Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 299
________________ २४६ विसुद्धिमग्ग भूतस्स अङ्गपच्चङ्गानि वा पवेधेन्ति, भुत्तं वा न परिसण्ठाति, अज्ञो वा आबाधो होति, अथस्स सो विहारे सुरक्खितं करिस्सति। दहरे वा सामणेरे वा पहिणित्वा तं भिक्खं पटिजग्गिस्सति। अपि च 'सुसानं नाम निरातङ्कट्ठान' ति मञ्जमाना कतकम्मा पि अकतकम्मा पि चोरा समोसरन्ति । ते मनुस्सेहि अनुबद्धा भिक्खुस्स समीपे भण्डकं छड्डत्वा पि पलायन्ति। मनुस्सा "सहोड्ढें चोरं अदस्सामा" ति भिक्खुं गहेत्वा विहेठेन्ति । अथस्स सो "मा इमं विहेठयित्थ, ममायं कथेत्वा इमिना नाम कम्मेन गतो" ति ते मनुस्से सापेत्वा सोत्थिभावं करिस्सति । अयं आनिसंसो कथेत्वा गमने। तस्मा वुत्तप्पकारस्स भिक्खुनो कथेत्वा असुभनिमित्तदस्सने सञ्जाताभिलासेन, यथा नाम खत्तियो अभिसेकट्ठानं, यजमानो यज्ञसालं, अधनो वा पन निधिट्ठानं पीतिसोमनस्सजातो गच्छति, एवं पीतिसोमनस्सं उप्पादेत्वा अट्ठकथासु वुत्तेन विधिना गन्तब्बं । १४. वुत्तं हेतं "उद्धमातकं असुभनिमित्तं उग्गण्हन्तो एको अदुतियो गच्छति, उपट्ठिताय सतिया असम्मुट्ठाय अन्तोगतेहि इन्द्रियेहि अबहिगतेन मानसेन, गतागतमग्गं पच्चवेक्खमानो। यस्मि पदेसे उद्धमातकं असुभनिमित्तं निक्खित्तं होति, तस्मि पदेसे पासाणं वा वम्मिकं वा रुक्खं वा गच्छं वा लतं वा सनिमित्तं करोति, सारम्मणं करोति। सनिमित्तं कत्वा सारम्मणं कत्वा उद्धमातकं असुभनिमित्तं सभावभावतो उपलक्खेति वण्णतो पि लिङ्गतो पि सण्ठानतो पि अनिष्ट आलम्बनों से डरकर इस भिक्षु के अङ्ग प्रत्यङ्ग काँपने लगें, खाया-पिया न पचे या कोई दूसरी परेशानी खड़ी हो जाय, तो विहार में वह स्थविर य सुपरिचित भिक्षु उसके पात्र-चीवर को सुरक्षित रखेगा या तरुण भिक्षु को अथवा श्रामणेर को भेजकर उस भिक्षु की सेवा-सुश्रूषो करवायगा। (२) इसके अतिरिक्त-''श्मशान निरापद स्थान है"-ऐसा जानते हुए चोरी कर चुके या चोरी करने वाले चोर भी आपस में मिलते रहते हैं। जब लोग उनका पीछा करते हैं, तब वे भिक्षु के पास चोरी का माल छोड़कर भाग जाते हैं। लोग "सामान के साथ चोर को पकड़ लिया"-यों कहकर भिक्षु को सताते हैं। ऐसा होने पर वह स्थविर भिक्षु "इसे मत सताओ, यह मुझे बताकर इस कार्य से गया था"-इस प्रकार उन लोगों को सत्य बात बताकर छुड़ा लेगा। अतः कहकर जाने में यह लाभ इसलिये उक्त प्रकार के भिक्षु से कहकर अशुभनिमित्त के दर्शन के अभिलाषी को, जैसे क्षत्रिय अभिषेकस्थल की ओर, यजमान यज्ञशाला की ओर या निर्धन खजाने की ओर प्रीति एवं सौमनस्य के साथ जाता है, वैसे ही प्रीति और सौमनस्य उत्पन्न कर, अट्ठकथाओं में कहे गये ढंग से जाना चाहिये। १४. क्योंकि वहाँ यह कहा गया है "उद्धमातक अशुभनिमित्त को ग्रहण करने वाला अकेला, विना किसी को साथ लिये, स्मृति बनाये रखकर, विस्मरण (=सम्प्रमोष) से रहित होकर, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने से वहाँ अन्तर्मुख हुए मन के साथ, गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षण करते हुए जाता है। जिस प्रदेश में उद्धमातक अशुभनिमित्त पड़ा हुआ होता है, उस प्रदेश में पत्थर, दीमक की बॉबी, पेड, झाड़ी या लता को निमित्त के साथ ग्रहण करता है, आलम्बन के साथ ग्रहण करता है। निमित्त या आलमम्बन के साथ ग्रहण कर,

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