Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti
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४. पथवीकसिणनिद्देस
२२५ चतुत्थज्झानकथा ७५. एवमधिगते पन तस्मि पि वुत्तनयेनेव पञ्चहाकारेहि चिण्णवसिना हुत्वा पगुणततियज्झानको वुट्ठाय "अयं समापत्ति आसन्नपीतिपच्चत्थिका, यदेव तत्थ सुखमिति चेतसो आभोगो, एतेने ओळारिकमक्खायती" ति एवं वुत्तस्स सुखस्स "ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला"ति च तत्थ दोसं दिस्वा चतुत्थज्झानं सन्ततो मनसिकत्वा ततियज्झाने निकन्ति परियादाय चतुत्थाधिगमाय योगो कातब्बो। अथस्स यदा ततियज्झानतो वुवाय सतस्स सम्पजानस्स झानङ्गानि पच्चवेक्खतो चेतसिकसोमनस्ससञ्जातं सुखं ओळारिकतो उपट्ठाति, उपेक्खावेदना चेव चित्तेकग्गता च सन्ततो उपट्ठाति, तदास्स ओळारिकङ्गप्पहानाय सन्तङ्गपटिलाभाय च तदेव निमित्तं "पथवी, पथवी" ति पुनप्पुनं मनसिकरोतो "इदानि चतुत्थज्झानं उप्पजिस्सती"ति भवङ्गं उपच्छिन्दित्वा तदेव पथवीकसिणं आरम्मणं कत्वा मनोद्वारावजनं उप्पज्जति। ततो तस्मि येवारम्मणे चत्तारि पञ्च वा जवनानि उप्पजन्ति, येसं अवसाने एकं रूपावचरं चतुत्थज्झानिकं, सेसानि वुत्तप्पकारानेव कामावचरानि।।
अयं पन विसेसो-यस्मा सुखवेदना अदुक्खमसुखाय वेदनाय आसेवनपच्चयेन पच्चयो न होति, चतुत्थज्झाने च अदुक्खमसुखाय वेदनाय उप्पज्जितब्बं, तस्मा तानि उपेक्खावेदनासम्पयुत्तानि होन्ति। उपेक्खासम्पयुत्तत्ता येव चेत्थ पीति पि परिहायती ति।
... एत्तावता चेस सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सकौन से दो अङ्गों वाला ध्यान है? सुख और चित्त की एकाग्रता।" शेष प्रथम ध्यान में वर्णित विधि के अनुसार ही है। चतुर्थ ध्यान .
७५. इस प्रकार, उस तृतीय ध्यान को प्राप्त कर चुकने पर, उसमें भी कहे गये प्रकार से ही पाँच प्रकार की वशिताएँ प्राप्त कर, अभ्यस्त या परिचित तृतीय ध्यान से उठकर,"यह समापत्ति प्रीति की समीपवर्तिनी है, क्योंकि वहाँ जो 'सुख' इस प्रकार चित्त का आनन्द लेना (=आभोग) है, इससे यह स्थूल कही जाती है"-ऐसे इस प्रकार कहे गये सुख में "स्थूलत्व के कारण दुर्बल अङ्ग वाली है"इस प्रकार वहाँ तृतीय ध्यान में दोष देखकर चतुर्थ ध्यान की ओर शान्तिपूर्वक मन लगाकर तृतीय की कामना छोड़कर चतुर्थ की प्राप्ति के लिये उद्योग करना चाहिये।
जब तृतीय ध्यान से उठकर स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उस भिक्षु को ध्यान के अङ्गों का प्रत्यवेक्षण करते हुए चैतसिक सौमनस्य नामक सुख स्थूल प्रतीत होता है एवं उपेक्षा वेदना तथा चित्त की एकाग्रता शान्त प्रतीत होती है, तब वह स्थूल अङ्गों के प्रहाण के लिये और शान्त अगों की प्राप्ति के लिये उसी "पृथ्वी, पृथ्वी" निमित्त को बारम्बार मन में लाते हुए "अब चतुर्थ ध्यान उत्पन्न होगा"रसा जान लेता है, और भवाङ्ग का उपच्छेद कर, उसी पृथ्वीकसिण को आलम्बन बनाकर मनोद्वारावर्जन चेत्त उत्पन्न होता है। तब उसी आलम्बन में चार पाँच जवन उत्पन्न होते हैं, जिनका अन्तिम चित्त एकरूपावचर चतुर्थ ध्यान का होता है। शेष पूर्वोक्त प्रकार से कामावचर होते हैं।
किन्तु भेद यह है क्योंकि सुखवेदना अदुःख-असुख (=उपेक्षा) वेदना का आसेवनप्रत्यय -पुनरावृत्तिप्रत्यय) नहीं होती एवं चतुर्थ ध्यान में परिकर्म को अदुःख, असुख वेदना के साथ उत्पन्न होना चाहिये, इसलिये वे परिकर्म चित्त उपेक्षावेदना से सम्प्रयुक्त होते हैं। उपेक्षावेदना से सम्प्रयुक्त होने से ही यहाँ प्रीति नहीं रहती।
यों इस तरह "सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा
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