ शीशा भर दिया।
यह सुनकर त्रिपृष्ठ वासुदेव आग-बबूला हो गये।
अपने स्वामी की आज्ञा से भी ज्यादा इसके कानों को संगीत अच्छा लगता है। जाओ इसके
दोनों कानों में खौलता शीशा डाल दो।
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भयंकर वेदना से छटपटाते शय्यापालक'
के प्राणपखेल उड़ गये। शय्यापालक का जीव आगे चलकर ग्वाला बना, निसने भगवान महावीर के कानों में कीलें ठोंक कर अपना बदला लिया।
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करुणानिधान भगवान महावीर | त्रिपृष्ठ वासुदेव ने अपना सारा जीवन भोग-विलास और युद्धों में बिता दिया।
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और बाईसवें भव में विमल नामक राजकुमार बना।
भगवान महावीर का जीव अपने तेईसवें भव में महाविदेह क्षेत्र की मूका नगरी में राजा धनंजय और धारिणी रानी के घर रामकुमार के रूप में जन्मा। कुमार का नाम प्रियमित्र रखा गया। राजकुमार गरीबों के प्रति दयालु और पशु-पक्षियों के प्रति करुणावान था।
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करुणानिधान भगवान महावीर
असीम पुण्य बल का स्वामी प्रियमित्र युवा होने पर चक्रवर्ती सम्राट बना। वह प्रजा को पुत्र की तरह पालता था। साधु सन्तों की भक्ति और ग़रीबों की सेवा करके उसे आनन्द प्राप्त होता था । एक दिन मूका नगरी में पोट्टिलाचार्य नाम के आचार्य पधारे। प्रियमित्र चक्रवर्ती ने आचार्य श्री का स्वागत किया।
प्रियमित्र ने पोट्टिलाचार्य का प्रवचन सुना। मार्मिक शब्द अंतःकरण को छू गये।
मुनिवर ! मैं सांसारिक भोगों को त्यागकर तप-संयम की साधना करना चाहता हूँ। कृपया मुझे दीक्षित कीजिये ।
| पोट्टिलाचार्य ने उसे अपना शिष्य बना लिया।
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प्रियमित्र मुनि ने एक करोड़ वर्ष तक तप, ध्यान संयम आदि की आराधना की। दिन में सूर्य के सामने खड़े होकर आतापना लेते। रात में वस्त्र रहित वीरासन से ध्यान करते थे।
अनशनपूर्वक शरीर त्याग कर महाशुक्र कल्प में देव बने।
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- करुणानिधान भगवान महावीर महाशुक्र कल्प से आयुष्य पूर्ण होने पर भगवान का नीव भरतक्षेत्र की रक्षा नगरी में राजा नितशत्रु की रानी भद्रा के पुत्र 'नन्दन' के रूप में जन्मे संध्या के बदलते रंग को देखकर राजकुमार नन्दन का मन संसार से विरक्त हो गया।
जिस तरह संध्या के रंग क्षण-क्षण बदल रहे हैं उसी तरह यह जीवन, सुख, भोग और आयुष्य अस्थिर है।
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राजकुमार नंदन ने दीक्षा ग्रहण कर ली।
बीस पवित्र स्थानों की बार-बार आराधना करते हुये तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया
वे कठिन तपस्या और ध्यान समाधि में लीन रहते।नन्दन मुनि ने एक लाख वर्ष तक निरन्तर ११८०६४५ मासखमण की उग्र तपस्या की। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया।
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तपश्चरण ।
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नन्दन मुनि ने साठ दिन का अनशन कर देह त्यागी। वे दसवें स्वर्ग में देव हुये।
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करुणानिधान भगवान महावीर
• वैशाली के उत्तर भाग में ब्राह्मणकुण्ड नाम का एक उपनगर था। वहाँ भगवान पार्श्वनाथ का भक्त ऋषभदत्त नाम का धनाढ्य ब्राह्मण अपनी पत्नी देवानन्दा के साथ रहता था। भगवान महावीर का जीव दसवें देवलोक से आयु पूर्ण करके देवानन्दा के गर्भ में आया। (उस रात देवानन्दा ने १४ शुभ स्वप्न देखे) ।
भगवान महावीर के गर्भ में आने के बयासी दिन पश्चात् सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से देखा। अन्तिम तीर्थंकर माता देवानन्दा के गर्भ में आये हुये हैं।
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फिर इन्द्र ने विचार किया।
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तीर्थंकर भगवान का जन्म तो सदा ही क्षत्रिय कुल में
होता है। आश्चर्य ! भगवान का जीव ब्राह्मण कुल में आया है?
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करुणानिधान भगवान महावीर
अपने कर्त्तव्य का विचार कर सौधर्मेन्द्र ने सेनापति हरिणैगमैषी को बुलवाया।
ओह ! लगता है मेरा सब कुछ लुट गया।.
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हरिणैगमैषी, आप देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से भावी तीर्थंकर का संहरण करके महारानी त्रिशळा के गर्भ में स्थापित करें ।
हरिणैगमैषीदेव ने इन्द्र की आज्ञा का पालन किया। देवानन्दा के गर्भ को त्रिशला रानी के गर्भ में स्थापित कर दिया।
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और त्रिशला रानी के गर्भ को देवानन्दा के गर्भ में रख दिया।
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करुणानिधान भगवान महावीर आषाढ़ कृष्णा छ: की मध्यरात्रि के समय त्रिशला रानी ने चौदह महास्वप्न देखे।
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प्रातःकाल रानी त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ से अपने शुभ स्वप्नों की चर्चा की। राजा ने ज्योतिषियों को बुलाकर स्वप्नों के विषय में पूछा। ज्योतिषियों ने स्वप्न शास्त्र के अनुसार चौदह स्वप्नों के फल बताये। और कहा
महाराज, महारानी के गर्भ से अलौकिक आत्मा का जन्म होगा, जो समूचे संसार को शांति और
कल्याण का मार्ग बताने वाला 2Rधर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर बनेगा।
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करुणानिधान भगवान महावीर
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि के समय माता त्रिशला ने एक दिव्य शिशु को जन्म दिया। समूचा संसार प्रकाश से जगमगा उठा। ५६ दिक्कुमारिकाओं ने सूतिका कर्म किया और देवताओं के झुण्ड चौबीसवें तीर्थंकर का जन्म कल्याणक महोत्सव मनाने क्षत्रियकुण्ड की ओर चल पड़े।
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सौधर्मेन्द्र आदि चौंसठ इन्द्रों एवं असंख्य देवताओं ने मिलकर मेरूपर्वत पर ले
नाकर भगवान का जन्म अभिषेक किया।
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करुणानिधान भगवान महावीर
प्रातःकाल की प्रकाश किरणे फूटने के साथ प्रियंवदा | | महाराज सिद्धार्थ ने इस खुशी में अपने गले का हार, दासी ने महाराज सिद्धार्थ को पुत्र जन्म की सूचना दी। दासी को देते हुए कहा
(इस खुशी के अवसर पर तुम्हें जीवन महाराज बधाई हो! बधाई
भर के लिए दासकर्म से मुक्त हो! महारानी ने भाग्यशाली
किया जाता है। पुत्र रत्न को जन्म दिया है।
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हर्ष उल्लास से पुलकित महाराज सिद्धार्थ | ने महामन्त्री को बुलाकर आदेश दिया।
क्षत्रियकुण्ड में हर्षोल्लास से दस दिन तक भगवान का जन्मोत्सव मनाया गया।
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समूचे नगर में उत्सव मनाया जाय, कैदियों को रिहा कर दो। गरीबों को दान देने के लिये राजकोष के द्वार खोल दो।)
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करुणानिधान भगवान महावीर जन्म के बारहवें दिन पुत्र का नामकरण संस्कार किया गया।
जब से यह बालक देवी त्रिशला के गर्भ में आया है, हमारे राज्य में सुख-समृद्धि, यश-कीर्ति की वृद्धि हो रही है। अतः इस बालक का नाम 'वर्धमान' # रखा जाय।
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| कुमार वर्धमान बचपन से ही बहुत वीर और साहसी थे।
वे मल्ल युद्ध, घुड़सवारी आदि चौंसठ कलाओं में निपुण थे।
# वर्धमान - वृद्धि करने वाला।
एक बार इन्द्र ने देव सभा में कुमार वर्धमान की प्रशंसा करते हुये कहा
कुमार वर्धमान के समान वीर और पराक्रमी आज संसार में दूसरा कोई नहीं है।
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एक देव को यह प्रशंसा रास नहीं आई। वह वर्धमान की परीक्षा लेने पृथ्वी की ओर चल दिया।
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करुणानिधान भगवान महावी
पृथ्वी पर वर्धमान अपने मित्रों के साथ ज्ञातखण्ड वन में खेल रहे थे।
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जो उस वृक्ष पर सबसे पहले चढ़ जाएगा, वही विजयी होगा।
वह मायावी देव काले नाग का रूप बनाकर पेड़ के तने से लिपट गया और फुंकारने लगा।
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और सांप को फुर्ती से पकड़कर मैदान में एक तरफ ले जाकर झाड़ियो में छोड़ दिया।
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बच्चे एक साथ दौड़े। वर्धमान सबसे पहले पहुँच कर वृक्ष पर चढ़ गये।
वर्धमान ने ऊपर से सीधे नीचे छलांग लगाई
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करुणानिधान भगवान महावीर
कुछ देर बाद बच्चे वापस दूसरा खेल खेलने लगे।
हममें से जो उस वृक्ष को सबसे पहले छू लेगा, वह विजेता होगा और हारने
वाला विजेता का घोड़ा बनेगा।
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हा! हा!
