Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 312
________________ ६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस - २५९ किच्चं साधयमानो विचारो, पटिलद्धविसेसाधिगमपच्चया पीति, पीतिमनस्स पस्सद्धिसम्भवतो पस्सद्धि, तंनिमित्तं सुखं, सुखितस्स चित्तसमाधिसम्भवतो सुखनिमित्ता एकग्गता चा ति झानङ्गानि पातुभवन्ति। एवमस्स पठमज्झानपटिबिम्बभूतं उपचारज्झानं पि तं खणं येत निब्बत्तति । इतो परं याव पठमझानस्स अप्पना चेव वसिप्पत्ति च, ताव सब्बं पथवीकसिण वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । विनीलकादिभावनाविधानं ३१. इतो परेसु पन विनीलकादीसु पि यं तं "उद्धमातकं असुभनिमित्तं उग्गण्हन्तो एको अदुतियो गच्छति उपट्ठिताय सतिया" ति आदिना नयेन गमनं आदि कत्वा लक्खणं वुत्तं, तं सब्बं "विनीलकं असुभनिमित्तं उग्गण्हन्तो, विपुब्बकं असुभनिमित्तं उग्गण्हन्तो" ति एवं तस्स वसेन तत्थ तत्थ उद्घमातकपदमत्तं परिवत्तेत्वा वुत्तनयेनेव सविनिच्छयाधिप्पायं वेदितब्बं। ३२. अयं पन विसेसो-विनीलके "विनीलकपटिकलं विनीलकपटिकलं"ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। उग्गहनिमित्तं चेत्थ कबरकबरवण्णं हुत्वा उपट्टाति। पटिभागनिमित्तं निच्चलं सन्निसिन हुत्वा उपट्ठाति। . ३३. विपुब्बके "विपुब्बकपटिक्कूलं विपुब्बपटिकूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। उग्गहनिमित्तं पनेत्थ पग्घरन्तमिव उपट्ठाति।पटिभागनिमित्तं निच्चलं सन्निसिन हुत्वा उपट्ठाति। ३४. विच्छिद्दकं युद्धमण्डले वा चोराटवियं वा सुसाने वा यत्थ राजानो चोरे छिन्दापेन्ति, अरओ वा पन सीहब्यग्घेहि छिन्नपुरिसट्ठाने लब्भति। तस्मा तथारूपं ठानं वाला विचार, उपलब्ध विशिष्टता से उत्पन्न प्रीति, प्रीतियुक्त मन वाले के लिये ही प्रश्रब्धि सम्भव होने से प्रश्रब्धि, प्रब्धि जिसका निमित्त है वह सुख, उस सुखी की ही चित्त की समाधि (=एकाग्रता) सम्भव होने से सुखनिमित्त वाली एकाग्रता-ये ध्यानाङ्ग प्राप्त होते हैं। ___ इस प्रकार उपचार ध्यान, जो कि प्रथम ध्यान का प्रतिबिम्बरूप है, उसी क्षण उत्पन्न होता है। इसके बाद प्रथम ध्यान में अर्पणा एवं उस परवशिता की प्राप्ति तक सब विधि पृथ्वीकसिण में उक्त विधानानुसार जानना चाहिये। विनीलक आदि की भावनाविधि ३१. इसके पश्चात्, विनीलक आदि के विषय में जो भी "वह उद्धमातक अशुभनिमित्त को ग्रहण करने वाला अकेला, विना किसी को साथ लिये, स्मृति को बनाये रखकर जाता है" आदि प्रकार से, गमन से प्रारम्भ कर समग्र लक्षण बतलाये गये हैं-उन सबको-"विनीलक अशुभनिमित्त को ग्रहण करने वाला"-इस प्रकार उसी रूप में वहाँ-वहाँ केवल उद्धमातक शब्द को हटाकर पूर्वोक्तानुसार ही, व्याख्या एवं तात्पर्य जानना चाहिये। ३२. अन्तर यह है-विनीलक के प्रसङ्ग में "विनीलक प्रतिकूल, विनीलक प्रतिकूल"-इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । यहाँ उद्ग्रहनिमित्त चितकबरा (शबल) जान पड़ता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त उस रंग का जान पड़ता है, जिस रंग की प्रमुखता होती है अर्थात् लाल, नीला या सफेद रंग का। ३३. विपुबक में “विपुब्बकप्रतिकूल, विपुष्बकप्रतिकूल" इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। यहाँ उद्ग्रहनिमित्त फूटकर बहता हुआ जान पड़ता है। किन्तु प्रतिभामनिमित्त निश्चल, स्थिर जान पडता है। ३४. विच्छिद्दक युद्धक्षेत्र में, चोरों द्वारा अधिकृत जङ्गल में, श्मशान में, जहाँ राजा चोरों को

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