Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 285
________________ सेसकसिणनिद्देसो (पञ्चमो परिच्छेदो) आपोकसिणकथा १. इदानि पथवीकसिणानन्तरे आपोकसिणे वित्थारकथा होति। यथेव हि पथवीकसिणं, एवं आपोकसिणं पि भावेतुकामेन सुखनिसिन्नेन आपस्मि निमित्तं गण्हितब्बं,"कते वा अकते वा" ति सब्बं वित्थारेतब्बं । यथा च इध, एवं सब्बत्थ । इतो परं हि एत्तकं पि अवत्वा विसेसमत्तमेव वक्खाम।। २. इधा पि पुब्बेकताधिकारस्स पुजवतो अकते आपस्मि पोक्खरणिया वा तळाके वा लोणियं वा समुद्दे वा निमित्तं उप्पज्जति चूळसीवत्थेरस्स विय। तस्स किरायस्मतो 'लाभसकारं पहाय विवित्तवासं वसिस्सामी' ति महातित्थे नावं आरुहित्वा जम्बुदीपं गच्छतो अन्तरा महासमुदं ओलोकयतो तप्पटिभागं कसिणनिमित्तं उदपादि। ३. अकताधिकारेन चत्तारो कसिणदोसे परिहरन्तेन नील-पीत-लोहितोदातवण्णानं अञ्जतरवण्णं आपं अगहेत्वा यं पन भूमिं असम्पत्तमेव आकासे सुद्धवत्थेन गहितं उदकं, अनं वा तथारूपं विप्पसन्नं अनाविलं, तेन पत्तं वा कुण्डिकं वा समतित्तिकं पूरेत्वा विहारपच्चन्ते वुत्तप्पकारे पटिच्छन्ने ओकासे ठपेत्वा सुखनिसिन्नेन न वण्णो पच्चवेक्खितब्बो। शेषकसिणनिर्देश , (पञ्चम परिच्छेद) आपोकसिण १. अब पृथ्वीकसिण के पश्चात्, आपो (संस्कृत-'आपः' जल) कसिण की व्याख्या की जा रही है। पृथ्वीकसिण के समान ही, आपोकसिण के भावनाभिलाषी, सुखपूर्वक आसीन भिक्षु को जल में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये । 'कृत या अकृत' आदि (पृथ्वीकसिण के प्रसङ्ग में पृ० १७१ पर कहे गये) सबका यहाँ भी विस्तार कर उन्हें समझना चाहिये। तथा जैसे यहाँ जलकसिण के सम्बन्ध में वैसे ही इस अध्याय में आगे भी सर्वत्र इस अर्थ की योजना करनी चाहिये । (क्योंकि) आगे हम इसकी पुनरावृत्ति न करते हुए, केवल भेदों का ही उल्लेख करेंगे। २. पृथ्वीकसिण के समान यहाँ भी, पूर्वजन्म में आपोकसिण का अभ्यास कर चुके पुण्यवान् को अकृत जल, जैसे पुष्करिणी, तालाब, लवणिक (=समुद्र के समान लवणयुक्त जल से भरा हुआ जलाशय) या समुद्र में निमित्त उत्पन्न होता है, चूळसीव स्थविर के समान । उन आयुष्मान् को "लाभ सत्कार को त्यागकर एकान्तवास करूँगा"-ऐसा सोचकर महातीर्थ (श्रीलङ्का का एक प्राचीन बन्दरगाह) से नाव मे बैठकर जम्बूद्वीप (=भारतवर्ष) जाते समय, बीच मार्ग में महासमुद्र को देखते हुए उस समुद्र के समान (प्रतिभाग) कसिण-निमित्त उत्पन्न हुआ। ३. जिसने पूर्व जन्म में अभ्यास नहीं किया है, उसे पृथ्वीकसिण में व्याख्यात (पृष्ठ १७१) के कसिण के चार दोषों से दूर रहते हुए, जल को नील-पीत-लोहित-अवदात-इनमें से किसी एक रंग का रूप ग्रहण न करते हुए जो भूमि पर गिरने के पूर्व ही आकाश से शुद्ध वस्त्र द्वारा रोप कर ग्रहण किया गया हो या उसी प्रकार का स्वच्छ, निर्मल हो, उससे पात्र या 'कुण्डिक' (=चार पाये वाले जल-पात्र) को ऊपर किनारे तक भरकर, विहार मे एकान्त स्थान पर जाकर, उक्त प्रकार से घिरे

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