Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 266
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २१३ अथस्स यदा पठमज्झाना वुट्ठाय सतस्स सम्पजानस्स झानङ्गानि पच्चवेक्खतो वितक्कविचारा ओळारिकतो उपट्टहन्ति, पीतिसुखं चेव चित्तेकग्गता च सन्ततो उपट्ठाति, तदास्स ओळारिकङ्गप्पहानाय सन्तङ्गपटिलाभाय च तदेव निमित्तं "पथवी पथवी" ति पुनप्पुनं मनसि - करोतो'' इदानि दुतियज्झानं उप्पज्जिस्सती " ति भवङ्गं उपच्छिन्दित्वा तदेव पथवीकसिणं आरम्मणं कत्वा मनोद्वारावज्जनं उपज्जति ततो तस्मि येवारम्मणे चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति, येसं अवसाने एकं रूपावचरं दुतियज्झानिकं । सेसानि वृत्तप्पकारानेव कामावचरानीति । एतावता चेस " वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । ( दी ० १ - ६५ ) एवमनेन दुवङ्गविप्पहीनं तिवङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं दुतियं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं । ५३. तत्थ वितक्कविचारानं वूपसमा ति । वितक्कस्स च विचारस्स चा ति इमेसं द्विन्नं वूपसमा समतिक्कमा, दुतियज्ज्ञानक्खणे अपातुभावा ति वृत्तं होति । तत्थ किञ्चापि दुतियज्ज्ञाने सब्बे पि पठमज्झानधम्मा न सन्ति । अञ्जे येव हि पठमज्झाने फस्सादयो, अञ्ञ इध । ओळारिकस्स पन अङ्गस्स समतिक्कमा पठमज्झानतो परेसं दुतियज्झानादीनं अधिगमो होती ति दीपनत्थं "वितक्कविचारानं वूपसमा" ति एवं वृत्तं ति वेदितब्बं । कारण दुर्बल अङ्गों वाली है" इस प्रकार उसमें दोष देखते हुए, द्वितीय ध्यान को शान्तिपूर्वक मन में लाते हुए प्रथम ध्यान की कामना (अपेक्षा) त्यागकर द्वितीय ध्यान की प्राप्ति के लिये उद्योग करना चाहिये । जब प्रथम ध्यान से ऊपर उठकर, निरन्तर सावधान रहने वाला यह भिक्षु ध्यानानों का प्रत्यवेक्षण करता है, तब उसके वितर्क-विचार स्थूल रूप में उपस्थित होते हैं, प्रीति-सुख और चित्त की एकाग्रता शान्त रूप में (या निरन्तर) उपस्थित रहते हैं । स्थूल अङ्गों के प्रहाण के लिये और शान्त रूप में उपस्थित अङ्गों के लाभ के लिये उसी निमित्त 'पृथ्वी, पृथ्वी' को पुनः मन में लाते हुए " अब द्वितीय ध्यान उत्पन्न होगा" इस प्रकार भवाङ्ग का उपच्छेद कर, उसी पृथ्वीकसिण को आलम्बन बनाकर मनोद्वारावर्जन चित्त उत्पन्न होता है। तब उसी आलम्बन में चार या पाँच जवनचित्त जवन करते हैं, जिनका अन्तिम चित्त एकरूपवावचर एवं द्वितीय ध्यान का होता है। शेष कहे गये प्रकार से ही, कामावचर होते हैं। इतने व्याख्यान से– “वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झतं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । (दी० १-६५) एवमनेन दुवङ्गविप्पहीनं तिवङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं दुतियं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं " - इस पालिपाठ का विवरण सम्पन्न हुआ । ५३. वितक्कविचारानं वूपसमा - वितर्क-विचारों का शमन हो जाने से । वितर्क एवं विचार इन दोनों का उपशमन, समतिक्रमण हो जाने से तथा द्वितीय ध्यान के क्षण में इनके प्राप्त न होने के कारण ऐसा कहा गया है। यद्यपि द्वितीय ध्यान में प्रथम ध्यान के सभी धर्म नहीं रहते; क्योंकि प्रथम ध्यान में स्पर्श आदि अन्य ही धर्म होते हैं और यहाँ द्वितीय ध्यान में अन्य; किन्तु स्थूल अनों के समतिक्रमण से प्रथम ध्यान से भिन्न द्वितीय ध्यान आदि की प्राप्ति होती है-इसे दिखाने के लिये " वितर्क-विचारों का शमन हो जाने से" यह कहा गया है-ऐसा जानना चाहिये ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322