परीक्षा लेने आया मायावी देव भी बालक बनकर बच्चों की टोली में मिल गया। खेलते-खेलते वह जानबूझ कर डार गया उसने. वर्धमान को अपनी पीठ पर बैठाया।
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हाँ, अब मैं अच्छी तरह सवारी करूंगा।
कुछ दूर चलने के बाद उसने अपना विकराल रूप बनाया। अपने शरीर का आकार बढ़ाने लगा और आकाश में उड़ने लगा।
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जब देव नहीं रुका तो कुमार वर्धमान ने कसकर उसके कंधे पर एक मुक्का मारा।
ओह ! मर गया !
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करुणानिधान भगवान महावीर
महावीर वर्धमान
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दर्द से कराहता हुआ वह देव तुरन्त अपने असली रूप में आ गया और वर्धमान से क्षमा माँगी।
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तब तक बच्चे गाँव से कुछ लोगों को लेकर आ गये थे। जब लोगों ने दैत्य की जगह एक देव को चरणों में झुका देखा तो जय-जयकार करने लगे।
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यह बालक तो वीरों का वीर महावीर है।
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मैं आपके साहस की परीक्षा लेने आया था। आप सचमुच वीर ही नहीं, महावीर है।
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उस दिन से वर्धमान महावीर कहलाने लगे।
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करुणानिधान भगवान महावीर युवा होने पर एक दिन माता-पिता ने वर्धमान माता-पिता के आग्रहवश राना समरवीर की पुत्री से कहा
यशोदा के साथ महावीर का पाणिग्रहण हुआ। बेटा, भले ही तेरी इच्छा नहीं है, किन्तु हमारी इच्छा पूरी करने के लिए ही तुझे विवाह करना चाहिए।
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जब महावीर २८ वर्ष के हुये तब तक उनके कुमार वर्धमान अनुमति लेने के लिए बड़े भाई पिता राजा सिद्धार्थ तथा माता त्रिशला स्वर्गवासी नन्दीवर्धन के पास गये। नन्दीवर्धन ने दीक्षा की हो चुके थे।
बात सुनी तो वह बहुत दुःखी हुए। अब मुझे दीक्षा लेकर भाई ! अभी माता-पिता के शोक से मेरा तप संयम का कठोर || हृदय दुःखी है. तुम भी छोड़कर चले मार्ग अपनाना चाहिये। जाओगे तो मुझे कौन सहारा देगा?/
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महावीर मौन रहे। तब नन्दीवर्धन ने कहा
अच्छा भाई, मेरा स्नेहाग्र मानकर दो वर्ष तक और रूक जाओ, फिर दीक्षा ले लेना।
करुणानिधान भगवान महावीर
भाई की बात मानकर महावीर दो वर्ष तक घर में ही त्यागमय जीवन बिताते रहे।
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महावीर का दीक्षा संकल्प जानकर नवलोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की
हे ! धर्म का प्रकाश करने वाले सूर्य, आपकी जय हो! आपका यह संकल्प महान है। संसार को आत्म कल्याण का मार्ग दिखलाइये। धर्म तीर्थ का प्रवर्तन कीजिए।
दीक्षा लेने से पहले राजकुमार महावीर ने एक वर्ष तक प्रतिदिन प्रातःकाल एक प्रहर तक निरन्तर एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्रायें दान की। अमीर-गरीब सभी उनका दान लेने आते और प्रसन्न होकर लौटते।
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करुणानिधान भगवान महावीर दो वर्ष पूरे होने के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन वर्धमान कुमार ने चन्द्रप्रभा नामक शिविका में बैठकर दीक्षा। के लिये प्रस्थान किया। सौधर्मेन्द्र आदि असंख्य देवी-देवता एवं हजारों नर-नारी इस विशाल जुलूस में शामिल था।
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विशाल जुलूस नगर से बाहर स्थित ज्ञातखण्ड उद्यान में पहुंचा, अशोक वृक्ष के समीप पालकी रखी गयी। एक-एक करके वर्धमान ने अपने सभी बहुमूल्य आभूषण और वस्त्र उतार दिये।
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करुणानिधान भगवान महावीर पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने केशों का फिर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके धीर-गंभीर पंचमुष्ठि ढुंचन किया।
स्वर में प्रतिज्ञा की।
मैं जीवन भर समभाव की साधना स्वीकार करता हूँ। सभी पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ।
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स्वयं इन्द्र ने केशों को रत्न पात्र में ग्रहण किया।
और दो दिन के निर्जल उपवास के साथ, कठोर संयम व्रत का संकल्प ग्रहण करके महाश्रमण, अपनी मस्ती से मस्त बिना रुके बिना पीछे मुडे सीधे कंकरीले, पथरीले पथ पर वन की ओर चल दिये।
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उनके गौर स्कन्ध पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त एक हिम-सा श्वेत उज्वल देवदूष्य वस्त्र लहरा रहा था।
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करुणानिधान भगवान महावीर
ज्ञातखण्ड उद्यान से विहार कर श्रमण भगवान महावीर (एकाकी) आगे वन की ओर बढ़े।
संध्या के समय कुमारग्राम के बाहर एक वृक्ष | के नीचे ध्यान समाधि में स्थिर खड़े हो गये।।
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उस समय एक ग्वाला आया और अपने बैलों को वहाँ बैठाकर महावीर से बोला
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भिक्खु, मेरे बैलों का मरा ध्यान रखना। मैं गाँव में जाकर अभी कुछ देर में वापिस आता हूँ।
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बैल चरते-चरते दूर निकल गये।।
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ग्वाला गाँव से लौटकर आया तो देखा कि बैल वहाँ नहीं हैं। उसने महावीर से पूछा
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मेरे बैल कहाँ गये?
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परन्तु भगवान ध्यान में मौन खड़े रहे।
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करुणानिधान भगवान महावीर
ग्वाला रात भर बैलों को खेतों में ढूँढ़ता रहा। सुबह होते-होते उसने देखा बैल तो भगवान के पास बैठे जुगाली कर रहे हैं।
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अच्छा ! इसी ढोंगी साधु ने बैलों को चुराया लगता है ? जरूर यह चोर है। अभी इसको देखता हूँ...
