Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 320
________________ ६. असुभकम्मट्ठाननिदेस यथापि पुष्पितं दिस्वा सिङ्गालो किंसुकं वने । 'मंसरुक्खो मया लद्धो' इति गन्त्वान वेगसा ॥ पतितं पतितं पुप्फं डंसित्वा अतिलोलुपो । नयिदं मंसं अदुं मंसं यं रुक्खस्मि ति गण्हातिं ॥ कोट्ठासं पतितं येव असुभं ति तथा बुधो । अग्गहेत्वा गण्हेय्य सरीरट्टं पि न तथा ॥ इमं हि सुभतो कायं गहेत्वा तत्थ मुच्छिता । बाला करोन्ता पापानि दुक्खा न परिमुच्चरे ॥ तस्मा पस्सेय्य मेधावी जीवतो वा मतस्स वा । सभावं पूतिकायस्स सुभभावेन वज्जितं ॥ ५०. वृत्तं हेतं ४९. " दुग्गन्धो असुचि कायो कुणपो उक्करूपमो । निन्दितो चक्खुभूतेहि कायो बालाभिनन्दितो ॥ अल्लचम्मपटिच्छन्नो नवद्वारो महावणो । समन्ततो पग्घरति असुचि पूतिगन्धियो ॥ सचे इमस कायस्स अन्तो बाहिरको सिया । दण्डं नून गत्वान काके सोणे निवारये" ति ॥ २६७ फूलों के विषय में "यह मांसपेशी है"- ऐसा सोच-सोच कर व्याकुल होने वाले बूढ़े सियार के समान होते हैं। ४९. जिस प्रकार कोई परमलोभी सियार वन में फूले हुए किंशुक को देखकर "मैंने मांस का पेड़ पा लिया " - ऐसा सोचकर वहाँ दौड़ते हुए जाता है ।। और गिरे हुए फूलों पर मुँह मारते हुए, "यह मांस नहीं है, जो पेड़ पर है वही मांस है"ऐसा मानता है। उस प्रकार बुद्धिमान् न करें। अर्थात् वह ऐसा न माने कि "शरीर से गिरा हुआ भाग ही अशुभ है", अपितु जो शरीर में है उसे भी वैसा ही माने।। मूर्ख इस काय को शुभ मानते हुए उसमें मुग्ध होते हैं। वे इसके सहारे पाप करते हुए दुःखों से छुटकारा नहीं पाते ।। इसलिये बुद्धिमान् को जीवित या मृत अपवित्र काय के शुभत्व से रहित स्वभाव को देखना समझना चाहिये ।। ५०. कहा भी है "दुर्गन्धित, अपवित्र काय शौचालय के समान घृणित है। यह काय (प्रज्ञा) चक्षुवालों के द्वारा निन्दित और मूर्खों के द्वारा ही अभिनन्दित है ।। "गीले (भीतरी) चमड़े से ढँका नौ द्वारों वाला यह (शरीररूपी) महाव्रण चारों ओर से दुर्गन्धित गन्दगी बहा रहा है। "यदि इस शरीर का भीतरी भाग बाहर होता तो प्रत्येक शरीरधारी को स्वरक्षाहेतु अवश्य ही डण्डा लेकर कौवों और कुत्तों को रोकना पड़ता ।।”

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