Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 294
________________ ५. सेसकसिणनिद्देस २४१ अधो, एकच्चो समन्ततो। तेन तेन वा कारणेन एवं पसारेति, आलोकमिव दिब्बचक्षुना रूपदस्सनकामो। तेन वुत्तं उद्धमधो तिरियं ति। अद्वयं ति। इदं पन एकस्स अञभावानुपगमनत्थं वुत्तं । यथा हि उदकं पविट्ठस्स सब्बदिसासु उदकमेव होति, न अजं; एवमेव पथवीकसिणं पथवीकसिणमेव होति,नत्थि तस्स अओ कसिणसम्भेदो ति । एसेव नयो सब्बत्थ । अप्पमाणं ति । इदं तस्स फरणअप्पमाणवसेन वुत्तं। तं हि चेतसा फरन्तो सकलमेव फरति। न 'अयमस्स आदि, इदं मझं' ति पमाणं गण्हाती ति। २७. ये च ते सत्ता कम्मावरणेन वा समन्नागता, किलेसावरणेन वा समन्नागता, विपाकावरणेन वा समन्नागता अस्सद्धा अच्छन्दिका दुप्पञ्जा अभब्बा नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं ति वुत्ता, तेसमेकस्सापेककसिणे पि भावना न इज्झति। २८. तत्थ कम्मावरणेन समन्नागता ति।आनन्तरियकम्मसमङ्गिनो। किलेसावरणेन समन्नागता ति। नियतमिच्छादिट्ठिका चेव उभतोब्यञ्जनकपण्डका च। विपाकावरणेन समन्नागता ति । अहेतुकपटिसन्धिका।अस्सद्धा ति।बुद्धादीसु सद्धाविरहिता। अच्छन्दिका ति। अपच्चनीकपटिपदायं छन्दविरहिता। दुप्पा ति। लोकियलोकुत्तरसम्मादिट्ठिया विरहिता। अभब्बा नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं ति। कुसलेसु धम्मेसु ओर । तिरियं (समतल)-खेत के घेरे के समान चारों ओर से परिमित । कोई-कोई योगी कसिण को ऊपर की ओर से बढ़ाता है, कोई कोई नीचे की ओर या कोई कोई चारों ओर! अथवा दिव्यचक्षु द्वारा रूपदर्शन का अभिलाषी उस उस कारण से प्रकाश के समान कसिण का इस प्रकार प्रसार करता है। इसीलिये कहा गया है-"ऊपर, नीचे, समतल"। अद्वयं (अद्वितीय)-यह शब्द इसलिये कहा गया है कि ऐसी स्थिति अन्य किसी के साथ नहीं है। जिस प्रकार जल में प्रविष्ट व्यक्ति के लिये चारों दिशाओं में जल ही जल होता है, अन्य कुछ नहीं; उसी प्रकार पृथ्वीकसिण पृथ्वीकसिण ही होता है, अन्य कसिणों के साथ इसकी कुछ भी समानता नहीं है। यही विधि सर्वत्र है। अप्पमाणं (अपरिमित)-यह उसके अपरिमित रुझान के कारण कहा गया है, क्योंकि वह चित्त को सम्पूर्णता के साथ झुकाये . रखता है, "यह इसका आदि है, यह मध्य है"-इस प्रकार परिमाण का ग्रहण नहीं करता।। कसिणभावना में अनधिकारी पुद्गल २७. "जो प्राणी कर्मावरण (=कर्म के आवरण) क्लेशवरण या विपाकावरण से युक्त हैं, श्रद्धाहीन, छन्दरहित, दुष्प्रज्ञ हैं वे कुशल धर्मों की ओर ले जाने वाले श्रेयस्कर मार्ग की प्राप्ति के योग्य नहीं होते"-ऐसा कहा गया है। उनमें से किसी एक को भी कसिण-भावना में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। २८. इस पालिपाठ में कम्मावरणेन समन्त्रागता (कर्मावरण से युक्त)-आनन्तर्य कर्मों (१. मातृवध, २. पितृवध, ३. अर्हद-वध, ४. तथागत के शरीर से रुधिर गिराना, ५. सच में फूट डालना) से युक्त । किलेसावरणेन समन्नागता क्लेशावरण से युक्त (=नियत मिथ्यादृष्टि (=१. अहेतुकवादी,२. अक्रियावादी, ३. नास्तिकवादी, उभयतोव्यअनक (=स्त्री पुरुष दोनों लिङ्गों से युक्त) एवं पण्डक (नपुंसक)। विपाकावरणेन समन्नागता (विपाकावरण से युक्त)- अहेतुक प्रतिसन्धि वाले (=जिसकी प्रतिसन्धि विना किसी कुशलविपाक के साथ हुई हो या केवल दो कुशल-विपाकों के साथ हुई हो, जैसे पशु योनि में उत्पन्न या मनुष्यों में गूंगे आदि के रूप में उत्पन्न)। अस्सद्धा (श्रद्धाहीन)-बुद्ध आदि के प्रति श्रद्धा से रहित । अच्छन्दिका (छन्दरहित)-अप्रतिकूल प्रतिपदा (=मार्ग) के प्रति इच्छारहित । दुप्पा (दुष्प्रज्ञ)-लौकिक-लोकोदर सम्यग्दृष्टि से रहित । अभब्बा नियामं ओक्कमितुंकुसलेसुधम्मेसु

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