Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 275
________________ २२२ विसुद्धिमग्ग सङ्घारुपेक्खा नाम। इति विपस्सनुपेक्खाय सिद्धाय सङ्खारुपेक्खा ति सिद्धा व होति । इमिना पनेसा विचिननगहणेसु मज्झत्तसङ्घातेन किच्चेन द्विधा भिन्ना ति। विरियुपेक्खा पन वैदनुपेक्खा च अञ्जमलंच अवसेसाहि च अत्थतो भिन्ना एवा ति। ६८. इति इमासु उपेक्खासु झानुपेक्खा इध अधिप्पेता। सा मज्झत्तलक्खणा, अनाभोगरसा, अव्यापारपच्चुपट्ठाना, पीतिविरागपदट्ठाना ति । एत्थाह-ननु च अयं अत्थतो तत्रमज्झत्तुपेक्खा व होति, सा च पठमदुतियज्झानेसु पि अत्थि, तस्मा तत्रापि उपेक्खको च विहरती' ति एवमयं वत्तब्बा सिया, सा कस्मा न वुत्ता ति? अपरिब्यत्तकिच्चतो। अपरिब्यत्तं हि तस्सा तत्थ किच्चं; वितकादीहि अभिभूतत्ता। इध पनायं वितक्कविचारपीतीहि अनभिभूतत्ता उक्खित्तसिरा विय हुत्वा परिब्यत्तकिच्चा जाता, तस्मा वुत्ता ति। निविता "उपेक्खको च विहरती" ति एतस्स सब्बसो अत्थवण्णना। ६९. इदानि सतोचसम्पजानो ति । एत्थ सरती ति सतो।सम्पजानाती ति सम्पजानो। पुग्गलेन सति च सम्पजजंच वुत्तं । तत्थ सरणलक्खणा सति, असम्मुस्सनरसा, आरक्खपच्चुपट्ठाना। असम्मोहलक्खणं सम्पजज, तीरणरसं, पविचयपच्चुपट्ठान। . ७०. तत्थ किञ्चापि इदं सतिसम्पजनं पुरिमज्झानेसु पि अस्थि । मुट्ठसतिस्स हि असम्पजानस्स उपचारमत्तं पि न सम्पज्जति, पगेव अप्पना। ओळारिकत्ता पन तेसं झानानं, संस्कार-उपेक्षा है। इस प्रकार विपश्यना-उपेक्षा सिद्ध होने पर संस्कार-उपेक्षा भी सिद्ध होती है; किन्तु वह अन्वेषण और ग्रहण करने में मध्यस्थ होने के कार्य के अनुसार दो प्रकार से विभक्त है। वीर्य-उपेक्षा एवं वेदना-उपेक्षा एक दूसरे से भी एवं शेष उपेक्षाओं से भी 'अर्थतः भिन्न हैं। ६८. इन पूर्वोक्त सभी उपेक्षाओं में यहाँ ध्यान-उपेक्षा ही अभिप्रेत है। वह 'मध्यस्थ' लक्षण वाली है, 'अनाभोग' (-सम्बन्ध न रखना) रस वाली है, अव्यापार' (रुचि न रखना) उसका प्रत्युपस्थान एवं प्रीति से विराग पदस्थान है। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है- क्या यह अर्थतः तत्रमध्यस्थ-उपेक्षा ही नहीं है? और वह प्रथम तथा द्वितीय ध्यानों में भी होती है, अतः वहाँ भी उपेक्षा के साथ विहरता है ऐसे कहा जाना चाहिये था? तो वह (उपेक्षा) किसलिये वहाँ नहीं की गयी? उत्तर- कृत्य की अस्पष्टता (अव्यक्तता) के कारण। वहाँ उसका कृत्य वितर्क आदि द्वारा अभिभूत होने से अस्पष्ट होता है। किन्तु यहाँ तृतीय ध्यान में उपेक्षा वितर्क, विचार, प्रीति द्वास अभिभूत न होने के कारण, सिर उठाये हुए के समान, स्पष्ट कृत्य वाली होती है। इसलिये यहाँ कही गयी है। "उपेक्षा के साथ विहरता है"-इस पद की सभी पक्षों में व्याख्या समाप्त हुई। ६९. अब सतोच सम्पजानो "स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त" पर विचार किया जायगा । यहाँ स्मरण करता है (=सरति) अतः स्मृतिमान् है। भलीभाँति जागरूक रहता है (=सम्पजानाति), अतः सम्प्रजन्ययुक्त है। ये स्मृति और सम्प्रजन्य गुण वैयक्तिक गुणों के रूप में बतलाये गये हैं। इनमें; १. 'स्मृति' स्मरण लक्षण वाली है, विस्मृत न करना इसका कार्य है, बचाकर रखना इसका प्रत्युपस्थान है। २. सम्प्रजन्य' का लक्षण असम्मोह है, निश्चय करना इसका प्रत्युपस्थान है। ७०. इनमें, यद्यपि ये, स्मृति-सम्प्रजन्य पूर्व ध्यानों में भी होते हैं, क्योंकि विस्मरणशील और असावधान को तो उपचार मात्र भी प्राप्त नहीं होती, फिर अर्पणा की तो बात ही क्या; किन्तु उन ध्यानों

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