Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 316
________________ ६. असुभकम्मछाननिद्देस २६३ "चतूसु ब्रह्मविहारेसु दससु च असुभेसु पटिभागनिमित्तं नत्थि। ब्रह्मविहारेसु हि सीमसम्भेदो येव निमित्तं। दससु च असुभेसु निब्बिकप्पं कत्वा पटियूलभावे येव दिढे निमित्तं नाम होती" ति वत्वा पि पुन अन्तरन्तरमेव, "दुविधं इध निमित्तं-उग्गहनिमित्तं, पटिभागनिमित्तं । उग्गहनिमित्तं विरूपं बीभच्छं भयानकं हुत्वा उपट्ठाती"ति आदि वुत्तं। तस्मा यं विचारेत्वा अवोचुम्ह, इदमेवेत्थ युत्तं। अपि च-महातिस्सत्थेरस्स दन्तट्ठिकमत्तावलोकनेन सकलिथिसरीरस्स अट्ठिसङ्घातभावेन उपट्ठानादीनि चेत्थ निदस्सनानी ति। इति असुभानि सुभगुणो दससतलोचनेन थुतकित्ति। यानि अवोच दसबलो एकेकज्झानहेतूनी ॥ ति॥ पकिण्णककथा एवं तानि च तेसं च भावनानयमिमं विदित्वान। तेस्वेव अयं भिय्यो पकिण्णककथा पि विजेय्या॥ ४४. एतेसु हि यत्थ कत्थचि अधिगतज्झानो सुविक्खम्भितरागत्ता वीतरागो विय निल्लोलुप्पचारो होति। एवं सन्ते पि य्वायं असुभप्पभेदो वुत्तो, सो सरीरसभावप्पत्तिवसेन च रागचरितभेदवसेन चा ति वेदितब्बो। छवसरीरं हि पटिकूलभावं आपजमानं उद्धमातकसभावप्पत्तं वा सिया, विनीलकादीनं वा अञ्जतरसभावप्पत्तं। इति यादिसं यादिसं सका होति लद्धं तादिसे समर्थन करता है। क्योंकि उनमें-"चार ब्रह्मविहारों और दस अशुभों में प्रतिभागनिमित्त नहीं होता। इन ब्रह्मविहारों (=मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा) में तो सीमाओं का भङ्ग होना ही निमित्त है; और दस अशुभों में विचार किये विना ही, प्रतिकूल को देखते ही, निमित्त उत्पन्न हो जाता है"-इस प्रकार कहे जाने पर भी उसके तुरन्त बाद ही-"यहाँ द्विविध निमित्त हैं-उद्ग्रहनिमित्त और प्रतिभागनिमित्त। उद्ग्रहनिमित्त विरूप, बीभत्स, भयानक जान पड़ता है"-आदि कहा गया है। इसलिये विचार करने के बाद जो हमने प्रतिपादित किया है, वही यहाँ युक्त है। इसके अतिरिक्त, महातिष्य स्थविर को दाँत की अस्थि देखने मात्र से ही स्त्री के समस्त शरीर की अस्थिकङ्काल के रूप में प्रतीति होना-आदि यहाँ उदाहरण हैं। इस प्रकार शुभ गुणों वाले, सहस्राक्ष (इन्द्र) द्वारा प्रशंसित कीर्ति वाले दशबल (बुद्ध) ने एकएक ध्यान के हेतु जिन अशुभों को बतलाया, उन्हें और उनकी भावना करने की इस विधि को इस प्रकार जानकर, उन्हें यह अधोलिखित अतिरिक्त प्रकीर्णक वर्णन जानना चाहिये।। प्रकीर्णक वर्णन ४४. इनमें से किसी में भी ध्यान को प्राप्त करने वाला भिक्षु राग के भलीभाँति दमित हो जाने से, वीतराग के समान, लोभरहित होकर विचरने वाला हो जाता है। ऐसा होने पर भी अर्थात् सभी दश अशुभों में से किसी एक में ध्यान प्राप्त करने का उपर्युक्त सामान्य लाभ होने पर भी, जो ये अशुभ के भेद बतलाये गये हैं, वे मृत शरीर की स्वभावप्राप्ति के अनुसार एवं रागचरित के भेदों के अनुसार हैंऐसा जानना चाहिये। जब कोई शव प्रतिकूलता (=कुत्सित भाव) को प्राप्त होता है, तब वह उद्धमातक स्वभाव को प्राप्त करता है या विनीलक आदि किसी अन्य स्वभाव को। वह जिस जिस रूप में प्राप्त हो, उस उस

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