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हाथ में रस्सी लेकर वह महावीर को मारने दौड़ा। तभी इन्द्र वहाँ प्रकट हुये और ग्वाले का हाथ पकड़ लिया।
मूर्ख ! अज्ञानी? यह क्या कर रहा है? जानता नहीं
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यह कौन हैं? राजा सिद्धार्थ के पुत्र वर्धमान हैं ये, क्या तेरे बैल चुरायेंगे?
चल भाग यहाँ से।
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ग्वाला भगवान से क्षमा माँगकर चला गया।
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करुणानिधान भगवान महावीर देवराज इन्द्र भगवान महावीर को विनती करने लगे। | महावीर इन्द्र से बोले
प्रभो ! आपका साधना पथ बहुत देवरान ! ऐसा कभी नहीं हुआ, और न कठिन है। अज्ञानी लोगों द्वारा कभी होगा कि अरिहंत (साधना काल में) बार-बार इस प्रकार के उपसर्ग
कष्टों से घबराकर किसी अन्य की आयेंगे। कृपाकर मुझे आपकी सेवा सहायता की इच्छा करे। तीर्थंकर तो अपने में साथ रहने का अवसर दीजिए।
आत्मबल व पुरुषार्थ के सहारे ही
सिद्धि प्राप्त करते हैं।
भगवान का उत्तर सुनकर देवराज नतमस्तक हो गये। उन्होंने सिद्धार्थ नामक व्यन्तर देव से कहा
प्रभु महावीर हमारी सेवा की इच्छा नहीं करते, किन्तु इनकी सेवा करना अपना कर्त्तव्य है। तुम प्रभु की सेवा में
सदा साथ रहोगे।
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भगवान की वन्दना करके इन्द्र चले गये।
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दीक्षा लेते समय वर्द्धमान महावीर के शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित वस्तुओं का लेप किया गया था। जिसकी भीनी-भीनी महक से भंवरे उनके शरीर पर आकर बैठ जाते, और डंक मार देते। ध्यान में लीन महावीर उन सब पीड़ाओं को समभाव पूर्वक सहते रहे।
सोम शर्मा पीछा करता हुआ महावीर के पास आ पहुँचा। और बोलाहे दयासिंधु, आप उपकारी हैं, कृपा करके मेरी दरिद्रता दूर कीजिये। मुझे भी कुछ दीजिए।
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जब वर्द्धमान महावीर वर्षीदान कर रहे थे उस समय सोम शर्मा नाम एक गरीब ब्राह्मण परदेश गया हुआ था। जब वह वापस आया तो उसकी पत्नी ने कहा
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आप कैसे अभागे हैं, जब भगवान ने वर्षीदान किया तो आप परदेश चले गये। अब जाओ उनके पास वे हमारी दरिद्रता अवश्य ही दूर करेंगे।
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भगवान महावीर के पास केवल एक देवदुष्य वस्त्र था। उसमें से आधा भाग चीरकर सोमशर्मा को दे दिया।
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करुणानिधान भगवान महावीर
सोमशर्मा वह वस्त्र लेकर एक रफूगर के पास आया।
मुझे इसकी क्या इसका आधा भाग ओर ले आओ तो यह एक कीमत मिल जायेगी ? लाख सौनेया में बिक जायेगा आधीसौनेया हम आपस में बाँट लेंगे।
सोमशर्मा ने कई दिन तक श्रमण महावीर के पीछे-पीछे घूमकर आधा वस्त्र और प्राप्त कर लिया।
एक दिन महावीर खण्डहर में ध्यानस्थ खड़े थे। दो प्रेमी एकान्त समझकर वहाँ आये। महावीर को खड़ा देखकर वे गालियाँ देने लगे, उन पर पत्थर फैंकने लगे। महावीर के शरीर पर घाव हो गये।
अरे ! तू कौन है? यहाँ क्यों खड़ा है। चल निकल जा यहाँ से..
महावीर चुपचाप वहाँ से हटकर कड़कड़ाती सर्दी में एक वृक्ष के नीचे जाकर ध्यानस्थ हो गये।
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और उसे रफूगर से जुड़वाकर महाराज नन्दीवर्धन को एक लाख सोनैया में बेच दिया।
वर्षाकाल समीप आने पर श्रमण महावीर तापसों के एक आश्रम में गये। महावीर को पहचान कर कुलपति ने उनसे आग्रह कियासिद्धार्थ नन्दन आइये ! कुमार श्रमण ! आप हमारे आश्रम की झोपड़ी में ठहरिये और यहीं अपनी साधना कीजिए।
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करुणानिधान भगवान महावीर महावीर झोंपड़ी में ठहरकर तप-ध्यान करने | तब आश्रमवासी तापसों ने कुलपति से शिकायत लगे। कुछ गायें आकर उनकी झोंपड़ी खाने कीलगीं। पक्षी तिनके ले जाने लगे। परन्तु
आपका अतिथि श्रमण कैसा महावीर ने किसी को कुछ नहीं कहा
आलसी है? पशुओं से अपनी झोंपड़ी की रक्षा भी नहीं
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|कुलपति ने महावीर से कहा
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म कुमार श्रमण ! इतनी भी क्या लापरवाही है? देखो, यह पक्षी भी अपने घोंसले की रक्षा करते हैं, आप क्षत्रिय पुत्र होकर भी अपनी कुटिया की रक्षा नहीं कर सकते।
महावीर ध्यान मौन में स्थिर थे। उन्होंने सोचा
जिस आत्म-दर्शन के लिए मैंने राजपाट, छोड़ा शरीर की ममता छोड़ी तो क्या अब कुटिया की रक्षा में लगूं? ......मेरे यहाँ ठहरने से आश्रम वासियों के मन को पीड़ा पहुँचती है तो चलूँ और कहीं .....
महावीर आश्रम छोड़कर जंगल में चले गये।
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करुणानिधान भगवान महावीर आश्रम के अनुभव से श्रमण महावीर ने मन || वहां से विहार करते हुए श्रमण महावीर एक पुराने ही मन पांच संकल्प (अभिग्रह) लिये-- टूटे-फूटे मन्दिर पर पहुंचे। गाँव वाले महावीर के पास
आकर बोले
TIMIUIDAIMALA किसी अप्रीति कर स्थान में नहीं।
सुकुमार श्रमण ! यहाँ शूलपाणि नाम का ठहरूँगा। सदा ध्यानलीन रहूँगा। मौन । रहूँगा। हाथ में ही भोजन करूंगा।
क्रूर यक्ष रहता है। वह रात में आपको गृहस्थों से सम्पर्क नहीं रखूगा।
जीवित नहीं छोड़ेगा। आप कोई दूसरा Ramma स्थान देख लीजिए न?
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परन्तु श्रमण महावीर तो स्वयं अभय थे। गाँव वालों का भय दूर | करने के लिए वे उसी मन्दिर के एक भाग में ध्यानस्थ खड़ें हो गये।
रात का अँधेरा हो जाने पर शूलपाणि यक्ष हुँकारता-फुकारता आया। एक मनुष्य को अपने स्थान पर खड़ा देखकर आग-बबूला हो उठा
'कौन है यह मौत को चाहने वाला /
इसकी यह हिम्मत ?
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करुणानिधान भगवान महावीर
वह सिंह हाथी, पिशाच, सर्प आदि का भयंकर रूप बनाकर महावीर को भयभीत करने का प्रयत्न करता रहा।
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रात के तीन प्रहर तक उपद्रव मचाता हुआ शूलपाणि अन्त में थककर चूर-चूर हो गया। तभी सिद्धार्थ नामक व्यन्तर देव ने प्रकट होकर शूलपाणि को समझाया।
दुष्ट शूलपाणि तूने यह क्या किया? जो इन्द्र के भी पूज्य हैं उनकी तूने असाधना की। अगर इन्द्र को पता चला गया तो तुझे नष्ट कर देंगे।
भगवान महावीर पत्थर की मूर्ति की भाँति स्थिर खड़े रहे।
वह भगवान से क्षमा माँगने लगा। महावीर ने नेत्र खोलकर शूलपाणी की तरफ देखा, शूलपाणी को अपने हृदय में भगवान की करुणामय वाणी गूँजती हुई महसूस हुई।
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शान्त हो जाओ शूलपाणी। मन सेक्रूरता और घृणा का जहर निकाल दो तभी शान्ति मिलेगी।
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यह सुनकर शूलपाणि यक्ष घबरा गया। शूलपाणी भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गया।
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भगवान महावीर ने इस निर्दयी यक्ष के हृदय में करुणा की गंगा प्रवाहित कर दी। वह भगवान की भक्ति करने लगा। प्रातःकाल होने पर लोग मन्दिर के बाहर खड़े होकर झाँकने लगे।
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अरे, यह भिक्षु तो जीवित है ?
