Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 250
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १९७ अपि च-मलग्गहितं कंसभाजनं एकेन हत्थेन दळ्हगहणहत्थो विय वितको, परिमज्जनहत्थो विय विचारो। तथा कुम्भकारस्स दण्डप्पहारेन चकं भमयित्वा भाजनं करोन्तस्स उप्पीळनहत्थो विय वितको, इतो चितो च सञ्चरणहत्थो विय विचारो। तथा मण्डलं करोन्तस्स मज्झे सन्निरुम्भित्वा ठितकण्टको विय अभिनिरोपनो वितको, बहि परिब्भमनकण्टको विय अनुमज्जनो विचारो। इति इमिना च वितकेन इमिना च विचारेन सह वत्तति रुक्खो विय पुप्फेन चा ति इदं झानं "सवितकं सविचारं" ति वुच्चति । विभङ्गे पन "इमिना च वितकेन इमिना च विचारेन उपेतो होति समुपेतो" (अभि० २-३०९)ति आदिना नयेन पुग्गलाधिट्ठाना देसना कता। अत्थो पन तत्रापि एवमेव दट्टब्बो। २८. विवेकजं ति। एत्थ विवित्ति विवेको, नीवरणविगमो ति अत्थो। विवित्तो ति वा विवेको, नीवरणविवित्तो झानसम्पयुत्तधम्मरासी ति अत्थो। तस्मा विवेका, तस्मिं वा विवेके जातं ति विवेकजं। २९. पीतिसुखं ति। एत्थ पीणयती ति पीति।सा सम्पियायनलक्खणा, कायचित्तपीणनरसा, फरणरसा वा, ओदग्यपच्चुपट्टाना। सा पनेसा १.खुद्दिका पीति, २. खणिका पीति, ३. ओकन्तिका पीति, ४. उब्बेगा पीति, ५. फरणा पीती ति पञ्चविधा होति। . तत्थ खुदिका पीति सरीरे लोमहंसमत्तमेव कातुं सक्कोति। खणिका पीति खणे के समान अनुमज्जनभाव से प्रवृत्त करना 'विचार' है"। वह कथन अनुप्रबन्धन के सहारे चित्तप्रवृत्ति में युक्त होता है। उनका वह भेद प्रथम और द्वितीय ध्यानों में (जब ध्यान पाँच अगों वाला माना जाता है) स्पष्ट होता है। और भी-जिसमें मैल बैठ गया हो, ऐसे काँसे के बर्तन को दृढ़तापूर्वक पकड़ने वाले हाथ के समान वितर्क है; माँजने वाले हाथ के समान विचार है। एवं-दण्डप्रहार से चाक घूमाते हुए बर्तन बनाने वाले कुम्हार के मिट्टी के लोंदे को दबाने वाले हाथ के समान वितर्क' है; आकार देने के लिये यहाँ-वहाँ फिरने वाले हाथ के समान 'विचार' है। तथा-परकाल से गोला बनाने (=कागज आदि पर गोल आकार खींचने) वाले व्यक्ति द्वारा बीच में गड़ाकर खड़े किये गये काँटे के समान आलम्बन में चित्त का आरोपण करना 'वितर्क है; बाहर घूमने (=आकार खींचने) वाले काँटे के समान अनुमजन करना 'विचार' है। इस प्रकार, पुष्पयुक्त वृक्ष के समान यह प्रथम ध्यान इस वितर्क एवं विचार के साथ रहना है; अतः उसे 'सवितर्क सविचार' कहा जाता है। किन्तु विमझ में "इस वितर्क से और इस विचार से युक्त, संयुक्त होता है" आदि प्रकार से पुद्गल के विषय में देशना की गयी है। किन्तु वहाँ भी अर्थ तो यही (उपर्युक्त ही) समझना चाहिये। २८. विवेकजं- यहाँ विविक्त करना ही विवेक है। इसका अर्थ है नीवरणों से रहित होना। अथवा विविक्त (ही) विवेक है। इसका अर्थ है नीवरणों से विविक्त (रहित), ध्यान से सम्प्रयुक्त धर्मा का समूह | उस विवेक से या उस विवेक में उत्पन्न है अतः विवेकज है। २९. पीतिसुखं- यहाँ-तृप्त करती है या बढ़ाती है इसलिये प्रीति है। आलम्बन में अनुरक्त करना इसका लक्षण है। काय व चित्त को तृप्त करना या बढ़ाना इसका रस है। (जब प्रीति उत्पन्न होती है तब चित्त विकसित कमल के समान खिल जाता है, सम्पूर्ण शरीर तृप्त एवं बृंहित-बढ़ा हुआ प्रतीत होता है ।) गद्गद (औदग्रय) होना इसका प्रत्युपस्थान है।

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