Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 180
________________ १२७ ३. कम्महानग्गहणनिदेस . ततो आगन्तुको चिन्तेसि-"निबद्धयागु मजे नत्थि, भत्तकाले इदानि मनुस्सा पणीतं भत्तं दस्सन्ती' ति। ततो भत्तकाले पि पिण्डाय चरित्वा लद्धमेव भुञ्जित्वा इतरो आह-"किं, भन्ते, सब्बकालं एवं यापेथा"ति?'आमावुसो'ति। भन्ते, पाचीनखण्डराजि फासुका, तत्थ गच्छामा' ति। थेरो नगरतो दक्खिणद्वारेन निक्खमन्तो कुम्भकारगाममग्गं पटिपज्जि । इतरो आह-"किं पन, भन्ते, इमं मग्गं पटिपन्नत्था" ति? "ननु त्वं, आवुसो, पाचीनखण्डराजिया वण्णं अभासी" ति?"किं पन, भन्ते, तुम्हाकं एत्तकं कालं वसितट्ठाने न कोचि अतिरेकपरिक्खारो अत्थी" ति?"आमावुसो, मञ्चपीठं सङ्गिकं, तं पटिसामितमेव, अनंकिञ्चि नत्थी"ति।"मय्हं पन, भन्ते, कत्तदण्डो तेलनाळिउपाहनत्थविका च तत्थेवा" ति। "तया, आवुसो, एकदिवसं वसित्वा एत्तकं ठपितं" ति? "आम, भन्ते।" सो पसन्नचित्तो थेरं वन्दित्वा "तुम्हादिसानं, भन्ते, सब्बत्थ अरञवासो येव। थूपारामो चतुन्नं बुद्धानं धातुनिधानट्ठान, लोहपासादे सप्पायं धम्मस्सवनं महाचेतियदस्सनं थेरदस्सनं च लभति, बुद्धकालो विय पवत्तति। इधेव तुम्हे वसथा" ति। दुतियदिवसे पत्तचीवरं गहेत्वा सयमेव अगमासी ति। ईदिसस्स आवासो न पलिबोधो होति। (१) कुलं ति। जातिकुलं वा, उपट्ठाककुलं वा। एकच्चस्स हि उपट्ठाककुलं पि"सुखितेसु सुखितो" (अभि० २-४२५) ति आदिना नयेन संसट्ठस्स विहरतो पलिबोधो होति, सो देंगे"- ऐसा सोचकर सबेरे ही उसने साथी के साथ ग्राम में प्रवेश किया। उन दोनों ने एक गली में चारिका करते हुए एक करछुल यवागू पाकर उसे आसनशाला में बैठकर पी लिया। तब आगन्तुक भिक्षु ने सोचा-"सम्भवतः यवागू आदि की बँधी भिक्षा का प्रचलन यहाँ नहीं है, अब (दोपहर के) भोजन समय लोग सम्भवतः उत्तम भात दें।" फिर भोजन के समय भी भिक्षाटन करते हए जो भी मिला उसी को खाकर आगन्तक भिक्ष ने कहा-"भन्ते, क्या आप हर समय ऐसे ही काम चलाते हैं?" "हाँ, आयुष्मन्!" "भन्ते, प्राचीन खण्डराजि सुखदायक (स्थान) है, वहीं चलेंगे।" स्थविर ने नगर के दक्षिण द्वार से निकलते समय कुम्भकार ग्राम जाने वाला रास्ता पकड़ा (जो कि प्राचीन खण्डराजि की ओर जाता था)। दूसरे ने कहा-"भन्ते, आपने यह रास्ता क्यों पकड़ लिया?" "आयुष्मन्! क्या तुमने प्राचीन खण्डराजि की प्रशंसा नहीं की थी?" "किन्तु भन्ते, आप इतने समय से जहाँ रह रहे हैं, वहाँ क्या कोई भी वस्तु सङ्घ की सम्पत्ति के अतिरिक्त नहीं है, जिसे लिये विना ही चल पड़े?" "हाँ, आयुष्मन्! चौकी-चारपाई सङ्घ की है, उन्हें तो सङ्घको सौंप ही चुका हूँ और कुछ नहीं है।" "किन्तु भन्ते, मेरी लाठी, तेल रखने की फोंफी और जूता रखने का थैला वहीं है।" "आयुष्मन्! तुमने एक दिन रुकने पर ही इतना कुछ इकट्ठा कर लिया?" "हाँ, भन्ते!" . __ अपनी भूल समझ.कर, उसने प्रसन्न मन से स्थविर को प्रणाम कर कहा-"भन्ते, आप जैसों के लिये तो सर्वत्र जगल में रहने के ही समान है। स्तूपाराम चारों बुद्धों (=इस भद्रकल्प के चार बुद्ध-क्रकुसन्ध, कोणागमन, कश्यप एवं गौतम) की धातु के निधान (रखने) का स्थान है। लौहप्रसाद (अनराधपर में एक भिक्ष-आवास) में धर्म का अनकल श्रवण, महाचैत्य (अनराधपर का सुवर्णमाली चैत्य) और स्थविरों का दर्शनलाभ होता है। जिस काल में बुद्ध जीवित थे उस काल के समान यहाँ का जीवन है। आप यहीं रहें।" इस प्रकार कहकर दूसरे दिन उसने अपना पात्र और चीवर लेकर अकेले ही प्रस्थान किया। इस प्रकार के भिक्षु के लिये आवासपरिबोध नहीं होता।। (१) कुल- ज्ञाति-कुल या सेवक-कुल। किसी-किसी के लिये सेवककुल (सेवकों का कुल) भी "सुखी होने पर सुखी" (अभि० २-४२५) आदि वचन के अनुसार संसर्गविहार (=एक साथ

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