Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 271
________________ २१८ विशुद्धिमग्ग सम्पजानो, सुखं च कायेन पटिसेवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति उपेक्खको सतिमा सुखविहारी ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरती" ( दी० १-६६ ) ति । एवमनेन एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं ततियं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं । ६३. तत्थ पीतिया च विरागा ति । विरागो नाम वुत्तप्पकाराय पीतिया जिगुच्छनं वा, समतिक्कमो वा । उभिन्नं पन अन्तरा च सद्दो सम्पिण्डनत्थो, सो वूपसमं वा सपिण्डेति वितक्कविचारानं वूपसमं वा । तत्थ यदा वूपसममेव सम्पिण्डेति, तदा "पीतिया च विरागा किञ्च भिय्यो वूपसमा चा" ति एवं योजना वेदितब्बा । इमिस्सा च योजनाय विरागा जिगुच्छनत्थो होति, तस्मा "पीतिया जिगुच्छना च वूपसमा चा" ति अयमत्थो दट्ठब्बो । यदा पन वितक्कविचारवूपसमं सम्पिण्डेति, तदा "पीतिया च विरागा, किञ्च भिय्यो वितक्कविचारानं च वूपसमा" ति एवं योजना वेदितब्बा । इमिस्सा च योजनाय विरागो समतिक्कमनत्थो होति, तस्मा "पीतिया च समतिक्कमा वितक्कविचारानं च वूपसमा " ति. अयमत्थो दट्ठब्बो । ६४. कामं चेते वितक्कविचारा दुतियज्झाने येव वूपसन्ता, इमस्स पन ज्ञानस्स मग्गपरिदीपनत्थं वण्णभणनत्तं चेतं वुतं । 'वितक्कविचारानं च वूपसमा ति हि वुत्ते इदं पञ्ञायतिनूनं "वितक्कविचारवूपसमो मग्गो इमस्स झानस्सा" ति । यथा च ततिये अरियमग्गे अप्पहीनानं पि सक्कायदिट्ठादीनं "पञ्चनं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहाना" (दी०१सुखं च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति - उपेक्खको सतिमा सुखविहारी ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरती" ति ( दी० १-६६ ) । एवमनेन एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं ततियं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं-का विस्तृत विवरण समाप्त हुआ । अब आचार्य इस पालिपाठ में आये विशिष्ट शब्दों का व्याख्यान कर रहे हैं ६३. पीतिया च विरागा (प्रीति और विराग से) - पूर्वोक्त प्रकार की प्रीति के प्रति जुगुप्सा (= अरुचि) या उसका अतिक्रमण 'विराग' है। दोनों के बीच का 'और' ('च) शब्द संयोजन के अर्थ में है। वह या तो उपशमन को उन दोनों से जोड़ता है या द्वितीय ध्यान के वर्णन के प्रसङ्ग में वितर्क और विचार के उपशमन को। इनमें जब उपशमन को ही जोड़ता है, तब "प्रीति से विराग और इसके अतिरिक्त उपशम से " इस प्रकार की अर्थ-योजना समझनी चाहिये। इस अर्थ-योजना में 'विराग' का अर्थ जुगुप्सा है, इसलिये इसका " प्रीति के प्रति जुगुप्सा एवं प्रीति का उपशम " - यह अर्थ समझना चाहिये । किन्तु जब यह मानते हैं कि 'च' शब्द वितर्क-विचार को उपशम के साथ जोड़ता है, तब 'प्रीति से विराग और इसके अतिरिक्त उपशम से - इस प्रकार अर्थ समझना चाहिये। इस अर्थ - योजना में 'विराग' का अर्थ 'समतिक्रमण' है इसलिये " प्रीति का समतिक्रमण और वितर्क तथा विचार का उपशमन " - यह अर्थ समझना चाहिये । ६४. यद्यपि ये वितर्क और विचार द्वितीय ध्यान में ही शमित हो चुके हैं, किन्तु इस तृतीय ध्यान के मार्ग पर प्रकाश डालने एवं गुण-कथन के उद्देश्य से ऐसा कहा गया है। "वितर्क और विचार ! के उपशमन से" इस कथन से सूचित होता है कि अवश्य ही इस ध्यान का मार्ग (= उपाय) वितर्क और विचार का शमन है। जैसे तृतीय आर्य-मार्ग (अनागामी मार्ग) में प्रहीण न होने वाली सत्कायदृष्टि (शरीर में एक नित्य 'आत्मा' के होने की मिथ्यादृष्टि) आदि के विषय में "पाँच अवरभागीय संयोजनों (१. सत्कायदृष्टि, -

Loading...

Page Navigation
1 ... 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322