Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 318
________________ ६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस २६५ सीघसोताय नदिया अरित्तबलेनेव नावा तिट्ठति, विना अरित्तबलेन न सक्का ठपेतुं; एवमेव दुब्बलत्ता आरम्मणस्स वितक्कबलेनेव चित्तं एकग्गं हुत्वा तिट्ठति, विना वितक्केन न सक्का ठपेतुं । तस्मा पठमज्झानमेवेत्थ होति, न दुतियादीनि । ४७. पटिक्कूले पि च एतस्मि आरम्मणे " अद्धा इमाय पटिपदाय जरामरणम्हा परिमुच्चिस्सामी " ति एवं आनिसंसदस्साविताय चेव नीवरणसन्तापप्पहानेन च पतिसोमनस्सं उप्पज्जति, ‘बहुं दानि वेतनं लभिस्सामी' ति आनिसंसदस्साविनो पुप्फछड्डकस्स गूथरासिम्हि विय उस्सन्नब्याधिदुक्खस्स रोगिनो वमनविरेचनप्पवत्तियं विय च । ४८. दसविधं पि चेतं असुभं लक्खणतो एकमेव होति । दसविधस्सा पि तस्स असुचिदुग्गन्धजेगुच्छपटिक्कूलभावो एव लक्खणं । तदेतं इमिना लक्खणेन न केवलं मतसरीरे, दन्तट्ठिकदस्साविनो पन चेतियपब्बतवासिनो महातिस्सत्थेरस्स विय, हत्थिक्खन्धगतं राजानं ओलोकेन्तस्स सङ्घरक्खितत्थेरुपट्टाकसामणेरस्स विय च जीवमानकसरीरे पि उट्ठाति । यथेव हि मतसरीरं एवं जीवमानकं पि असुभमेव । असुभलक्खणं पनेत्थ आगन्तुकेन अलङ्कारेन परिच्छन्नत्ता न पञ्ञायति । पकतिया पन इदं सरीरं नाम अतिरेकतिसत - अट्ठिकसमुस्सयं असीति-सतसन्धिसङ्घटितं नवन्हारुसतनिबन्धनं नवमंसपेसिसतानुलित्तं अल्लचम्मपरियोनद्धं छविया पटिच्छन्नं छिद्दावछिद्दं मेदकथालिका विय निच्चुग्घरितपग्घरितं किमिसङ्घनिसेवितं रोगानं आयतनं दुक्खधम्मानं वत्थु परिभिन्नपुराणगण्डो विय नवहि वणमुखेहि सततविस्सन्दनं । यस्स उभोहि अक्खीहि अक्खिगूथको पग्घरति, कण्णबिलेहि कण्णगूथको, नासापुटेहि सिङ्घाणिका, मुखतो आहारपित्तसेम्हरुधिरानि, अधोद्वारे ह I लंगर के बल से ही रुकती है, बिना लंगर के नहीं रुक पाती; वैसे ही, क्योंकि आलम्बन की दुर्बलता के कारण वितर्क के बल से ही चित्त एकाग्र होकर रहता है, विना वितर्क के नहीं टिक सकता; अतः यहाँ केवल प्रथम ध्यान होता है, द्वितीय आदि नहीं। ४७. और " यद्यपि आलम्बन प्रतिकूल है, फिर भी अवश्य ही इस मार्ग से मैं जरामरण से मुक्त हो जाऊँगा"- इस प्रकार गुण देखने से एवं नीवरणजन्य सन्ताप का प्रहाण हो जाने से प्रीति और सौमनस्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि "अब बहुत वेतन पाऊँगा" इस प्रकार सोचकर भङ्गी (= मैला ढोने वाला. पुप्फछड्डुक) मल के ढेर में और उत्पन्न व्याधि से दुःखी रोगी वमन विरेचन होने में गुण (= लाभ) देखता है। ४८. यह दशविध अशुभ, लक्षण के अनुसार एक ही होता है; क्योंकि यद्यपि यह सङ्ख्या से दशविध है, तथापि अपवित्र, दुर्गन्धित, जुगुप्साजनक और प्रतिकूल होना ही इसका लक्षण है। ऐसा वह अशुभ इन लक्षणों से न केवल मृत शरीर में, अपितु दाँत की अस्थियों को अशुभ रूप में देखने वाले चैत्यपर्वतवासी महातिष्य स्थविर के समान और हाथी पर बैठे हुए राजा को देखने वाले सङ्घरक्षित स्थविर के सेवक श्रामणेर के समान, जीवित शरीर में भी जान पडता है। मृत शरीर के ही समान जीवित (शरीर) भी अशुभ ही है। किन्तु यहाँ (= जीवित शरीर में) अशुभ का लक्षण आगन्तुक अलङ्कारों (=साज-श्रृंगार) से ढँके रहने से नहीं जान पड़ता है, किन्तु स्वभाव से तो यह शरीर तीन सौ से अधिक अस्थियों का समुच्चय, एक सौ अस्सी सन्धियों (जोड़ों) से जुड़ा, नौ सौ से बँधा नौ सौ मांसपेशियों से लिपटा हुआ, भीतरी गीली त्वचा से लपेटा हुआ, ऊपरी त्वचा से ढँका हुआ, छोटे बड़े छिद्रों से बहने वाला, क्रिमियों के समूह से सेवित, रोगों का घर, दुःख-धर्मों का आश्रय, फूटे हुए

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