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अरे बाबा ! इधर मत जाओ एक कालिया नाग रहता है।
अस्थिक ग्राम से विहार कर आगे बढ़ते हुए महावीर एक घने सुनसान जंगल से गुजर रहे थे। पीछे से ग्वालों ने पुकारा
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दृष्टि विष सर्प है, बड़ा खतरनाक है। जीवित नहीं छोड़ेगा।
ओह ! यह क्रूर दानव तो इसकी भक्ति कर रहा है।
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सभी ग्रामवासी मिलकर श्रमण महावीर की भक्ति पूजा करने लगे।
ग्वालों की पुकार सुनकर भी महावीर रुके नहीं। चलते गये।
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आज इस जहरीले नाग को ही क्षमा का अमृत पिलाना है।
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करुणानिधान भगवान महावीर
भगवान महावीर नाग की बांबी के पास पहुँच कर ध्यान में लीन हो गये। नाग बांबी से निकला तो महावीर को देखा। क्रोधित होकर उसने जहरीली फुंफकार मारी।
चण्डकौशिक नाग ने क्रोधित होकर भगवान के पैर में डंक मारा। परन्तु आश्चर्य भगवान के | पैरों से दूध समान श्वेत खून निकलने लगा।
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कौन है यह दुस्साहसी'
मानव? मेरी जहरीली फुत्कार से हिला भी नहीं।
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तभी महावीर ने करुणा भरी दृष्टि से उसे निहारा ।।
बुज्झ, बुज्झ चण्डकौशिक....। र चण्डकौशिक ! शान्त हो जाओ। अपने को समझो !
इस महाक्रोध से ही जन्म-जन्म में तुम्हारी दुर्गति होती रही है।
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हो गया।
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करुणानिधान भगवान महावीर
भगवान के शब्द सुनकर चण्डकौशिक गहरे विचारों में डूब गया। उसे अपना पिछला जन्म याद आने लगादो जन्म पूर्व चण्डकौशिक एक तपस्वी श्रमण था। एक बार शिष्य के साथ मास खमण का पारणा करने जा रहा था कि एक छोटी मैंढ़की पैर के नीचे दब गई। शिष्य ने प्रायश्चित लेने को कहा तो उसे शिष्य पर बहुत गुस्सा आया। संध्या होने पर शिष्य ने फिर प्रायश्चित लेने को कहा तो वह गुस्से में उसे मारने दौड़ा। उपाश्रय में अंधेरा था। अँधेरे में एक खम्बे से टकराकर सिर फट गया और उसकी मृत्यु हो गई।
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क्रोध के उग्र परिणामों में मृत्य प्राप्त करने के कारण अगले जन्म में अत्यन्त क्रोधी ब्राह्मण बना। एक बार उसके आश्रम में कुछ राजकुमार फूल तोड़ने आये। चण्डकौशिक हाथ में कुल्हाड़ी लेकर उन्हें मारने दौड़ा। दौड़ता-दौड़ता एक गहरे गड्डे में ना गिरा और उसी कुल्हाड़ी से उसका सिर फट गया। और वह मर गया। अत्यन्त उग्र परिणामों के साथ मरकर वह इस जन्म में खतरनाक सर्प बना।
चण्डकौशिक ने फन नीचा झुकाकर भगवान से क्षमा माँगीला
ओह ! इस महा क्रोध के कारण मेरे कितने जन्म बिगड़ गये! अब मैं क्रोध नहीं करूंगा।
क्षमा करो! हे करुणावतार जहर के बदले मुझे आपने ज्ञानरूपी अमृत पिलाकर उद्धार कर दिया।
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चण्डकौशिक नाग ने भगवान महावीर के चरणों की शरण लेकर अनशन व्रत का संकल्प ले लिया।
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करुणानिधान भगवान महावीर एक बार भगवान महावीर नाव में बैठकर गंगा नदी पार कर रहे थे। सुदंष्ट्र नामक नाग कुमार देव ने उनको देखा
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अरे ! यही श्रमण महावीर है, जो पिछले जन्म AS में त्रिपृष्ट वासुदेव था और मैं केसरी सिंह !
इसी ने मुझे चीरकर मार डाला था। आज मैं
अपने वैर का बदला लेकर रहूँगा।
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पिछला वैर याद आते ही नागकुमार क्रोध में तिलमिला उठा।
उसने गंगा में जोरदार तूफान पैदा कर दिया। नाव डगमगाने लगी। यात्री घबराकर हा-हाकर करने लगे। भगवान महावीर ध्यान में स्थिर बैठे थे यात्री हाथ जोड़कर उनसे पुकार करते हैं।
(प्रभो ! आज आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। इस आपत्ति से हमें।
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उसी समय कम्बल-सम्बल नाम के दो नागकुमार | | कम्बल-सम्बल देवों ने नाव को उठाकर गंगा देव आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। उन्होंने यह दृश्य । नदी के तट पर पहुंचा दिया। देखा तो सुदंष्ट्र को ललकारा-1
दुष्ट ! अज्ञानी ! तू किनको
कष्ट दे रहा है? ये क्षमासागर प्रभु संसार का कल्याण करने
वाले हैं।
नागकुमारों की ललकार सुनकर सुदंष्ट्र भाग गया।
यात्रियों ने भगवान महावीर की वन्दना की
(प्रभो ! आज आपकी कृपा से ही
सबकी जान बची है!
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करुणानिधान भगवान महावीर
एक बार श्रमण महावीर विहार करते हुये पेढाल गाँव के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन होकर खड़े थे। स्वर्ग में सौधर्मेन्द्र ने भगवान की यह अविचल ध्यानलीनता देखकर वहीं से वन्दना की। भगवान आप धन्य हैं। ध्यान और धैर्य में आपकी कोई समानता नहीं कर सकता।
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वहाँ उपस्थित संगम नाम का एक दुष्ट देवता इन्द्र से बोलादेवराज ! मनुष्य में ऐसी सामर्थ्य नहीं हो सकती जो देव शक्ति से भी न डिगे। अगर आप बीच में न आयें तो मैं महावीर को एक रात में ही डिगा कर दिखा दूँ?
