Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 273
________________ विसुद्धिमग्ग (४) या पन " कालेन कालं उपेक्खानिमित्तं मनसिकरोती " ति एवमागता अनच्चारद्धनातिसिथिलविरियसङ्घाता उपेक्खा, अयं विरियुपेक्खा नाम । (५) या "कति सङ्खारुपेक्खा समथवसेन उप्पज्जन्ति ? कति सङ्खारुपेक्खा विपस्सनावसेन उप्पज्जन्ति ? अट्ठ सङ्घारुपेक्खा समाधिवसेन उप्पज्जन्ति, दस सङ्ग्रारुपेक्खा विपस्सनवसेन उप्पज्न्ती" ति एवमागता नीवरणादिपटिसङ्ग्रासन्तिट्ठाना गहणे मज्झत्तभूता उपेक्खा, अयं सङ्ग्रारुपेक्खा नाम । (६) या पन " यस्मि समये कामावचरे कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति उपेक्खासहगतं " ति एवमागता अदुक्खमसुखसञ्ञिता उपेक्खा, अयं वेदनुपेक्खा नाम । (७) या " यदत्थि यं भूतं तं पजहति, उपेक्खं पटिलभती" ति एवमागता विचिनने मज्झत्तभूता उपेक्खा, अयं विपस्सनुपेक्खा नाम । (८) या पन छन्दादीसु येवापनकेसु आगता सहजातानं समवाहितभूता उपेक्खा, अयं तत्रमज्झत्तुपेक्खा नाम । (९) या " उपेक्खको च विहरती" ति एवमागता अग्गसुखे पि तस्मि अपक्खपातजननी उपेक्खा, अयं झानुपेक्खा नाम । २२० (३) "विवेक पर आधृत उपेक्षासम्बोध्यङ्ग की भावना करता है"-इस प्रकार वर्णित, सहजात धर्मों के प्रति मध्यस्थता के रूप में रहने वाली जो उपेक्षा है, वह बोध्यम-उपेक्षा है। (४) "समय-समय पर उपेक्षा निमित्त को मन में लाता है" - इस प्रकार वर्णित, न बहुत सक्रिय न बहुत शिथिल, 'वीर्य' नामक जो उपेक्षा है, वह वीर्य-उपेक्षा है। (५) 'संस्कारों के प्रति कितने प्रकार की उपेक्षाएँ शमथ के कारण उत्पन्न होती हैं? संस्कारों के प्रति कितने प्रकार की उपेक्षाएँ विपश्यना के कारण उत्पन्न होती है? संस्कारों के प्रति आठ प्रकार की उपेक्षाएँ शमथ (=समाधि) के कारण उत्पन्न होती हैं। संस्कारों के प्रति दस प्रकार की उपेक्षाएँ विपश्यना के कारण उत्पन्न होती हैं" - इस प्रकार वर्णित, नीवरण आदि के विचार से एक होने के कारण गृहीत मध्यस्थ रहने वाली जो उपेक्षा है, वह संस्कार- उपेक्षा है। (६) "जिस समय उपेक्षासहगत कामावचर कुशलचित्त उत्पन्न होता है" (द्र० ध० सं०, १५६) - इस प्रकार वर्णित 'अदुःख, असुख' संज्ञक जो उपेक्षा है, वह वेदना - उपेक्षा है। (७) "जो है, जो था, उसे त्याग देता है, उसके प्रति उपेक्षा प्राप्त करता है" - इस प्रकार वर्णित, विवेचन करने में मध्यस्थ रहने वाली जो उपेक्षा है वह विपश्यना- उपेक्षा है। (८) छन्द आदि, 'येवापनक' धर्मों में वर्णित, सहजात धर्मों को लाने वाली जो उपेक्षा है, वह तत्रमध्यस्थ- उपेक्षा है। ("ये वा पन तस्मि समये अजे पि अत्थि पटिच्चसमुप्पन्ना अरूपिनो धम्मा, इमे धम्मा कुसला" - इस प्रकार से धम्मसङ्गणि में "ये वा पन" से प्रारम्भ कर इन नौ धर्मों का वर्णन किया गया है - १. छन्द, २. अधिमोक्ष, ३ मनस्कार, ४ तत्रमध्यस्थता, ५. करुणा, ६ मुदिता, ७. कायदुश्चरित्र - विरति, ८. वाग्दुश्चरित्र - विरति, ९. मिथ्या आजीव - विरति । इन धर्मों के प्रति जो मध्यस्थता है, वही यहाँ अभिप्रेत है ) (९) "उपेक्षा-युक्त होकर विहार करता है"-इस प्रकार वर्णित, उस अग्रसुख (=सर्वोच्च सुख, ध्यान - सुख) के प्रति भी अपक्षपात की मनोवृत्ति उत्पन्न करने वाली जो उपेक्षा है, वह उपेक्षा कहलाती है।

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