Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 270
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २१७ २- ३११) तिवृत्त तं सपरिक्खारं झानं दस्सेतुं परियायेन वुत्तं । ठपेत्वा पन सम्पसादनं निप्परियायेन उपनिज्झानलक्खणप्पत्तानं अङ्गानं वसेन तिवङ्गिकमेव एतं होति । यथाह"कतमं तस्मि समये तिवङ्गिकं झानं होति ? पीति सुखं चित्तस्स एकग्गता" (अभि० २३१९) ति । सेसं पठमज्झाने वृत्तनयमेव । ततियज्ज्ञानकथा ६१. एवमधिगते पन तस्मि पि वृत्तनयेनेव पञ्चहाकारेहि चिण्णवसिना हुत्वा पगुणदुतियज्ज्ञानतो वुट्ठाय " अयं समापत्ति आसन्नवितक्कविचारपच्चत्थिका, 'यदेव तत्थ पीतिगतं चेतसो उप्पलावितं, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायती' (दी० १-३३ ) ति वुत्ताय पीतिया ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला ति च तत्थ दोसं दिस्वा ततियज्ज्ञानं सन्ततो मनसिकरित्वा दुतियज्झाने निकन्तिं परियादाय ततियाधिगमाय योगो कातब्बो । अथस्स यदा दुतियज्झानतो वुट्ठाय सतस्स सम्पजानस्स झानङ्गानि पच्चवेक्खतो पीति ओळारिकतो उपद्वाति, सुखं चेव एकग्गता च सन्ततो उपट्ठाति । तदास्स ओळारिकङ्गप्पहानाय सन्तङ्गपटिलाभाय च तदेव निमित्तं " पथवी पथवी" ति पुनप्पुन मनसिकरोतो "इदानि ततियज्ज्ञानं उप्पज्जिस्सती" ति भवङ्गं उपच्छिदित्वा तदेव पथवीकसिणं आरम्मणं कत्वा मनोद्वारावज्जनं उप्पज्जति । ततो तस्मि येवारम्मणे चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति, येसं अवसाने एकं रूपावचरं ततियज्झानिकं, सेसानि वुत्तनयेनेव कामावचरानी ति । ६२. एत्तावता च पनेस "पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो (= संसाधनों) के साथ ध्यान को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से आलङ्कारिक रूप से कहा गया है। दि न्तु आलङ्कारिक रूप से न कहे जाने पर, प्रसन्नता को छोड़कर, विचार (= उपनिज्झान) के लक्षण वाले अक्षों के अनुसार यह तीन अङ्गों वाला ही होता है। जैसा कि कहा है-"उस समय कौन से तीन अङ्गों वाला ध्यान होता है? प्रीति, सुख, चित्त की एकाग्रता" । शेष प्रथम ध्यान के विषय में कहे गये के अनुसार ही है। तृतीय ध्यान ६१. यो द्वितीय ध्यान प्राप्त जाने पर, उसमें भी पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही पाँच प्रकार सेनिपुण होकर अभ्यस्त द्वितीय ध्यान से ऊपर उठकर - "यह समापत्ति प्रतिपक्षभूत वितर्क-विचार की समीपवर्तिनी है, उसमें यह जो प्रीतियुक्त चित्त का उत्फुल्ल होना है, उसी कारण से यह स्थूल कही जाती है' (दी० १.३३) इस प्रकार कही गयी " प्रीति के स्थूल होने से वह दुर्बल अग्रवाली है" ऐसे उस द्वितीय ध्यान में दोष देखकर तृतीय ध्यान की ओर शान्तिपूर्वक मन लगाकर, द्वितीय ध्यान की कामना छोड़कर, तृतीय ध्यान की प्राप्ति के लिये उद्योग करना चाहिये। जब द्वितीय ध्यान से उठकर वह स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त भिक्षु ध्यानानों का प्रत्यवेक्षण करता है, तब प्रीति स्थूल रूप में उपस्थित प्रतीत होती है, सुख एवं एकाग्रता शान्त रूप में उपस्थित होते हैं। तब यह भिक्षु स्थूल अ के प्रहाण एवं शान्त अनों की प्राप्ति के लिये उसी 'पृथ्वी, पृथ्वी' निमित्त में बारम्बार मन लगाते हुए 'अब तृतीय ध्यान उत्पन्न होगा' ऐसा जानकर और भवान का उपच्छेद कर उसी पृथ्वीकसिण को आलम्बन बनाकर मनोद्वारावर्जन चित्त उत्पन्न करता है। तत्पश्चात् उसी आलम्बन में चार या पाँच जवनचित्त जवन करते हैं, जिनमें से अन्तिम चित्त रूपावचर और तृतीय ध्यान का होता है, शेष पूर्वोक्त के अनुसार ही कामावचर होते हैं। ६२. इतने व्याख्यान से "पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, -

Loading...

Page Navigation
1 ... 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322