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पृथ्वी पर आकर संगम ने भगवान का ध्यान भंग करने की दुष्चेष्टा की। चारों ओर धूल उड़ाकर भगवान के नाक मुँह में धूल भर दी। साँप, बिच्छुओं को उनके शरीर पर छोड़ दिया। हाथी का रूप बनाकर सूँड से पकड़कर आकाश में उछालने लगा। पिशाच बनकर मुँह से ज्वाला मुखी की तरह लपटें निकालकर भगवान को भस्म करने की कोशिश की।
यह कहकर संगम महावीर की परीक्षा लेने धरती पर चल दिया।
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करुणानिधान भगवान महावीर
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भगवान के दोनों पैरों के बीच में आग जलाकर खीर पकाने लगा। शेर चीतों का रूप बनाकर भगवान को नाखूनों से चीरने का प्रयत्न किया। परन्तु भगवान हिमालय की भाँति अविचल ध्यान में मग्न खड़े रहे।
जब संगम ने देखा, कि इन प्राण लेवा कष्टों से भी महावीर का
भा महावीर का ध्यान नहीं टूटा, तो उसने महावीर का मन चंचल बनाने के लिए वसन्त ऋतु का कामोत्तेजक वातावरण बनाया। कर
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लेकिन महावीर का ध्यान भंग नहीं कर सका। Personal use only
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संगम ने भगवान के सिर पर हजारों टन भारी काल-चक्र छोड़ा। मेरूपर्वत को चूर-चूर कर देने वाले इस काल-चक्र के भार से भगवान घुटनों तक जमीन में धंस गये।
करुणानिधान भगवान महावीर
हे महा मानव ! मैंने आपके धैर्य और शान्ति की कठोर परीक्षा ले ली। मैं आपके एक रोम को भी चंचल नहीं कर सका, मैं हार गया अब मैं जाता हूँ।
छह महीनों तक भगवान को घोर कष्ट पहुँचाने के बाद अन्त में हारकर संगम भगवान महावीर के चरणों में नतमस्तक हो गया
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उदास होकर संगम स्वर्ग की ओर चल दिया।
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परन्तु अपने पराक्रम से महावीर वापस धरती के ऊपर आ गये और अविचल ध्यान में मग्न रहे।
संगम को जाता देखकर महावीर की आँखें नम हो गईं। उन्होंने सोचा
"मैंने संसार का कल्याण और उद्धार करने का संकल्प लिया था, परन्तु संगम ने मुझे निमित्त बनाकर घोर पापकर्मों का बंध कर लिया। जिस नाव में बैठकर संसार तिरता है, उसी नाव को पकड़ कर यह डूब गया
| इसके बाद भगवान वहाँ से विहार करके कौशाम्बी की तरफ चल दिये।
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करुणानिधान भगवान महावीर अपने साधनाकाल के बारहवें वर्ष में कौशाम्बी के उद्यान में ध्यान करते हुए भगवान महावीर ने कठोर अभिग्रह किया। US
मैं उसी कन्या के हाथ से अन्न ग्रहण करूंगा, जो एक पवित्र जीवन जीने वाली राजकुमारी हो? फिर दासी के रूप में बाजार में बिकी हो। हाथों में हथकड़ी पैरों में बेड़ियाँ हों। उसका मस्तक मुंड़ा हुआ हो। मध्यान के समय आँखों में आँसू लिये तीन दिन की भूखी प्यासी बैठी हो। उसका एक पैर घर की देहली के भीतर और एक बाहर हो हाथ में सूप हो, सूप के एक कोने में
उड़द के सूखे बाकले रखे हों।
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अभिग्रह करके कौशाम्बी नगरी में भिक्षा के लिए प्रतिदिन भ्रमण करते हुए भगवान
को पाँच महीने पच्चीस दिन बीत गये। परन्तु उनका अभिग्रह पूर्ण नहीं हुआ।
उसी समय कौशाम्बी के राजा शलानीक ने चम्पा नगरी पर अचानक आक्रमण कर दिया। सैनिकों ने चम्पा में लूटपाट की। एक स्थ सैनिक रानी धारिणी और राजकुमारी वसुमति को ले भागा। रानी धारिणी ने शील रक्षा के लिये आत्महत्या कर ली।
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सैनिक ने वसुमति को चम्पा के दासी बाजार में बेच दिया। बिकते-बिकते वसुमती को कौशाम्बी के एक धर्मप्रिय सेठ धनावह ने खरीदकर अपने यहाँ पुत्री के रूप में रख लिया और उसका नाम चन्दना रख दिया। परन्तु उसकी पत्नी ने ईर्ष्यावश चन्दना के बाल मूँडकर, बेडियाँ पहनाकर तहखाने में डाल दिया। सेठ को जब पता चला तो उसने चन्दना को तहखाने से निकाला।
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तीन दिन की भूखी-प्यासी चन्दना घर की देहली के बीच में बैठी थी। उसके हाथ में उड़द के सूखे बाकले रखे थे। उसने भगवान महावीर को आते देखा तो उसका रोम-रोम खिल उठा।
सूप था, जिसमें
धन्य भाग्य है मेरा ! पधारो प्रभु ! जगत के तारणहार, मेरा 'उद्धार करो; धन्य है आज की पवित्र घड़ी। मेरे हाथ से यह सूखे बाकले भिक्षा में ग्रहण करिये प्रभु ।
बेटी, तू तीन दिन से भूखी बैठी है, ले यह सूखे बाकले खा, मैं तेरी बेड़िया कटवाने के लिये लुहार को बुलाकर लाता हूँ......
# अभिग्रह मिरचय प्रण
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करुणानिधान भगवान महावीर
परन्तु भगवान बिना भिक्षा लिये वपिस लौटने चन्दना का विलाप सुनकर भगवान महावीर वापस लगे तो चन्दना की आँखों में से आँसओं की लौट आये। चन्दना ने अत्यन्त भाव विखल होकर झड़ी बरसने लगी।
उड़द के बाकले भगवान को भिक्षा में दिये।
प्रभो ! यह क्या? सब नाते-रिश्तेदारों ने साथ छोड़ा तो छोड़ा आज आपने भी साथ छोड़ दिया। मेरा भाग्य ही रूठ गया
है। घर आती गंगा लौट गई?,
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भगवान के भिक्षा ग्रहण करते ही आकाश में देवता दिव्यघोष करते हुए सोने, हीरे, रत्नों की वर्षा करने लगे।
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दिव्य प्रभाव से चन्दना के शरीर पर पड़ी हुई बेडियाँ हीरे-मोती के आभूषण बन गये। उसके शरीर पर सुन्दर वस्त्र चमकने लगे। भगवान महावीर के अभिग्रह पूर्ण होने की खबर सुनकर राजा शतानीक और रानी मृगावती भी वहाँ पहुँचे और चन्दनबाला को अपने साथ महलों में चलने का आग्रह किया। किन्तु चन्दनबाला नहीं गयी। वह भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा लेने के लिए समय की प्रतीक्षा करने लगी। • पदणमाला की विस्तृत जीवन कथा दिवाकर चित्रकथा के राजकुमाटी 'पदमबाला अंक में पढ़े।
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करुणानिधान भगवान महावीर साधना काल का बारहवाँ चातुर्मास चम्पा नगरी में ग्वाले ने लौटकर बैलों के बारे में पूछा। भगवान मौन बिताकर भगवान छम्माणी ग्राम पधारे और गाँव के रहे। ग्वाले ने फिर पूछा किन्तु भगवान ध्यान में लीन बाहर कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे। तभी एक ग्वाला थे| ग्वाला उत्तर न पाकर आग बबूला हो गया। आकर भगवान से बोला-1
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फूट गये लगते हैं। ठहर की देखभाल
अभी उपचार करता हूँ। करना। मैं अभी आता हूँ।
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ग्वाला बैलों को वहाँ छोड़कर चला गया। बैल चरते-चरते आगे निकल गये।
उसने कॉस नामक घास की नुकीली कील ली, आव देखा न | इस असह्य वेदना में भी न तो | ताव, श्रमण महावीर के कानों में आर-पार ठोक दी।।
भगवान महावीर का ध्यान भंग हुआ और न ही उन्हें मूर्ख ग्वाले के प्रति द्वेष भाव आया।
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• यह ग्याला प्रिपृष्ट वासुदेव का शव्या पालक था जिसके कानों में विपृष्ठ वासुदेव ने उबलता हुआ शीशा उलवाया था। cation Intemallonal
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करुणानिधान भगवान महावीर
ध्यान पूर्ण होने पर भगवान भिक्षा के लिए पास ही मध्यम पावा नामक गांव में सिद्धार्थ वणिक के घर पधारे। वणिक के पास उस समय उसका मित्र खरक वैद्य बैठा था। भगवान को देखकर उसने वणिक से कहा
मित्र ! इस श्रमण के मुख पर बड़ा तेज चमक
रहा है। परन्तु साथ ही हल्का-सा पीड़ा भाव भी DIL है। लगता है इन्हें कोई अन्तशल्य (भीतरी
पीड़ा) खटक रहा है।
