Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 292
________________ ५. सेसकसिणनिद्देस २३९ परियन्तादीहि छिद्दसदिसमेव होति, वष्टियमानं पिन वड्डति।पटिभागनिमित्तं आकासण्डलमेव हुत्वा उपट्ठाति, वड्डियमानं च वड्डति। सेसं पथवीकसिणे वुत्तनयेनेव वेदितब्बं ति॥ परिच्छित्राकासकसिणं॥ इति कसिणानि दसबलो दस यानि अवोच सब्बधम्मदसो। रूपावचरम्हि ___चतुकपञ्चकझानहेतूनि॥ एवं तानि च तेसं च भावनानयमिमं विदित्वान। तेस्वेव अयं भिय्यो पकिण्णककथा पि विजेय्या॥ पकिण्णककथा १५. इमेसु हि पथवीकसिणवसेन एको पि हुत्वा बहुधा होती ति आदिभावो, आकासो वा उदके वा पथविं निम्मिनित्वा पदसा गमनं, ठाननिसज्जादिकप्पनं वा, परित्तअप्पमाणनयेन अभिभायतनपटिलाभो ति एवमादीनि इज्झन्ति। १६. आपोकसिणवसेन पथवियं उम्मुज्जननिमुज्जनं, उदकवुट्ठिसमुप्पादनं, नदीसमुदादिनिम्मानं, पथवीपब्बतपासादादीनं कम्पनं ति एवमादीनि इज्झन्ति। २७. तेजोकसिणवसेन धूमायना, पज्जलना, अङ्गारवुट्ठिसमुप्पादनं, तेजसा तेजोपरियादानं, यदेव सो इच्छति तस्स डहनसमत्थता, दिब्बेन चक्खुना रूपदस्सनत्थाय आलोककरणं, परिनिब्बानसमये तेजोधातुया सरीज्झापनं ति एवमादीनि इज्झन्ति। १८. वायोकसिणवसेन वायुगतिगमन, वातवुट्ठिसमुप्पादनं ति एवमादीनि इज्झन्ति। पूर्वोक्त झरोखे आदि के छेद में,"आकाश, आकाश" इस प्रकार भावना करनी चाहिये। यहाँ उस छिद्र के समान ही जो दीवार से घिरा होता है, उद्ग्रहनिमित्त होता है, जो बढ़ाने का प्रयास करने पर बढ़ता नहीं है। प्रतिभागनिमित्त आकाशमण्डल के समान ही प्रतीत होता है और बढ़ाने का प्रयास करने पर बढ़ता है। शेष, पृथ्वीकसिण में बतलायी गयी विधि के अनुसार ही, जानना चाहिये। परिच्छिन्नाकाशकसिण का वर्णन समाप्त ।। प्रकीर्णक (=संग्रह) इस प्रकार सर्वधर्मदर्शी, दशबल (भगवान् बुद्ध) ने रूपावचर (भूमि) में चतुष्क-पञ्चक ध्यानों के हेतु (भूत) जिन दस कसिणों को बतलाया है, उनको और उनकी भावना की इस विधि को इस प्रकार जानकर, उन्हीं में इस अतिरिक्त प्रकीर्णक विवरण (=कसिणों के विषय में असाधारण और साधारण कथनों को एकत्र कर किये गये विवरण) को भी जानना चाहिये। कसिण-सिद्धि का माहात्म्य १५. इनमें, पृथ्वीकसिण की भावना में सिद्धि प्राप्त करने से "एक होकर भी अनेक हो जाता है" आदि का होना, आकाश या जल में पृथ्वी निर्मित कर पैदल चलना, खड़ा होना, बैठना, आदि, परित्र (=परिमित) और अप्रमाण (=अपरिमित) विधि से अभिभ्वावयतन (निपुणता के आधार) की प्राप्ति आदि असाधारण कार्य सिद्ध होते हैं। १६. जलकसिण से पृथ्वी में डूबना-उतराना (उन्मज्जन-निमज्जन) जल बरसाना, नदी, .समुद्र आदि का निर्माण, पृथ्वी, पर्वत, प्रासाद आदि को कम्पित करना आदि सिद्धियाँ आती है। १७. तेज-कसिण से धुंआ उत्पन्न करना, प्रज्वलित होना, अङ्गारे बरसाना, अग्नि से अग्नि बुझाना, जिसे चाहे उसे जलाने का सामर्थ्य, दिव्य चक्षु द्वारा रूप देखने के लिये प्रकाश करना, परिनिर्वाण के समय अग्निधातु से शरीर को जलाना आदि सिद्ध होते हैं।

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