Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 282
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २२९ ८२. अदुक्खमसुखं ति । दुक्खाभावेन अदुक्खं । सुखाभावेन असुखं । एतेनेत्थ दुक्खसुखपटिपक्खभूतं ततियवेदनं दीपेति, न दुक्खसुखाभावमत्तं । ततियवेदना नाम अदुक्खमसुखा, उपेक्खा ति पि वुच्चति । सा इट्ठानिट्ठविपरीतानुभवनलक्खणा, मज्झत्तरसा, अविभूतपच्चुपट्ठाना, सुखदुक्खनिरोधपदट्ठाना ति वेदितब्बा । ८३. उपेक्खासतिपारिसुद्धिं ति । उपेक्खाय जनितसतिया पारिसुद्धिं । इमस्मि हि झाने सुपरिसुद्धा सतिया च तस्सा सतिया पारिसुद्धि, सा उपेक्खाय कता, न अञ्जेन । तस्मा एतं "उपेक्खासतिपारिसुद्धिं" ति वुच्चति । विभङ्गे पि वुत्तं - " अयं सति इमाय उपेक्खाय विसदा होति परिसुद्धा परियोदाता । तेन वुच्चति उपेक्खासतिपारसुद्धी" (अभि० २- ३१४)ति । याय च उपेक्खाय एत्थ सतिया पारिसुद्धि होति, सा अत्थतो तत्रमज्झत्तता ति वेदितब्बा । न केवलं चेत्थ ताय सति येव परिसुद्धा, अपि च खो सब्बे पि सम्पयुत्तधम्मा, सतिसीसेन पन देसना वृत्ता । तत्थ किञ्चापि अयं उपेक्खा हेट्ठा पि तीसु झानेसु विज्जति । यथा पन दिवा सुरियप्पभाभिभवा सोम्मभावेन च अत्तनो उपकारकत्तेन वा सभागाय रत्तिया अलाभा दिवा विज्जमाना पि चन्दलेखा अपरिसुद्धा होति अपरियोदाता; एवमयं पि तत्रमज्झत्तुपेक्खा चन्द्रलेखावितक्कादिपच्चनीकधम्मतेजाभिभवा सभागाय च उपेक्खावेदनारत्तिया अप्पटिलाभा विज्जमाना पि पठमादिज्ज्ञानभेदेसु अपरिसुद्धा होति । तस्सा च अपरिसुद्धाय दिवा अपरिसुद्धचन्दलेखाय पभा विय सहजाता पि सतिआदयो अपरिसुद्धा व होन्ति । तस्मा तेसु दुःख दौर्मनस्य का प्रत्यय है, दौर्मनस्य द्वेष का । सुख आदि के नाश से प्रत्यय के साथ रागद्वेष आदि नष्ट हो जाने से अतिदूर हो जाते हैं। ८२. अदुक्खमसुखं (अदुःख - असुख) - दुःख के अभाव से अदुःख सुख के अभाव से असुख । इससे यहाँ दुःख-सुख की प्रतिपक्षभूत तृतीय वेदना सूचित होती है, दुःख-सुख का अभावमात्र नहीं । तृतीय वेदना अदुःख - असुख वेदना है, उसे 'उपेक्षा' भी कहते हैं। उसका लक्षण है इष्ट-अनिष्ट के विपरीत अनुभव । रस है मध्यस्थ होना और प्रत्युपस्थान- अप्रकट होना एवं पदस्थान सुख-दुःख का निरोध है - ऐसा जानना चाहिये । ८३. उपेक्खासतिपारिसुद्धिं - उपेक्षा से उत्पन्न स्मृति की परिशुद्धि ही उपेक्षा-स्मृतिपरिशुद्धि है। इस ध्यान में स्मृति परिशुद्ध होती है। जो वह वह स्मृति की परिशुद्धि है, वह उपेक्षा द्वारा की गयी होती है, अन्य किसी से नहीं। इसलिये इस ध्यान को 'उपेक्षाजन्य स्मृति की परिशुद्धि वाला' कहा गया है। विभाग में भी कहा गया है- "यह स्मृति इस उपेक्षा से स्वच्छ, परिशुद्ध एवं स्पष्ट होती है । इसीलिये कहा जाता है- 'उपेक्षास्मृतिपरिशुद्धि' ।" जिस उपेक्षा द्वारा यहाँ स्मृति परिशुद्ध होती है, उसका तात्पर्य तत्रमध्यस्थता समझना चाहिये । एवं उस उपेक्षा से यहाँ इस ध्यान में केवल स्मृति ही परिशुद्ध नहीं होती, अपितु सभी सम्प्रयुक्त धर्म भी परिशुद्ध हो जाते हैं। किन्तु स्मृति को प्रमुखता देते हुए देशना की गयी है। वहाँ, यद्यपि यह उपेक्षा निम्नस्तरीय तीनों ध्यानों में भी विद्यमान रहती है, किन्तु जैसे दिन में सूर्य के प्रभाव से अभिभूत होने से सौम्य एवं स्वयं की उपकारक सभाग (= अनुकूल) रात्रि का लाभ न मिलने से दिन में शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की प्रभा (= चन्द्रलेखा) अपरिशुद्ध, अस्पष्ट (अर्थात् निस्तेज होती है, वैसे ही यह तत्रमध्यस्थ उपेक्षारूपी चन्द्रलेखा भी वितर्क आदि प्रतिपक्ष धर्मों के तेज से अभूित होने से एवं सभाग उपेक्षा वेदनारूपी रात्रि का लाभ प्राप्त न करने से, विद्यमान होने पर भी

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