ऐसे महापुरुष को कोई भीतरी पीड़ा है तो हमें तुरन्त उपचार
करना चाहिए।
दोनों ने मिलकर कीलें निकालने के साधन मुटाये। भगवान के शरीर पर तेल का लेप किया और संडासी से खींचकर कील बाहर निकाल दी।
भिक्षा लेकर महा श्रमण वापस चले गये। सिद्धार्थ तथा खरक वैद्य उनके पीछे-पीछे उद्यान में पहुंचे और प्रभु के शरीर का निरीक्षण किया। माप सिद्धार्थ, गमब हो गया। किसी 7 दुष्ट ने इनके कानों में आर
पार कीलें ठोंक दी है।
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करुणानिधान भगवान महावीर
इस प्रकार कठोर तप ध्यान साधना करते हुए बारह वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो गया। भगव महावीर जृम्भक ग्राम के निकट ऋजुबालुका नदी के तट पर पहुँच गये। वहाँ स्थित साल वृक्ष के नीचे गो-दुहासन में, दो दिन के निर्जल उपवास के साथ गहरी समाधि में लीन हो गये।
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असंख्य देवी-देवता भगवान का केवलज्ञान महोत्सव मनाने धरती पर आ पहुँचे। देवताओं ने समवसरण की रचना की। भगवान ने प्रथम धर्म देशना दी।
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संसार दुःखों का मूल है। दुःखों की परंपरा को बढ़ाने वाला है। अपने मन, वचन और कर्म से किसी भी जीव तो दुःख मत दो।
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alted # अष्ट प्रातिहार्य = तीर्थंकर के आठ विशिष्ट प्रभाव।
* समवसरण - अरिहंत भगवान की प्रवचन सभा ।
*
वैशाख सुदी दसमी के दिन चन्द्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग होने पर संध्या के समय में वहीं उन्हें केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त हुआ। वे अरिहन्त पद को प्राप्त हो गये तथा अनेक अतिशयों एवं अष्ट प्रातिहार्यो# से युक्त बने ।
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'करुणानिधान भगवान महावीर
केवलज्ञान प्राप्त कर भगवान वीर पावापुरी के महासेन उद्यान में पधारे। इसी नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण महायज्ञ करा रहा था। जिसके लिए उसने वेदों के प्रकाण्ड पंडित इन्द्रभूति गौतम तथा दस अन्य विद्वान ब्राह्मणों को अपने शिष्यों सहित आमन्त्रित किया था।
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देवों के झुंड आकाश से उतरकर भगवान महावीर के|| परन्तु देवगण यज्ञमण्डप में न आकर दर्शनों के लिए महासेन उद्यान की तरफ आ रहे थे। उन्हें सीधे भगवान महावीर के समवसरण देख इन्द्रभूति गौतम गर्व से बोले
की ओर चले गये।
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देखो हमारे यज्ञ का प्रभाव। मन्त्रों से आकर्षित होकर देवगण हमारे यज्ञ
में पधार रहे हैं।
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| लोगों ने इन्द्रभूति गौतम को बताया
महासेन उद्यान में तीर्थंकर भगवान महावीर पधारे हैं। ये देव-देवियाँ उन्हीं के दर्शनों के लिए जा रहे हैं।
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करुणानिधान भगवान महावीर
यह सुनकर गौतम को बहुत क्रोध आया। मुझसे बढ़कर कोई दूसरा ज्ञानी है इस संसार में? नहीं ! लगता है कोई बहुत बड़ा पाखण्डी है यह । मैं अभी अपने ज्ञान से इसके पाखण्ड की पोल खोल देता हूँ।
इन्द्रभूति गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान के समवसरण में जा पहुँचे। परन्तु वहाँ की अलौकिक छटा | देखकर स्थम्भित रह गये। तभी हृदय को शान्त करने वाली भगवान की शीतलवाणी उनके कान में पड़ी
इन्द्रभूति गौतम ! तुम आ गये
....? तुम्हारा आना श्रेयस्कर होगा।
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हैं! यह मेरा नाम और गोत्र भी जानते हैं।
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धान भगवान महावीर
इन्द्रभूति गौतम ! तुम वेदो के महा पण्डित होकर भी आत्मा के अस्तित्व
के विषय में शंकाशील हो।
अनेक युक्तियों से भगवान ने गौतम की शंका का समाधान कर दिया। गौतम भगवान के चरणों में नत-मस्तक हो गये।
प्रभु ! आप तो ज्ञान के सागर हैं। कृपया
मुझे अपना शिष्य स्वीकार कीजिए।
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पाँच सौ शिष्यों के साथ उन्होंने वहीं दीक्षा ले ली और वे भगवान महावीर के प्रधान व प्रथम शिष्य बने।
गौतम के दीक्षित होने की खबर सुनकर अन्य दस विद्वान भी भगवान के पास आये। अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान पाकर सभी अपने-अपने शिष्य परिवार के चार हजार चार सौ शिष्यों के साथ भगवान के चरणों में दीक्षित हए। राजकुमारी चन्दनबाला ने भी दीक्षा
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प्रभु महावीर ने वैशाखसुदी एकादशी के दिन चतुर्विध संघ (श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका) की स्थापना करके धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया, गौतमादि ग्यारह गणधरों को संघ की व्यवस्था सौंपी।
गौतम वेदों के प्रकाण्ड पण्डित होकर भी आत्मा के अस्तित्व के प्रति अपनी शंका का समाधान प्राप्त नहीं कर पाये थे।
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करुणानिधान भगवान एकबार भगवान महावीर ग्रीष्म ऋतु में सिंधु देश की तरफ विहार कर रहे थे। रास्ते में बूढ़े बैलों को पीट-पीटकर अपना खेत जोत रहा था। महावीर ने गणधर गौतम से कहा
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गौतम किसान के पास आकर बोले
भद्र ! इन बूढ़े बैलों को इ मारो ! क्या इन्हें कष्ट नहीं होता?
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गौतम ! वह अबोध किसान, बूढ़े बैलों को कितनी निर्दयता से पीट रहा है?
जाओ! तुम समझाओ उसे!
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महाराज ! कष्ट तो होता ही है। परन्तु इनसे खेत नहीं जोतूं तो मैं गरीब किसान भूखा मर जाऊँगा। मेरे पास दूसरी जोड़ी खरीदने को पैसा भी तो नहीं है।
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गौतम ने किसान को स्नेहपूर्वक दया का महत्व समझाया। गौतम की स्नेहमयी वाणी और करूणापूर्ण मुद्रा से किसान का मन गद्गद् हो गया। उसने कहा
महाराज ! आपको देखकर तो लगता है, मैं आपके साथ ही रहूँ। किसी प्राणी को कष्ट नहीं दूँ। क्या आप मुझे अपना शिष्य बना लोगे?
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गौतम ने कहा
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ना ! ना ! मैं इनके पास नहीं
जाऊँगा।
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गौतम ने किसान को अपना शिष्य बना लिया।
गौतम के पीछे-पीछे चलता नया शिष्य भगवान महावीर की ओर देखकर मारे भय के काँपने लग गया।
भद्र ! क्यों नहीं? वो देखो, मेरे धर्मगुरू वहाँ हैं, उनके पास चलो।
धान भगवान महावीर
भद्र ! ये हमारे धर्माचार्य हैं। इनसे
डरो मत!
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नये शिष्य को लेकर गौतम भगवान के पास पहुँचे।
भद्र ! ये ही हम सबके गुरु हैं। बड़े-बड़े सम्राट, इन्द्र देव आदि भी इनके चरणों में झुकते हैं। तुम भी इनके चरणों में नमस्कार करो।
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नया शिष्य बोला
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ना, गुरुजी ! अगर ये ही तुम्हारे गुरू हैं तो तुम्हीं रखो, मुझे नहीं चाहिए।
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और वह उल्टे पाँव जंगल की ओर भाग गया।
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करुणानिधान भगवान
गौतम को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान से पूछा
भन्ते ! इस अबोध किसान के मन में मुझे देखकर प्रीति जगी, परन्तु आप जैसे करूणा सागर को देखते ही वह भयभीत क्यों हो गया ?
