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२. धुत्तङ्गनिद्देस
पुन चीवरपटिसंयुक्त्तानि पञ्च पिण्डपातपटिसंयुत्तानि पञ्च सेनासनपटिसयुत्तानि, एकं विरियपटिसंयुक्त्तं ति एवं चत्तारो व होन्ति । तत्थ नेसज्जिकङ्गं विरियपटिसंयुत्तं । इतरानि पाकटानेव ।
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पुन सब्बानेव निस्सयवसेन द्वे होन्ति पच्चयनिस्सितानि द्वादस, विरियनिस्सितं एकं ति । सेवितब्बासेवितब्बवसेन पि द्वे येव होन्ति । यस्य हि धुतङ्गं सेवेन्तस्स कम्मट्ठानं वड्ढति, न सेवितब्बानि । यस्स सेवतो हायति, तेन न सेवितब्बानि । यस्स पन सेवतो पि असेवतो पि वड्ढतेव, न हायति, तेनापि पच्छिमं जनतं अनुकम्पन्तेन सेवितब्बानि । यस्सापि सेवतो पि असेवतो पि न वड्डति, तेनापि सेवितब्बानि येव आयतिं वासनत्थाया ति ।
एवं सेवितब्बासेवितब्बवसेन दुविधानि पि सब्बानेव चेतनावसेन एकविधानि होन्ति । एकमेव हि धुतङ्गं समादानचेतना ति । अट्ठकथायं पि वृत्तं - " या चेतना, तं 'धुतङ्ग' ति वदन्ती" ति ।
८०. ब्यासतो पन भिक्खूनं तेरस, भिक्खुनीनं अट्ठ, सामणेरानं द्वादस, सिक्खमानसामणेरीनं सत्त, उपासक उपासिकानं द्वे ति द्वाचत्तालीस होन्ति । सचे पन अब्भोका आरञ्ञिकङ्गसम्पन्नं सुसानं होति, एको पि भिक्खु एकप्पहारेन सब्बधुतङ्गानि परिभुञ्जितुं सक्कोंति । भिक्खुनीनं पन आरञ्ञिकङ्गं खलुपच्छाभत्तिकङ्गं च द्वे पि सिक्खापदेनेव पटिक्खित्तानि; अब्भोकासिकङ्ग, रुक्खमूलिकङ्गं, सोसानिकङ्गं ति इमानि तीणि
पुनः इनमें दो अङ्ग चीवरसम्बन्धी पाँच पिण्डपातसम्बन्धी पाँच शयनासनसम्बन्धी, एक वीर्यसम्बन्धी - इस प्रकार चार ही होते हैं। उनमें नैषदियकाङ्ग वीर्यसम्बन्धी है, अन्य स्पष्ट हैं। फिर निश्रय के अनुसार ये सभी दो अङ्गों में अन्तर्भूत हो जाते हैं, जैसे-प्रत्ययसन्निश्रित बारह एवं वीर्यसन्निश्रित एक ।
सेवनीय एवं असेवनीय के अनुसार भी दो ही होते हैं। धुताङ्ग का पालन करते हुए जिसका कर्मस्थान बढ़ता है, उसके लिये सेवनीय हैं। जिसका कर्मस्थान धुताङ्ग का पालन करते हुए घटता है, उसके लिये असेवनीय हैं। किन्तु जिसका कर्मस्थान पालन करते हुए या पालन न करते हुए भी बढ़ता ही है घटता नहीं है, उसके लिये भी आगामी परम्परा (पीढ़ी) के प्रति अनुकम्पा करते हुए सेवनीय हैं। और जिसका कि पालन करते हुए भी, न पालन करते हुए भी नहीं बढ़ता है, उसके लिये भी भविष्य के लिये, अभ्यास डालने के उद्देश्य से, सेवनीय हैं।
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इस प्रकार सेवनीय - असेवनीय भेद से, दो प्रकार के होने पर भी, वे सभी चेतना के अनुसार एक प्रकार के होते हैं; क्योंकि धुताङ्ग को ग्रहण करने की चेतना एक ही है। अट्ठकथा में भी कहा गया है-"जो चेतना है उसे ही धुताङ्ग कहा जाता है।"
८०. फिर विस्तार से - भिक्षुओं के लिये तेरह भिक्षुणियों के लिये आठ, श्रामणेरियों के लिये सात, उपासक - उपासिकाओं के लिये दो-यों बयालीस (४२) होते हैं।
यदि खुले आकाश के नीचे, आरण्यकाङ्गसम्पन्न (= अरण्य की विशेषताओं से युक्त) श्मशान हो, तो (वहाँ एक भी भिक्षु एक ही साथ सभी धुताङ्गों का परिभोग कर सकता है। भिक्षुणियों के लिये तो आरण्यकाङ्ग एवं खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग- ये दोनों शिक्षापद के द्वारा ही निषिद्ध कर दिये गये हैं । आभ्यवकाशिकाङ्ग, वृक्षमूलिकाङ्ग, श्माशानिकाङ्ग-इन तीनों का पालन कठिन है। भिक्षुणी को किसी सहायिका के विना नहीं रहना चाहिये। एवं इस प्रकार के स्थान मे समान इच्छा वाली सहायिका दुर्लभ