Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 260
________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २०७ सल्लक्खेत्वा ततो पट्ठाय तादिसं येव उपनामेन्तो लाभस्स भागो होति; एवमयं पि अधिगतक्खणे भोजनादयो आकारे गहेत्वा ते सम्पादेन्तो नट्ठे नद्वे पुनप्पुनं अप्पनाय लाभी होति । तस्मा तेन वालवेधिना विय सूंदेन विय च आकारा परिग्गहेतब्बा । वुत्तपि चेतं भगवता - 'सेय्यथापि, भिक्खवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो सूदो राजानं वा राजमहामत्तं वा नानच्चयेहि सूपेहि पच्चुपट्ठितो अस्स - अम्बिलग्गेहि पि तित्तकग्गेहि पि कटुकग्गेहि पि मधुरगेहि पि खारिकेहि पि अक्खारिकेहि पि लोणिकेहि पि । स खो सो, भिक्खवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो सूदो सकस्स भत्तु निमित्तं उग्गहाति -' इदं वा मे अज्ज भत्तु सूपेय्यं रुच्चति, इमस्स वा अभिहरति, इमस्स वा बहुं गण्हाति, इमस्स वा वण्णं भासति, अम्बिग्गं वा मे अज्ज भत्तु सूपेय्यं रुच्चति, अम्बिलग्गस्स वा अभिहरति, अम्बिलग्गस्स वा बहुं गण्हाति, अम्बिलग्गस्स वा वण्णं भासति पे० अलोणिकस्स वा वण्णं भासती' ति । स खो सो भिक्खवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो सूदो लाभी चेव होति अच्छादनस्स, लाभी वेतनस्स, लाभी अभिहारानं । तं किस्स हेतु ? तथा हि सो, भिवखवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो सूदो सकस्स भत्तु निमित्तं उग्गहाति । एमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो पण्डितो ब्यतो कुसलो भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति .... वेदनासु वेदना .... चित्ते चित्ता.... धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । तस्स धम्मेसु धम्मानुपस्सिनो विहरतो चित्तं समाधियति, उपक्किलेसा पहीयन्ति । सो तं निमित्तं उग्गण्हाति । स खो सो, भिक्खवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो भिक्खु लाभी चेव होति " ४६. और जिस प्रकार कोई कुशल रसोइयाँ स्वामी को भोजन परोसते समय वह जो जो रुचि से खाता है, उस पर ध्यान देते हुए आगे से उसे वैसा ही भोजन लाकर देने से पुरस्कृत होता है; उसी प्रकार यह भी ध्यान प्राप्ति के क्षण में भोजन आदि के प्रकार पर विचार कर उनका प्रयोग करते हुए बार-बार नष्ट होने पर बार बार अर्पणा का लाभ करता है। इसलिये उसे (१) बालवेधी एवं (२) रसोइये (=सूद) के समान आकार-प्रकार का विचार करना चाहिये । भगवान् ने भी संयुक्तनिकाय में यह कहा है " जैसे, भिक्षुओ, कोई बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर रसोइया राजा या राजा के महामन्त्री के सामने नाना प्रकार के सूप प्रस्तुत करता है-जैसे खट्टा भी, तीता भी, कडुवा भी, मीठा भी, खारा भी, क्षाररहित भी, नमकीन भी । और भिक्षुओ, वह बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर रसोइया स्वामी के भोजन का निमित्त यों ग्रहण करता है-'मेरे स्वामी को यह सूप अच्छा लग रहा है, इसी से इसके लिये हाथ बढ़ा रहे हैं, इसे बहुत ले रहे हैं', या 'इसकी प्रशंसा कर रहे हैं', या 'आज मेरे स्वामी को खट्टा सूप अच्छा लग रहा है, ये खट्टे के लिये हाथ बढ़ा रहे हैं, खट्टा बहुत ले रहे हैं, खट्टे की प्रशंसा कर रहे हैं।' .... पूर्ववत् .... जो नमकीन नहीं है उसकी प्रशंसा कर रहे हैं।' भिक्षुओ, ऐसा वह बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर रसोइया वस्त्र, वेतन और उपहारों को प्राप्त करता है। वह किस लिये ? क्योंकि, भिक्षुओ, वह बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर रसोइया स्वामी के निमित्त को ग्रहण करता है। इसी प्रकार, भिक्षुओ, यहाँ कोई कोई बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर भिक्षु साधक, उद्योगी, सम्प्रजन्ययुक्त एवं स्मृतिमान्, लोक में अभिध्या और दौर्मनस्य का दमन कर, काय में कायानुपश्यी होकर विहार करता है, वेदना में वेदनानुपश्यी चित्त में.... धर्मों में...विहार करता है। धर्मों में धर्मानुपश्यी होकर विहार करते समय उसका चित्त एकाग्र होता है, उसके उपक्लेश नष्ट होते हैं। वह उस निमित्त का ग्रहण करता है।

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