यह वही सिंह का जीव है, जिसे त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में मैंने मारा था। और मेरे सारथि के रूप में तुमने उसे सान्त्वना दी थी। इस कारण इसके हृदय में तुम्हें देखकर, प्रीति और मुझे देखकर द्वेष/भय जगा।
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गौतम ! यह सब पूर्व जन्मों में बंधे वैर और प्रीति का खेल है।
फिर आपने मुझे इसे उपदेश देने के लिए क्यों भेजा भन्ते!
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गौतम ! तुम्हारे कुछ क्षणों के सत्संग से इसके मन में एकबार फिर धर्म की ज्योति जल उठी है। वह कभी न कभी ज्ञान का पूर्ण प्रकाश भी पा लेगा। तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ नहीं गया।
गौतम भगवान की परोपकार दृष्टि के प्रति विनत हो गये।
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करणानिधान भगवान महावीर एक बार भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी पधारे। गणधर गौतम को यह बात अटपटी और असत्य लगी। इन्द्रभूति गौतम भिक्षा लेने नगर में गये। वहाँ उन्होंने वे भगवान महावीर के पास आये, और पूछाकुछ व्यक्तियों को कहते सुना।
भन्ते ! लोग कह रहे हैं कि गौशालक [ सना तमने मंखली पत्र गौशालक
केवली और तीर्थंकर हो गया है। शाम केवली है, तीर्थंकर है। भगवान महावीर त
क्या यह बात सत्य है। से भी बढ़कर प्रभावशाली है।
गौतम ! यह सरासर मिथ्या है। मखली पुत्र गौशालक पहले मेरा शिष्य बना था। बाद में वह मिथ्या वाद का प्रचार करने लगा। वह सर्वज्ञानी नहीं छानस्थं है।
| जब गौशालक ने अपनी पोल खुलती सुनी तो वह क्रोध में धम| धमाता, लोगों के साथ भगवान महावीर की सभा में आ पहुंचा।
हे काश्यप, आप मेरे विषय में मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। मैं मखली पुत्र गौशालक नहीं। वह मर चुका है। मैंने उसके शरीर में प्रवेश किया है। मैं कौण्डियायन गोत्रीय उदायी हूँ।
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महावीर ने कहा
गौशालक, जैसे तिनके की ओट में चोर अपने को छुपा नहीं सकता। वैसे ही तुम मिथ्या बोलकर खुद को छुपाने का प्रत्यन मत करो। तुम मंखली पुत्र गौशालक ही हो।
भगवान के प्रति ऐसी अशिष्टता देखकर सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक दो श्रमणों ने गौशालक को फटकारा तो गौशालक के हृदय में जैसे आग लग गई उसने दोनों श्रमणों पर तेजोलेश्या छोड़ी।
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गौशालक क्रोध में आकर भगवान महावीर को गालियाँ बकने लगा।
काश्यप, तू आज जीवित नहीं रहेगा मैं तुझे जलाकर भस्म कर डालूँगा।
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दोनों मुनि जलकर भस्म हो गये।
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करुणानिधान भगवान महावीर
क्रोध में आग बबूला हुए गौशालक ने महावीर पर भी तेजोलेश्या और आकाश में ऊँची उछली।। छोड़ी। आग की लपटें भगवान के चारों तरफ घूमने लगीं।।
भगवान के दिव्य अतिशय के प्रभाव से तेजोलेश्या परास्त हो गयी और वापस गौशालक के शरीर में प्रवेश कर गयी।।
हाय ! मैं मरा, जल गया बचाओ।
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गौशालक का शरीर ऊपर से जल गया। वह पीड़ा से कराहता रोता-चीखता वहाँ से चला गया।
सात दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी।
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करुणानिधान भगवान महावीर भगवान महावीर लोक भाषा में ही अपना उपदेश देते थे। बड़े-बड़े सम्राट एवं श्रेष्ठियों के साथ सामान्य व्यक्ति श्रमिक, स्त्रियाँ आदि सभी जाति और धर्म के लोग उनकी वाणी सुनते और अहिंसा, सत्य एवं सदाचार के नियम ग्रहण करते।
भव्यों ! असीम इच्छा और तृष्णा ही दुःख का कारण है। यदि
सुख-शान्ति चाहते हो तो अपनी इच्छायें कम करो। सबके साथ मैत्री
और समभाव का बर्ताव करो।
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तीर्थकर जीवन के बियालीसवें वर्ष में भगवान महावीर ने एक दिन अपना अन्तिम समय पावापुरी के राजा हस्तिपाल की प्रार्थना पर उनकी रज्जुक सभा निकट जानकर भगवान ने सोचा। में वर्षावास किया।
मैं जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होने वाला हूँ। मेरा शिष्य गौतम मुझसे अत्यधिक स्नेह रखता है। मेरे निर्वाण के समय यह अत्यधिक व्याकुल हो उठेगा।
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अगले दिन भगवान ने गौतम को बुलाकर कहा
गौतम, पड़ौस के गाँव में तुम देवशर्मा ब्राह्मण को धर्मबोध देने
के लिए जाओ।
करुणानिधान भगवान महावीर कार्तिक कृष्णा चौदस के दिन दो दिन के उपवास के साथ भगवान ने अपना अन्तिम उपदेश देना प्रारम्भ किया। जो निरन्तर सोलह प्रहर तक चला।
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गौतम भगवान का आदेश पाकर देवशर्मा ब्राह्मण को धर्मबोध देने चले गये।
भगवान ने पुण्य-पाप का फल बताने वाले विपाक सूत्र के पचपन कार्तिक कृष्णा अमावस के दिन संध्याकाल में| अध्ययन एवं उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययनों का सम्पूर्ण भगवान के शरीर से एक अलौकिक ज्योति प्रवचन दिया। जिसे सुनकर अनेक लोगों ने व्रत-नियम ग्रहण किये। निकली एवं अनन्त आकाश में विलीन हो गयी।। समूचे संसार में क्षणभर के लिए अन्धकार छा गया। गौतम ने जब भगवान के निवाण का समाचार
सुना तो वह बालक की तरह विलाप करने लगे।
हे प्रभु / यह क्या किया आपने? L Oजीवन भर अपने चरणों रखा और
अन्तिम समय में दूर भेज दिया। सचमुच आपको किसी से मोह
नहीं किसी से प्रीति नहीं..
जीवन
समय में
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करुणानिधान भगवान महावीर कुछ समय पश्चात् गौतम ने अपने आपको सम्हाल लिया। सोचते-सोचते गौतम आत्म-ध्यान की गहराईयों में उतर
गये। प्रातःकाल होते-होते गौतम ने अपने चारों घाती ओह ! वास्तव में ही प्रभु के प्रति
कों का क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। मेरा मो अनुराग है उसे समाप्त करने के लिए उन्होंने मुझे अपने से दूर भेजा।
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जिस दिन भगवान का निर्वाण हुआ उस दिन अमावस की रात थी। कार्तिक सदी एकम के दिन लोगों ने भगवान का देवताओं ने रत्न और मनुष्यों ने दीप मालायें मलाकर अन्धकार | निर्वाण उत्सव और गणधर गौतम का केवलज्ञान को दूर करने का प्रयत्न किया। उसी दिन से दीपोत्सव (दीपावली) उत्सव मनाया। पर्व का प्रारम्भ हुआ।
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समाप्त
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एक बात आपसे भी
सम्माननीय बन्धु,
सादर जय जिनेन्द्र !
जैन साहित्य में संसार की श्रेष्ठ कहानियाँ का अक्षय भण्डार भरा है। नीति, उपदेश, वैराग्य, बुद्धिचातुर्य, वीरता, साहस, मैत्री, सरलता, क्षमाशीलता आदि विषयों पर लिखी गई हजारों सुन्दर, शिक्षाप्रद, रोचक कहानियों में से चुन-चुनकर सरल भाषा-शैली में भावपूर्ण रंगीन चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने का एक छोटा-सा प्रयास हमने प्रारम्भ किया है।
इन चित्र कथाओं के माध्यम से आपका मनोरंजन तो होगा ही, साथ ही जैन इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और जैन जीवन मूल्यों से भी आपका सीधा सम्पर्क होगा।
...
हमें विश्वास है कि इस तरह की चित्रकथायें आप निरन्तर प्राप्त करना चाहेंगे। अतः आप इस पत्र के साथ छपे सदस्यता फार्म पर अपना पूरा नाम, पता साफ-साफ लिखकर भेज दें।
आप एकवर्षीय सदस्यता (११ पुस्तकें), दो वर्षीय सदस्य (२२ पुस्तकें), तीन वर्षीय सदस्यता (३३ पुस्तकें), चार वर्षीय सदस्यता (४४ पुस्तकें), पाँच वर्षीय सदस्यता (५५ पुस्तकें) ले सकते हैं।
नोट- अगर आप पूर्व सदस्य हैं तो हमें अपना सदस्यता क्रमांक लिखें। हम उससे आगे के अंक ही आपको भेजेंगे।
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आप पीछे छपा फार्म भरकर भेज दें। फार्म व ड्राफ्ट / M. O. प्राप्त होते ही हम आपको रजिस्ट्री से अब तक छपे अंक तुरन्त भेज देंगे तथा शेष अंक (आपकी सदस्यता के अनुसार) हर माह डाक द्वारा आपको भेजते रहेंगे।
धन्यवाद !
क्षमादान (2) भगवान ऋषभदेव (
णमोकार मंत्र के चमत्कार | चिन्तामणि पार्श्वनाथ
दिवाकर चित्रकथा की प्रमुख कड़ियाँ
• मृत्यु पर विजय •
आचार्य हेमचन्द्र और सम्राट कुमार पाल • अहिंसा का चमत्कार D
• महायोगी स्थूल भद्र
• अर्जुन माली : दुरात्मा से बना महात्मा
• पिंजरे का पंछी
• सती मदनरेखा O • युवायोगी जम्बू कुमार ( 2 • मेघकुमार की आत्म-कथा।
• बिम्बिसार श्रेणिक
• महासती अंजना D
• चक्रवर्ती सम्राट भरत • भगवान मल्लीनाथ ( ● ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
करुणा निधान भ. महावीर (भाग १, २) महासती अंजना सुन्दरी ०
• राजकुमारी चन्दनबाला
• विचित्र दुश्मनी 0 • भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
सिद्ध चक्र का चमत्कार
• भगवान महावीर की बोध कथायें (7)
• बुद्धि निधान अभय कुमार • शान्ति अवतार शान्तिनाथ। किस्मत का धनी धन्ना
मा
आपका
श्रीचन्द सुराना 'सरस'
सम्पादक
• चन्द्रगुप्त और चाणक्य O
● भक्तामर की चमत्कारी कहानियाँ O • महासती सुभद्रा
• असली खजाना
• महासती सुलसा 0
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पुस्तक का नाम
सचित्र भक्तामर स्तोत्र सचित्र णमोकार महामंत्र
सचित्र तीर्थंकर चरित्र सचित्र ज्ञातासूत्र (भाग १ )
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DIWAKAR PRAKASHAN
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(२२ पुस्तकें) ३२०/
(५५ पुस्तकें) ७५०/
हमारे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सचित्र भावपूर्ण प्रकाशन
मूल्य
पुस्तक का नाम
मूल्य
पुस्तक का नाम
३२५.००
१२५.००
२००.००
५००.००
सचित्र ज्ञातासूत्र (भाग २)
५००.००
सचित्र कल्पसूत्र
6
५००.००
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
५००.००
सचित्र अन्तकृद्दशा सूत्र
४२५.००
चित्रपट एवं यंत्र चित्र
सर्वसिद्धिदायक णमोकार मंत्र चित्र
भक्तामर स्तोत्र यंत्र चित्र (प्लास्टिक फ्लैप में)
२५.००
श्री वर्द्धमान शलाका यंत्र चित्र (प्लास्टिक फ्लैप में) १५.००
पिन Pin
Amount
हस्ताक्षर Sign.
सचित्र भावना आनुपूर्वी भक्तामर स्तोत्र (जेबी गुटका)
मंगल माला (सचित्र)
मंगलम्
मूल्य
२१.००
१८.००.
१५.००
२५.०० श्री गौतम शलाका यंत्र चित्र (प्लास्टिक फ्लैप में) श्री सर्वतोभद्र तिजय पहुत्त यंत्र (प्लास्टिक फ्लैप में) १०.००
२०.००
६.००
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२४ तीर्थंकर तीर्थधाम : एक विशिष्ट अभिनव महान तीर्थ
आन्ध्र प्रदेश के नेल्लुर शहर के समीपवर्ती काकटूर की रमणीय स्थली पर एक सुंदर अभिनव तीर्थ का निर्माण कार्य तीव्रगति से संपन्न हो रहा है। इस महान तीर्थ में निर्माणाधीन गुलाबी पत्थर से निर्मित गगनचुम्बी नव शिखरों से युक्त गोलाकार भव्य समवसरण मंदिर अपनी कलात्मक विशेषता एवं सौंदर्य से लोगों का आकर्षण केन्द्र बनेगा, यह निश्चित है। जैन शिल्पशास्त्र के अनुसार समूचे मंदिर का निर्माण कार्य इस दक्षता के साथ हो रहा है कि संभवतः इस जोड़ की रचना सर्वप्रथम हो। इस मंदिर का अत्यंत सुंदर आकार, शिखर संयोजना एवं मध्य में कल्पवृक्ष की संरचना अपने आपमें अनूठी एवं अद्वितीय रहेगी।
मूलनायक चरमतीर्थाधिपति शासननायक श्रमण भगवान महावीर स्वामी की ५१ इंच की चौमुखी नयनाभिराम चार प्रतिमाएँ कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान होंगी, साथ में वर्तुलाकार आठ देहरी में २४ तीर्थंकर भगवान की ३१ इंच की २४ प्रतिमाएँ भी स्थापित होंगी।
दक्षिण भारत में अपने ढंग का अद्वितीय एवं चित्ताकर्षक इस तीर्थ के अन्तर्गत विशाल उपाश्रय, ज्ञानमंदिर, सुविधा संपन्न धर्मशाला एवं भोजनशाला व गृहमंदिर का निर्माण कार्य सम्पूर्ण हो चुका है।
हमारे परम पुण्योदय से अध्यात्मयोगी आचार्य देव श्रीमद् विजय कलापूर्ण सूरीश्वरजी म. सा. आदि के पूर्ण मार्गदर्शन एवं शुभाशीर्वाद से इस तीर्थ के शीघ्र निर्माण कार्य के साथ अंजनशलाका प्रतिष्ठा का भव्य महोत्सव भी शीघ्रता से संपन्न होगा। मद्रास में श्रीचन्द्रप्रभ जैन नया मंदिर जी की प्रतिष्ठा महोत्सव में पूज्यश्री के पावनहस्ते ३१ इंच की तीन प्रतिमाओं की अंजनशलाका कराई गईं जो वर्तमान में इसी तीर्थ के गृहमंदिर में स्थापित हैं।
भारत के महान समृद्धिशाली संघों एवं भाग्यशालियों से विनती है कि इस भागीरथ कार्य को पूर्ण रूप देने में हमें अपने हृदय के भावों से पूरा सहयोग देकर पुण्य के प्रभाव से मिली लक्ष्मी का सदुपयोग करें।
आपका सहयोग ही हमें गतिशील बनायेगा ।
आपके सहयोग से निर्मित होने वाला आपका अपना तीर्थ २४ तीर्थंकर तीर्थधाम मद्रास विजयवाडा नेशनल हाइवे नम्बर पांच पर मद्रास से १६० कि. मी. की दूरी पर स्थित है। नेल्लुर रेलवे स्टेशन पर उतरने वालों को वहाँ पहुँचने के लिये स्टेशन से टैक्सी तथा आटो की व्यवस्था है।
ट्रस्ट का जय जिनेन्द्र
निवेदक
२४ तीर्थंकर तीर्थधाम ट्रस्ट
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